Saturday, March 26, 2016

मुज़फ्फरनगर दंगा जांच रपट: झूठ का पुलिंदा

25.03.2016
मुज़फ्फरनगर दंगा जांच रपट: झूठ का पुलिंदा


-नेहा दाभाड़े


सितंबर 2013 में मुज़फ्फरनगर में हुए दंगों की जांच के लिए न्यायमूर्ति विष्णु सहाय की अध्यक्षता में एक-सदस्यीय जांच आयोग गठित किया गया था। उत्तरप्रदेश सरकार ने सहाय आयोग की रपट, मार्च 2016 में विधानसभा के पटल पर रख दी। रपट में स्थानीय पुलिस की गुप्तचर शाखा को हिंसा रोकने में असफल रहने के लिए दोषी ठहराया गया है। रपट में प्रशासनिक अधिकारियों को भी कटघरे में खड़ा किया गया है परंतु यह आश्चर्यजनक है कि रपट किसी भी राजनैतिक दल की दंगों में भूमिका की चर्चा तक नहीं करती। सत्ताधारी समाजवादी पार्टी को आयोग ने क्लीनचिट दे दी है और दंगों को रोक पाने में असफलता के लिए उसकी सरकार को दोषी नहीं ठहराया है। रपट में भाजपा के बारे में एक शब्द भी नहीं कहा गया है। ज्ञातव्य है कि दंगों के कारण हुए साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण से भाजपा, सोलहवीं लोकसभा के चुनाव में लाभांवित होने की आशा कर रही थी और भाजपा नेता, साम्प्रदायिक तनाव भड़का रहे थे। रपट की अलग-अलग कारणों से निंदा की जा रही है। जहां राजनैतिक दल एक दूसरे पर उंगलियां उठा रहे हैं (भाजपा, समाजवादी पार्टी को हिंसा के लिए दोषी बता रही है और समाजवादी पार्टी, भाजपा को), वहीं हिंसा के शिकार हुए लोग चकित हैं कि किसी भी राजनैतिक दल को दंगों के लिए दोषी नहीं पाया गया।
यद्यपि पूरी रिपोर्ट उपलब्ध नहीं है तथापि अखबारों में जो ख़बरें छपी हैं उनके अनुसार, आयोग ने जिला मजिस्ट्रेट और वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक के स्थानांतरण सहित, प्रशासनिक असफलता को दंगों के लिए दोषी बताया है।
मुज़फ्फरनगर में साम्प्रदायिक हिंसा के पहले के घटनाक्रम को सरसरी निगाह से देखने पर ही यह स्पष्ट हो जाता है कि आयोग ने राजनैतिक दलों की भूमिका को नज़रअंदाज़ किया है। घटनाक्रम की शुरुआत 27 अगस्त, 2013 को कवल गांव में दो जाट भाईयों - सचिन और गौरव - द्वारा शाहनवाज़ नाम के एक युवक की हत्या से हुई। बताया जाता है कि शाहनवाज़, उनकी बहन से प्रेम करता था। यह भी कहा जाता है कि सचिन और गौरव व शाहनवाज़ के बीच मोटरसाइकिल दुर्घटना के बाद झगड़ा हुआ, जिसके दौरान शाहनवाज पर दोनों भाईयों ने प्राणघातक वार किए। इसके बाद, मुसलमानों की एक भीड़, जो शाहनवाज की हत्या की प्रत्यक्षदर्शी थी, ने दोनों भाईयों को घेरकर मार डाला। इससे गुस्साए जाटों ने स्थानीय मुसलमानों पर हमला कर दिया। स्थानीय मस्जिद पर भी हमला किया गया। ‘जाओ पाकिस्तान या कब्रिस्तान‘, ‘हिंदू एकता ज़िंदाबाद‘ और ‘एक के बदले एक सौ‘ जैसे भड़काऊ नारे लगाए गए। ये नारे, मुख्यतः, हिंदू राष्ट्रवादियों