राष्ट्र्वाद का वजूद साम्राज्यवाद के विरुद्ध संघर्ष के रूप में सामने आया था, लेकिन कुछ देश राष्ट्रवाद की राह पर चलकर सर्वसत्तावादी राष्ट्र-राज्य में तब्दील हो गए. चूंकि राष्ट्रवाद देशप्रेम जैसी स्वाभाविक भावना का राजनीतिक रूप है, इसलिए इसका कोई सर्वमान्य मूल्य स्थापित नहीं है. इसकी सकारात्मकता में दमनकारी होने की संभावनाएं भी मौजूद हैं.
भारत के राष्ट्रीय आंदोलन में राष्ट्रवाद की भूमिका बेहद अहम रही है, लेकिन तभी से इसकी कई धाराएं भी मौजूद रही हैं. आज जब एक खास तरह का राष्ट्रवाद अराजक तत्वों के रूप में कोर्ट परिसरों से लेकर विश्वविद्यालयों तक में उपद्रवकारी साबित हो रहा है तब 8 जनवरी 1934 को ‘हंस’ में प्रकाशित प्रेमचंद का यह लेख बेहद प्रासंगिक हो गया
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