जाति व्यवस्था ही हिंदुत्व की बुनियाद है और विभाजन की राजनीति व अर्थशास्त्र भी
पलाश विश्वास
कश्मीर के रास्ते खराब मौसम की वजह से बंद होने की वजह से अबकी दफा योजना मुताबिक वहां जाना नहीं हो सका। इसलिए हिमाचल में ज्यादा वक्त बिताने का मौका मिला। शिमला में ही तीन दिन ठहर गये। फिर शिमला से कालका होकर जीरकपुर में अपने भाई अमर उजाला के पत्रकार आलोक वर्मा के घर पहुंच गये।
पता चला कि मेरी वापसी का टिकट पठानकोट से बना है तो जालंधर से ट्रेन पकड़नी होगी। कोलकाता 29 तक पहुंच जायेंगे।
इस बीच टीवी देखा नहीं है और न अखबार पढ़े। पालमपुर में हिमांशुजी और मानसी के सौजन्य से लगभग सात दिन तक देश भर के सामाजिक कार्यकर्ताओं से प्रकृति व पर्यावरण, धर्म और धम्म, जाति उन्मूलन, अर्थव्यवस्था और तमाम ज्वलंत समस्याओं पर बातचीत जरूर इस यात्रा की उपलब्धि है।
वहां कश्मीर से हमारे मित्र पहुंच गये थे। जिनसे कश्मीर के हालात पर विस्तार से चर्चा होती रही।
हमने उनसे यही कहा कि समस्या तब तक है जबतक बाकी देश आपके साथ नहीं है। कश्मीर, मणिपुर और मध्यभारत के आदिवासी इलाके इस बारे में समान अस्पृश्य और निषिद्ध विषय हैं।
क्योंकि हम देश को भूगोल मानते हैं नागरिकों से बना देश नहीं। हमारे देश के इन अविभाज्य अंगों के बारे में हमारी संवेदना कोई नहीं हैं क्योंकि हम उन्हें राष्ट्र का अविभाज्य अंग तो मानते हैं लेकिन वहां बसने वाले नागरिकों के हक हकूक के बारे में किसी भी आवाज को हम राष्ट्रद्रोह करार देने में हिचकते नहीं है।
दूसरी ओर इन इलाकों के नागरिकों की ओर से बाकी देश के साथ न्यूनतम संवाद न होने से बाकी देश को मालूम ही नहीं है कि वहां हो क्या रहा है। मीडिया सिर्फ सत्ता का पक्ष रखता है और जनसुनवाई नहीं होती है किसी भी स्तर पर। न कानून का राज कहीं है।
भारतीय संविधान के मुताबिक नागरिकों के मौलिक अधिकार सर्वत्र निलंबित हैं। ऐसे हालात में इन सभी इलाकों के लोगों से निवेदन है कि वे भी खुद को अलगाव की स्थिति में कैद होने से बचें और बाकी देश से संवाद के हालात बनायें, क्योंकि बात तभी बनेगी जब कश्मीर, मणिपुर औऱ आदिवासी इलाकों की समस्याओं के बारे में उन इलाकों से ज्यादा मुखर आवाजें बाकी देश से उठें। यह संवाद की स्थिति बन पाने के बाद ही संभव है।
हमने पालमपुर में राष्ट्र के चरित्र पर सिलसिलेवार चर्चा की क्योंकि हिटलर के पतन के बाद जर्मनी ने राष्ट्र का चरित्र सबसे पहले बदला ताकि फिर बहुमत और जनादेश के बदले फासिज्म का पुनरूत्थान न हो। हम ऐसा आजादी के सात दशक के बाद भी कर नहीं सके हैं और सत्ता इस हद तक निरंकुश है कि अभिव्यक्ति की आजादी तक नहीं है और जनसुनवाई की कोई स्थिति कहीं भी नहीं है।
15 अगस्त 1947 में सत्ता के हस्तातंरण को हम आजादी मानते रहे हैं पिछले सत्तर साल से लेकिन राष्ट्र का चरित्र अभी हूबहू ब्रिटिश राज का राजतंत्र का है और इसी वजह से महारानी एलिजाबेथ के जमाने से जारी जिस राजद्रोह के कानून को लोकतांत्रिक ब्रिटेन ने रद्द कर दिया, उसे भारत के सत्ता वर्ग ने अभी बदला नहीं है।
दूसरी ओर, फ्रांसीसी क्रांति और अमेरिकी क्रांति में भी जनविरोधी हुकूमत के तख्ता पलटने के अधिकार को स्वतंत्रता का मूल मंत्र माना गया है।
आजाद भारत में चूंकि राष्ट्र का चरित्र बदला ही नहीं और हम अब भी राजतंत्र के मुताबिक सैन्य राष्ट्र के नागरिक हैं, इसलिए हम राष्ट्र की एकता और अखंडता को राष्ट्रवाद मानते तो जरूर हैं लेकिन राष्ट्र की बुनियादी इकाई नागरिक का कोई वजूद हमारी सोच में नहीं है और नागरिक और मानवाधिकार के बारे में हमारी कोई प्रतिबद्धता नहीं है।
हम नागरिकों की संप्रभुता और नागरिकों की स्वतंत्रता के बारे में सोचने को अभ्यस्त नहीं है।
हम लोकतंत्र और सत्ताविरोधी विमर्श की बात तो बहुत कर लेते हैं लेकिन राष्ट्र के चरित्र पर चर्चा करने से हिचकते हैं और हम यह कभी समझ ही नहीं पाते कि हमारा राष्ट्रवाद दरअसल सत्ता वर्ग का अंध राष्ट्रवाद है जो नागरिकों को गुलाम बनाता है और हम इसी गुलामी में मजे में अच्छे दिनों की उम्मीद में हैं।
अभूतपूर्व संकट है क्योंकि सत्ता वर्ग का निरंकुश सैन्यतंत्र दमन पर उतारू है और हर दूसरा नागरिक संदिग्ध है या देशद्रोही। ऐसे हालात में विशुद्ध राजनीति से बात बनती नहीं है।
हमें फिर सामाजिक आंदोलन को तेज करना होगा, जिसके बिना किसी भी तरह की राजनीति से सिर्फ सत्ता का चेहरा बदलेगा, लेकिन हालात नहीं बदलेंगे।
चुनावी समीकरण की राजनीति से कुछ भी बदलने वाला नहीं है।
देश जोड़ो, दुनिया जोड़ो, दीवारें तोड़ों- यही हमारा नारा है और इस कार्यक्रम का प्रस्थानबिंदू पितृसत्ता का प्रतिरोध है एक तरफ तो दूसरी तरफ बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर का जाति उन्मूलन का मिशन है क्योंकि जाति देश और दुनिया को जोड़ने का रास्ते में सबसे बड़ा अवरोध है और वही सत्ता वर्ग का सबसे अजेय किला है। जाति व्यवस्था ही हिंदुत्व की बुनियाद है और विभाजन की राजनीति और अर्थशास्त्र दोनों है।
हिमाचल बारुद के ढेर पर है
हिमाचल भी उत्तराखंड की तरह ऊर्जा प्रदेश बना दिया गया है, जहां हमने दो दो मरी हुई प्राचीन नदियों सतलज और रावी की लाशों को देखा है। आम तौर पर संपन्न और सुखी हिमाचल बारुद के ढेर पर है, जिसका आभास देस को नहीं है और उत्तराखंड के बारे में सबको बस इतनी सी चिंता है कि कांग्रेस की सरकार गिरने के बाद वहीं भाजपा की सरकार बनेगी या नहीं।
वाकई ये अंध राष्ट्रवाद इस देश को ले डूबेगा
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