द्वारा लगाए जाते हैं। मुसलमानों की दुकानों और उनके घरों में तोड़फोड़ की गई और उन्हें लूट लिया गया। कई लोग घायल हुए। इससे यह स्पष्ट था कि हिंदू राष्ट्रवादी, सचिन और गौरव की लाशों पर राजनीति कर रह थे और विवाद अब दो परिवारों के बीच सीमित नहीं रह गया था। इस हमले में जिस बड़ी संख्या में लोगों ने भाग लिया, उससे उत्तरप्रदेश सरकार को सतर्क हो जाना चाहिए था और स्थानीय प्रशासन व पुलिस को यह निर्देश दिए जाने चाहिए थे कि हिंसा पर कड़ाई से नियंत्रण किया जाए।
ऐसा आरोपित है कि 29 अगस्त को भाजपा विधायक संगीत सोम ने सोशल मीडिया पर एक वीडियो क्लिप अपलोड की, जिसमें दो युवकों को एक भीड़ द्वारा क्रूरतापूर्वक मौत के घाट उतारते दिखाया गया था। यह वीडियो, दरअसल, दो साल पुराना था और पाकिस्तान के तालिबान-नियंत्रित इलाके में हुई एक घटना का था। परंतु जिन लोगों ने यह वीडियो अपलोड किया, उनका दावा था कि यह सचिन और गौरव की भीड़ द्वारा हत्या का वीडियो है। यद्यपि आयोग ने यह स्वीकार किया कि इस नकली वीडियो के कारण हिंसा फैली परंतु उसका कहना है कि संगीत सोम के विरूद्ध अब आगे और कोई कार्यवाही की जाने की आवश्यकता नही है। इसका कारण यह बताया गया कि सोम के खिलाफ पहले से ही एफआईआर दर्ज की जा चुकी है और पुलिस उसकी जांच कर रही है। आयोग ने कहा कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 20(2) के अंतर्गत, ‘‘किसी व्यक्ति को एक अपराध के लिए एक से अधिक बार अभियोजित या दंडित नहीं किया जाएगा’’। यह बात सही है परंतु क्या इससे यह सिद्ध नहीं होता कि संगीत सोम और उनकी पार्टी भाजपा की इन दंगों को भड़काने में भूमिका थी? संगीत सोम को ज़मानत पर रिहा कर दिया गया है और वे इस समय उत्तरप्रदेश में भाजपा के सबसे मुखर राजनीतिज्ञों में से एक हैं। दादरी में मोहम्मद अख़लाक की भीड़ द्वारा पीट-पीटकर हत्या के बाद, दादरी में संगीत सोम ने अत्यंत भड़काऊ भाषण दिए। जिस समय प्रशासन स्थिति को सामान्य बनाने की कोशिश कर रहा था, उस समय दादरी में साम्प्रदायिक विद्वेष भड़काने के आरोप में सोम पर दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 144 के अंतर्गत प्रकरण दर्ज किया गया। यह तथ्य कि जिन भाजपा विधायकों पर दंगों में भागीदारी के आरोप में प्रकरण दर्ज किए गए, उन्हें पार्टी द्वारा सम्मानित किया गया, क्या इस बात का पर्याप्त प्रमाण नहीं है कि उन्होंने जो कुछ भी किया, वह पार्टी की ओर से किया या कम से कम पार्टी उनके कृत्यों को पार्टी गलत नहीं मानती।
मुस्लिम नेताओं के भाषणों पर टिप्पणी करते हुए आयोग ने कहा कि ‘‘वे हिंदुओं के खिलाफ भड़काऊ भाषण दे रहे थे, जिससे साम्प्रदायिक सद्भाव प्रभावित हो रहा था और मुसलमान, हिंदुओं पर हमला करने के लिए उद्यत हो रहे थे। प्रथम दृष्टया ऐसा लगता है कि इन लोगों के भाषण, बाद में हुए साम्प्रदायिक दंगों के कारणों में से एक थे।’’
