उत्तराखंड
के सियासी उठापटक के बीच आये स्टिंग ऑपरेशन में दोनों पक्ष सच्चाई और
लोकतंत्र की दुहाई दे रहे हैं.हरीश रावत और हरक सिंह रावत दोनों ही सच्चाई
और लोकतंत्र की आलमबरदार दिखने की कोशिश कर रहे हैं.हालांकि यह घटिया
गुणवत्ता वाला स्टिंग सामने न भी आता तो सिवाय सनसनी के इसमें कौन सी ऐसी
बात है जो लोग नहीं जानते हैं?यह तथ्य किसी से छुपा नही है कि मुख्यमंत्री
के तौर पर हरीश रावत ने न केवल पार्टी पर कब्ज़ा कर लिया,बल्कि वे सारे धंधे
भी उनके और उनकी चौकड़ी के कब्जे में हैं,जिसके लिए करोड़ों रूपया खर्च
कर,तमाम छल-छद्म कर कांग्रेस-भाजपा जैसी पार्टियों में लोग सत्ता में
पहुंचना चाहते हैं.उनकी मण्डली ऊपर पहुँच कर होने वाली कमाई में किसी को
हिस्सेदार बनाने को तैयार नहीं है.यही असल पीड़ा है.दोनों ही पक्षों की
टकराहट की वजह के मूल में यही है.हरीश रावत चाहते हैं कि सब चीजों पर उनका
लौह एकाधिकार रहे.जो उनके खिलाफ खड़े थे,वे अपने लिए गुंजाईश न देख कर
बौखलाए.वरना वो हरक सिंह हों,विजय बहुगुणा या हरीश रावत,इनके पूरे राजनीतिक
जीवन को उठा कर देखिये तो आप पायेंगे कि उसमे दबंगई है,अवांछित तत्वों का
साथ और संरक्षण है पर जिस सच्चाई और लोकतंत्र की वे दुहाई दे रहे
हैं,दूर-दूर तक उसका नाम-ओ-निशान तक नहीं है.हरीश रावत से ही शुरू कर
लीजिये.संजय गांधी की उत्पाती ब्रिगेड के वे सदस्य रहे.बी.बी.सी.हिंदी पर
उन्होंने लखनऊ विश्वविद्यालय में स्वयं अपने विरोधियों को उठवाने की कथा
बड़े गर्व से बयान की थी.उनके ये विरोधी इंदिरा गांधी के खिलाफ प्रदर्शन
करने के लोकतांत्रिक अधिकार का प्रयोग करना चाहते थे.आज लोकतंत्र की दुहाई
देने वाले हरीश रावत को तब यह लोकतंत्र रास नहीं आया और उन्ही के कथनानुसार
उन्होंने इन विरोधियों को चादरों में लपेट कर उठवा लिया और हॉस्टल के
कमरों में बंद कर दिया.फर्जी तरीके से ब्लाक प्रमुख बनने से लेकर आज तक ऐसे
लोकतांत्रिक चरित्र के कई किस्से बयान किये जा सकते हैं.आज मुख्यमंत्री
कार्यालय में जो extra constitutional(संविधानेत्तर) सत्ता चलाने के लिए
लोग उन्होंने बिठाए हुए हैं,वे भी लोकतंत्र के प्रति हरीश रावत की कितनी
आस्था है,उसको प्रकट करते हैं.बाकी खनन से लेकर शराब तक पूरे प्रदेश में
सच्चाई और लोकतंत्र के नमूने बिखरे पड़े हैं.
यही अवस्था हरक सिंह रावत की भी है.छात्र जीवन में ही चुनाव में शिकस्त मिलती देख मतपेटियों को उन्होंने अलकनंदा के हवाले करवा कर मतपेटियों के सारे पाप धुलवा दिए थे !लोकतंत्र के यज्ञ में लोकतंत्र को ही होम कर देना का यह उनका पहला कदम था और तब से उन्होंने पीछे मुड़ कर नहीं देखा.बीते बीस-तीस बरस की न बखाने जाने वाले महिमा को छोड़ भी दिया जाए तो 2012 से लेकर अब तक ही याद करिए कि दमयंती रावत से लेकर अपने रिश्तेदार डा.यशवंत बर्त्वाल तक को मनमाने तरीके से अपने मंत्रालय के अंतर्गत उच्च पदों पर नियम विरुद्ध तैनात करने में किस सच्चाई और लोकतंत्र का तकाजा था ?
उपरोक्त दोनों ही महापुरुषों के युवा अवस्था का जिक्र यह समझने के लिए किया गया है कि कैसे उक्त दोनों पूतों के पांवों के साईज से पालने का साईज तब ही छोटा पड़ने लग गया था और आज इनकी व्यक्तिगत लिप्साओं के साईज के सामने राज्य भी छोटा पड़ रहा है तो इसके निशाँ इनकी युवा अवस्था में ही दिखने लगे थे.
विजय बहुगुणा का अतीत भी लोग जानते ही हैं कि बम्बई हाई कोर्ट से उन्हें क्यूँ रुखसत होना पड़ा.बाकी आपदा के दौरान उनकी कार्यकुशलता भी लोग देख चुके हैं.अपने फुफेरे भाई भुवन चन्द्र खंडूड़ी की तरह ही उन्होंने खरीद-फरोख्त की राजनीति को परवान चढ़ाया और स्वयं विधान सभा पहुँचने के भाजपा से विधायक बने किरण मंडल को खरीदने का रास्ता ही चुना.आज वे कहें कि विधायकों की खरीद-फरोख्त हो रही है तो उनके मुंह से यह सुनना अटपटा सा लगता है.उनके 600 करोड़ रुपये दे कर मुख्यमंत्री पद पाने का किस्सा तो खूब चर्चित हुआ ही.उनका बेटा भी उसी तरह संविधानेत्तर सत्ता केंद्र था,जिस तरह इस समय हरीश रावत का बेटा है. माफियाओं द्वारा उनेक दरबार में हाजिरी बजाने के किस्से भी कम नहीं थे.
