Pramod Ranjan writes
जेएनयू में इस महिला दिवस पर अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् (एबीवीपी) के छात्र-छात्राओं ने मनुस्मृति के उन पन्नों को जला दिया, जिसमें महिलाओं और शूद्रों-अतिशूदों को अपमानित किया गया है।
पिछले दिनों जेएनयू को लेकर जो घटनाएं घटी और देश की बहुसंख्यक आबादी के प्रतिनिधियों को जिस पर आतंकित कोशिश की गयी, उसका प्रस्तावक आरएसएस था। एबीवीपी इसी आरएसएस का छात्र संगठन है। हलांकि आरएसएस और भाजपा इतने घुले-मिले हैं कि उन्हें अलग नहीं किया जा सकता। सामाजिक स्तर पर आरएसएस की ताकत विश्व हिंदू परिषद, राष्ट्रीय सेविका समिति, एबीवीपी और बजरंग दल रहे हैं। वह अपने दाेनों घटकों के माध्यम से दलित, आदिवासियों और अन्य पिछडा वर्ग (ओबीसी) को नजदीक लाने की कोशिश करता रहा है। इनमें से बजरंग दल तो मुख्य रूप से दलित और ओबीसी के लिए ही आरक्षित है। जैसा कि बजरंग दल के नाम से ही विदित है कि वे इसमें शामिल लोगों को अपना 'हनुमान' मानते हैं, जो उनकी आज्ञा का पालन करे और उनकी हर बात पर पूंछ डुलाए और ब्राह्मणवाद के हितों पर आंच आए तो दूसरों की सोने की लंका ही नहीं, अपना भी घर फूंकने पर आमादा हो जाएगा।
एबीवीपी ने पिछले दिनों बहुजन तबकों को जोडने के व्यापक स्तर पर अभियान चलाया था तथा विभिन्न विश्विविद्यालयों के छात्र संगठन चुनावों में बडी संख्या में ओबीसी तथा दलित उम्मीदवार उतारे था। इसका उन्हें बडा फायदा मिला। जेएनयू समेत अनेक जगहों पर, जहां संगठन को जीतने की कोई उम्मीद नहीं थी, वहां ये उम्मीदवार अपनी सामाजिक पृष्ठभूमि के कारण विजयी रहे। दरअसल यह सब ओबीसी नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री उम्मीदवार बनाये जाने की ही कडी में था।
लेकिन आरएसएस यह भूल गया कि इन तबकों के प्रतिभाशाली लेागों के संगठन में आने के बाद उसे या तो अपनी ब्राह्मणवादी वैचारिकी में आमूलचूल परिवर्तन करना होगा, या फिर एक अंदरूनी विखंडन के लिए तैयार रहना होगा। एक ऐसे समय में जब इन तबकों के बूते आरएसएस वामपंथ के गढ को ध्वस्त करने का अपना अब तक का सबसे महत्वाकांक्षी अभियान चला रहा था, एबीवीपी के छात्रों ने उसमें पलीता लगा दिया है।
आने वाले समय में यह वकाया भारतीय जनता पार्टी में भी दुहराया जाएगा। ओबीसी, दलित और आदिवासी सांसदों में भारी खलबली है। विभिन्न सामाजिक मंचों को वे अपनी बात रखने भी लगे हैं। इस बार ही जब स्मृति इरानी ने संसद में महिषासुर दिवस के खिलाफ मोर्चा खोला तो उन्हें अपनी पार्टी के ओबीसी और आदिवासी सांसदों का विरोध झेलना पडा तथा बाद में पार्टी 'हाईकमान' ने इस मामले को लेकर स्मृति से नाराजगी जाहिर की। (देखें कमेंट में एशियान एज की विस्तृत खबर)
बहरहाल, आरएसएस को यह समझना चाहिए कि उसे बहुजन तबकों के बीच बडी संख्या में ऐसे लोग नहीं मिलेंगे, जो उनके लिए पूंछ डुलाने को तैयार हों। वह या तो अपनी मनुवादी वैचारिकी को त्यागने को तैयार हो या फिर नष्ट होना ही उसकी नियति है। भारत की धरती पर उसकी जडों के लिए बहुत पानी नहीं है।
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