मीडिया ने जाट महापंचायत में दिए गए घोर उत्तेजक भाषणों पर विस्तृत रपटें प्रकाशित कीं थीं। मुस्लिम नेताओं के घृणा फैलाने वाले भाषणों की आयोग ने बिलकुल ठीक निंदा की है परंतु उसने महापंचायत में दिए गए भाषणों के वीडियो हासिल करने की कोई कोशिश नहीं की। कारण यह बताया गया कि प्रशासन ने महापंचायत में दिए गए भाषणों की वीडियो रिकार्डिंग नहीं करवाई। इस तरह, आयोग ने महापंचायत के आयोजन और लोगों को भड़काने में हिंदू राष्ट्रवादियों की भूमिका को नज़रअंदाज़ किया।
कुछ मुस्लिम नेताओं ने 30 अगस्त को मुज़फ्फरनगर में एक सभा का आयोजन किया। कुछ लोगों का कहना है कि वहां भड़काऊ भाषण दिए गए तो कुछ का यह भी कहना है कि मुस्लिम नेताओं ने लोगों से शांति बनाए रखने की अपील की। यह स्पष्ट है कि ज़िले में तनाव और अविश्वास का माहौल था और प्रशासन को इसे ध्यान में रखते हुए कार्यवाही करनी थी। परंतु प्रशासन ने 7 सितंबर को नंगला मंदोर में जाट महापंचायत का आयोजन होने दिया। इस महापंचायत का आयोजन भारतीय किसान यूनियन ने किया था और इसका घोषित उद्देश्य, जाट लड़कियों को ‘बचाना‘ था। इस महापंचायत में भाजपा नेताओं उमेश मलिक व साध्वी प्राची, भाजपा विधायक कुंवर भरतेंदर व सुरेश राजा और पूर्व भाजपा विधायक योगराज सिंह और अशोक कंसल ने दोनों भाईयों की हत्या को हिंदू समुदाय पर हमला बताया। जाटों को भड़काने के लिए कई वक्ताओं ने यह कहा कि मुसलमान, जाट महिलाओं की इज्ज़त के लिए बड़ा खतरा हैं। ऐसा बताया जाता है कि महापंचायत में लगभग 40,000 व्यक्ति उपस्थित थे। कुछ लोगों के अनुसार, यह संख्या एक लाख से भी ज़्यादा थी। महापंचायत में भाग लेने के लिए जिले के विभिन्न हिस्सों से जाट, ट्रैक्टर-ट्रालियों में पहुंचे। वे तलवारों, लाठियों, बल्लमों, देसी कट्टों और अन्य हथियारों से लैस थे। यह कोई अचानक जुटी भीड़ नहीं थी बल्कि इसे जुटाया गया था। यहां पर ‘‘मुसलमानों के दो स्थान, कब्रिस्तान या पाकिस्तान’’ जैसे नारे लगाए गए, अत्यंत भड़काऊ भाषण दिए गए और कुत्तों को बुर्का पहनाकर उन्हें चप्पलों से पीटा गया। मंच पर भारतीय किसान यूनियन के नेता नरेश टिकेत व राकेश टिकेत, सभी खाप पंचायतों के मुखिया, भाजपा विधायक सुरेश राजा, संगीत सोम व कुंवर भरतेंदर सिंह, पूर्व लोकदल सांसद हरिन्दर सिंह मलिक, पूर्व भाजपा सांसद सोहनवीर सिंह, ज़िला सहकारी बैंक की अध्यक्ष वंदना वर्मा व संघ परिवार की नेता साध्वी प्राची मौजूद थीं। इन सभी लोगों ने अपने भाषणों में जाटों को मुसलमानों से बदला लेने के लिए उकसाया। महापंचायत में भाग लेने के बाद लौट रहे जाटों पर कुछ मुसलमानों ने हमला किया ऐसा आरोपित है। इसके बाद दंगें भड़क उठे, जिनमें 