इन तीनों के चरित्र पर यह प्रकाश सिर्फ इसलिए डाला गया है ताकि यह मुगालता न होने लगे कि यह किन्ही उसूलों-सिद्धांतों की लड़ाई है या कि यह तलाश न होने लगे कि दोनों पक्षों में से किस का चरित्र उजला है.ये दरअसल एक जैसी ही प्रवृत्ति और चरित्र वाले लोगों की लड़ाई है.इसमें कोई सिद्धांत नहीं है कोई राज्य हित नहीं है,दोनों ओर से सत्ता को नियंत्रित करने के लिए किसी भी हद तक जाने की लिप्सा है.यह भी साफ़ हो लें कि भाजपा के सत्ता के लिए लड़ते हुए कोश्यारी,निशंक,खंडूड़ी को भी लोगों ने देखा है तो वे भी उन्नीस-बीस के अंतर के साथ इनके भाजपाई संस्करण मात्र हैं.
सारी लड़ाई यूँ है कि नंगे,नंगों का स्टिंग कर रहे हैं,नंगे,नंगों के खिलाफ ताल ठोक कर खड़े हैं और एक दूसरे का नंगापन दिखा कर अपनी नंगई छुपाने की कोशिश कर रहे हैं.
उत्तराखंड के लिए यह स्थिति त्रासद है.लेकिन इनके दायरे से बाहर निकल कर संघर्षों के रास्ते ही समाधान निकलेगा.
यही अवस्था हरक सिंह रावत की भी है.छात्र जीवन में ही चुनाव में शिकस्त मिलती देख मतपेटियों को उन्होंने अलकनंदा के हवाले करवा कर मतपेटियों के सारे पाप धुलवा दिए थे !लोकतंत्र के यज्ञ में लोकतंत्र को ही होम कर देना का यह उनका पहला कदम था और तब से उन्होंने पीछे मुड़ कर नहीं देखा.बीते बीस-तीस बरस की न बखाने जाने वाले महिमा को छोड़ भी दिया जाए तो 2012 से लेकर अब तक ही याद करिए कि दमयंती रावत से लेकर अपने रिश्तेदार डा.यशवंत बर्त्वाल तक को मनमाने तरीके से अपने मंत्रालय के अंतर्गत उच्च पदों पर नियम विरुद्ध तैनात करने में किस सच्चाई और लोकतंत्र का तकाजा था ?
उपरोक्त दोनों ही महापुरुषों के युवा अवस्था का जिक्र यह समझने के लिए किया गया है कि कैसे उक्त दोनों पूतों के पांवों के साईज से पालने का साईज तब ही छोटा पड़ने लग गया था और आज इनकी व्यक्तिगत लिप्साओं के साईज के सामने राज्य भी छोटा पड़ रहा है तो इसके निशाँ इनकी युवा अवस्था में ही दिखने लगे थे.
विजय बहुगुणा का अतीत भी लोग जानते ही हैं कि बम्बई हाई कोर्ट से उन्हें क्यूँ रुखसत होना पड़ा.बाकी आपदा के दौरान उनकी कार्यकुशलता भी लोग देख चुके हैं.अपने फुफेरे भाई भुवन चन्द्र खंडूड़ी की तरह ही उन्होंने खरीद-फरोख्त की राजनीति को परवान चढ़ाया और स्वयं विधान सभा पहुँचने के भाजपा से विधायक बने किरण मंडल को खरीदने का रास्ता ही चुना.आज वे कहें कि विधायकों की खरीद-फरोख्त हो रही है तो उनके मुंह से यह सुनना अटपटा सा लगता है.उनके 600 करोड़ रुपये दे कर मुख्यमंत्री पद पाने का किस्सा तो खूब चर्चित हुआ ही.उनका बेटा भी उसी तरह संविधानेत्तर सत्ता केंद्र था,जिस तरह इस समय हरीश रावत का बेटा है. माफियाओं द्वारा उनेक दरबार में हाजिरी बजाने के किस्से भी कम नहीं थे.
इन तीनों के चरित्र पर यह प्रकाश सिर्फ इसलिए डाला गया है ताकि यह मुगालता न होने लगे कि यह किन्ही उसूलों-सिद्धांतों की लड़ाई है या कि यह तलाश न होने लगे कि दोनों पक्षों में से किस का चरित्र उजला है.ये दरअसल एक जैसी ही प्रवृत्ति और चरित्र वाले लोगों की लड़ाई है.इसमें कोई सिद्धांत नहीं है कोई राज्य हित नहीं है,दोनों ओर से सत्ता को नियंत्रित करने के लिए किसी भी हद तक जाने की लिप्सा है.यह भी साफ़ हो लें कि भाजपा के सत्ता के लिए लड़ते हुए कोश्यारी,निशंक,खंडूड़ी को भी लोगों ने देखा है तो वे भी उन्नीस-बीस के अंतर के साथ इनके भाजपाई संस्करण मात्र हैं.
सारी लड़ाई यूँ है कि नंगे,नंगों का स्टिंग कर रहे हैं,नंगे,नंगों के खिलाफ ताल ठोक कर खड़े हैं और एक दूसरे का नंगापन दिखा कर अपनी नंगई छुपाने की कोशिश कर रहे हैं.
उत्तराखंड के लिए यह स्थिति त्रासद है.लेकिन इनके दायरे से बाहर निकल कर संघर्षों के रास्ते ही समाधान निकलेगा.
No comments:
Post a Comment