60 लोगों ने अपनी जाने गंवाईं और लगभग एक लाख को अपने घरबार छोड़कर भागना पड़ा। इन दंगों ने पूरे इलाके का जनसांख्यिकीय और सांस्कृतिक परिदृश्य ही बदल दिया। इसके पहले तक, इस इलाके में मुसलमान और जाट शांतिपूर्वक, मिलजुलकर रहते आए थे। अब मुसलमान या तो राहत शिविरों में रह रहे हैं या अपने मोहल्लों में सिमट गए हैं, जहां उन्हें मूलभूत सुविधाएं भी हासिल नहीं हैं। अधिकांश लोग अपने घर वापिस जाने को तैयार नहीं हैं क्योंकि उन्हें यह भय है कि हमलावर, जो कि खुले घूम रहे हैं, उन पर फिर से हमला कर सकते हैं।
महापंचायत में दिए गए भाषणों का संज्ञान न लेना, आयोग की कार्यपद्धति पर प्रश्नचिन्ह लगाता है। आयोग स्थानीय गुप्तचर इकाई के इंस्पेक्टर प्रबल प्रताप सिंह को दोषी ठहराता है। आयोग का कहना है कि इंस्पेक्टर ने महापंचायत में भाग लेने वाले लोगों की संख्या के संबंध में ठीक आंकड़े प्रस्तुत नहीं किए। गुप्तचर रपट में यह कहा गया था कि कार्यक्रम में पंद्रह से बीस हजार लोग आएंगे जबकि वहां चालीस से पचास हजार लोग पहुंचे। महापंचायत में कितने लोगों ने भागीदारी की और पुलिस की गुप्तचर शाखा ने उनकी संख्या का सही अंदाज़ नहीं लगाया, इससे अधिक महत्वपूर्ण यह है कि प्रशासन ने महापंचायत का आयोजन होने ही क्यों दिया। प्रशासन को यह अच्छी तरह ज्ञात था कि जाट गुस्साए हुए हैं और ऐसे में उनकी भारी, हथियारबंद भीड़ को इकट्ठा होने देना, एक भारी भूल थी। और इसके लिए समाजवादी पार्टी अपनी ज़िम्मेदारी से नहीं बच सकती।
पश्चिमी उत्तरप्रदेश में भाजपा ने ‘‘लव जिहाद’’ के मुद्दे का इस्तेमाल, समाज को साम्प्रदायिक दृष्टि से ध्रुवीकृत करने के लिए जमकर किया था। इससे उसे चुनाव में लाभ भी मिला और इससे भारत में दंगों की प्रकृति में मूलभूत परिवर्तन आया। दंगे, जो पहले मुख्यतः शहरी क्षेत्रों तक सीमित रहा करते थे, अब गांवों तक फैल गए हैं। दंगों की जांच के लिए नियुक्त आयोग ने जाटों को इकट्ठा करने के भाजपा और उसके साथी संगठनों के नेताओं के प्रयास और उसके परिणामों पर कोई टिप्पणी नहीं की। शाहनवाज़ का एक जाट युवती से प्रेम और उसके कारण उसके भाईयों की जान गंवाने की घटना ने ‘‘बेटी बहू बचाओ’’ आंदोलन को गति प्रदान की और पश्चिमी उत्तरप्रदेश और राज्य के अन्य हिस्सों में साम्प्रदायिक हिंसा भड़काने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इस अभियान की शुरुआत विश्व हिंदू परिषद ने की थी, जिसका यह दावा है कि मुस्लिम युवक, हिंदू महिलाओं को अपने प्रेमजाल में फंसाकर उनसे विवाह कर लेते हैं और बाद में इन युवतियों को मुसलमान बनाकर मुस्लिम आबादी में वृद्धि की जाती है। यह अभियान किसी व्यक्ति के अपनी पसंद से विवाह करने के अधिकार पर हमला है। इस तरह के असंवैधानिक और संकीर्ण अभियानों का विरोध और निंदा की जानी चाहिए। आयोग ने ऐसा नहीं किया।
इस अभियान का प्रमुख लक्ष्य, मुस्लिम समुदाय का दानवीकरण करना और उन्हें जाट समुदाय के ‘‘सम्मान’’ के शत्रु के रूप में प्रस्तुत करना है। इसके कारण दोनों समुदायों के बीच मधुर और मित्रवत संबंध समाप्त हो गए हैं और युवा पीढ़ी के लोगों में मेलजोल एकदम खत्म हो गया है। भाजपा ने इस हिंदू पहचान का निर्माण कर, वाल्मीकियों समेत, सभी हिंदू जातियों को मुसलमानों के खिलाफ लामबंद कर लिया है। उत्तरप्रदेश में दलितों की बड़ी आबादी है और वे चुनाव में बसपा का समर्थन करते आए हैं। इस विराट हिंदू पहचान का निर्माण कर, भाजपा, वाल्मीकियों को अपने साथ मिलाने और बसपा के वोट बैंक में सेंध लगाने का प्रयास कर रही है। मूल रूप से ऊँची जातियों के वर्चस्व वाला संघ परिवार, देश के अन्य भागों की तरह, उत्तरप्रदेश में भी दलितों को मुसलमानों के खिलाफ खड़ा करने की कोशिश कर रहा है। इस तरह के ध्रुवीकरण से भाजपा को मई 2014 के आमचुनाव में उत्तरप्रदेश में बहुत लाभ हुआ। इस रपट के जारी होने से उसे उत्तरप्रदेश में 2017 में होने वाले विधानसभा चुनाव में भी लाभ होगा। यादवों के वर्चस्व वाली समाजवादी पार्टी को भी इस हिंसा से फायदा होने की उम्मीद है क्योंकि उसे ऐसा लगता है कि इससे पश्चिमी उत्तरप्रदेश के मुसलमान, जो कि आबादी का लगभग 40 प्रतिशत हैं, उससे जुड़ जाएंगे। शायद यही कारण है कि सरकार ने शांति समितियां या मोहल्ला समितियां बनाकर साम्प्रदायिक सौहार्द को पुनर्स्थापित करने और अफवाहों को फैलने से रोकने के लिए कोई प्रयास नहीं किए।
इन तथ्यों के दृष्टिगत, यह आवश्यक है कि सरकार, दंगों की विश्वसनीय जांच करवाए जिससे सच सामने आ सके। समाज के बढ़ते साम्प्रदायिकीकरण के कारणों की पड़ताल भी की जानी चाहिए और सरकारी मशीनरी को धार्मिक पूर्वाग्रहों से मुक्त करने के प्रयास होने चाहिए। यह तब ही संभव है जब जांच में दंगों के लिए ज़िम्मेदार राजनैतिक दलों, जनप्रतिनिधियों और सरकारी अधिकारियों की पहचान की जाए। शासक समाजवादी पार्टी, इस संबंध में अपनी ज़िम्मेदारी से नहीं भाग सकती। प्रशासनिक मशीनरी, चुने हुए जनप्रतिनिधियों के अधीन काम करती है। राजनैतिक पार्टियां और निर्वाचित जनप्रतिनिधि, देश के लोगों के प्रति ज़िम्मेदार हैं और जांच आयोगों को चाहिए कि वे यह सुनिश्चित करें कि जनप्रतिनिधि और राजनैतिक दल, अपनी ज़िम्मेदारियों का सजगता और निष्ठा से पालन करें। (मूल अंग्रेजी से अमरीश हरदेनिया द्वारा अनुदित) (लेखिका सेंटर फॉर स्टडी ऑफ सोसायटी एंड सेक्युलरिज्म, मुंबई की उपनिदेशक हैं)
संपादक महोदय,
कृपया इस सम-सामयिक लेख को अपने प्रतिष्ठित प्रकाशन में स्थान देने की कृपा करें।
-एल. एस. हरदेनिया


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