Monday, March 14, 2016

आर्ट आफ लिविंग के संस्थापक श्री श्री रविशंकर-जैसे वे मुझे लगे

गुरु जी का सम्मोहन ही आर्ट आफ लिविंग है…
व्यक्ति का आचरण धर्म या संस्था को गरिमा प्रदान करता हैं। कोई भी संस्था या धर्म किसी भी व्यक्ति को गरिमा प्रदान नहीं करता…
मार्केटिंगकार्पोरेट ब्रेन का अनिवार्य तत्व है। गुरु जी मार्केटिंग में किसी से कम नहीं…
सर्वधर्म सम भाव वाला रविशंकर, “वह जो कभी बड़ा नहीं हुआ, बच्चा ही रह गया।“
तारा चंद्र त्रिपाठी
साँवला रंग। कद सभवतः 5 फीट 2 इंच से अधिक नहीं। घुंघराली लटें। उन्हें जटाजूट तो कहा ही नहीं जा सकता। जटाओं का सा उलझापन न केशों में है और न व्यवहार में । इंगुदी से बँटे जूट सी रुक्षता और जटिलता का दूर-दूर तक कोई संबंध नहीं। जटिल तो वे हैं ही नहीं। न देखने में और न विचारों में ही। घने काले बाल और आवक्ष दाढ़ी। इस परिधान को वे अपनी वर्दी कहते हैं। ठीक उसी तरह जैसे कई सरकारी महकमों की एक वर्दी होती है। लटके-झटके और भंगिमा कुछ-कुछ ईसा मसीह से मिलती-जुलती। मुँह पर मुस्कान। मीठी वाणी। अंग्रेजी और हिन्दी पर समान अधिकार। तमिल और कन्नड़ तो उनकी मातृभाषाएँ हैं। भक्तों के बीच प्रफुल्ल, गुरुत्व की गुरुता से मुक्त, जैसे उनका बाल सखा हो। सहज और स्वच्छन्द। सनातन हिन्दू संस्कारी परिवार में जन्मा, पला, सर्वधर्म सम भाव वाला रविशंकर, “वह जो कभी बड़ा नहीं हुआ, बच्चा ही रह गया।“ अड़ियल इतना कि आप उसे अपना मानें या न मानें वह आपको अपना मानने से पीछे हटने वाला नहीं। यही वह अदा है जिस पर अमेरिकी ही नहीं भारत के प्रतिभाशाली युवा भी मर मिटे हैं।
यह सब क्या हो रहा है, मेरी समझ में नहीं आता। मन कहता है लीला है। अपने देश में भी बाबाओं के पीछे पगलाये हुए लोगों की कमी नहीं है। यहाँ ‘आर्ट आफ लिविंग‘ के पीछे इतने सम्मोहन का कारण क्या है? मेरे यह पूछने पर, पिछले चार वर्ष से न्यू जर्सी में रह रहे इंजीनियर अजित कुमार के शब्दों में
यहाँ पर किसी से हँस कर बात करने का मौका थोड़ा कम ही लगता है। दारू-पार्टीबारपब की रसिक संस्कृति और मुर्गा फ्राइ से मुक्ति का एक मात्र मार्ग है आर्ट आफ लिविंग‘,इसलिए नौजवान गुरु जी के पीछे पगलाये हुए हैं। कम से कम इससे जुड़े समुदायों में कोई ढंग से बात तो करता है।
ताराचंद्र त्रिपाठी, लेखक उत्तराखंड के प्रख्यात अध्यापक हैं जो हिंदी पढ़ाते रहे औऐर शोध इतिहास का कराते रहे। वे सेवानिवृत्ति के बाद भी 40-45 साल पुराने छात्रों के कान अब भी उमेठते रहते हैं। वे देश बनाने के लिए शिक्षा का मिशन चलाते रहे हैं। राजकीय इंटर कॉलेज नैनीताल के शिक्षक बतौर उत्तराखंड के सभी क्षेत्रों में सक्रिय लोग उनके छात्र रहे हैं। अब वे हल्द्वानी में बस गए हैं और वहीं से अपने छात्रों को शिक्षित करते रहते हैं।
ताराचंद्र त्रिपाठी, लेखक उत्तराखंड के प्रख्यात अध्यापक हैं जो हिंदी पढ़ाते रहे औऐर शोध इतिहास का कराते रहे। वे सेवानिवृत्ति के बाद भी 40-45 साल पुराने छात्रों के कान अब भी उमेठते रहते हैं। वे देश बनाने के लिए शिक्षा का मिशन चलाते रहे हैं। राजकीय इंटर कॉलेज नैनीताल के शिक्षक बतौर उत्तराखंड के सभी क्षेत्रों में सक्रिय लोग उनके छात्र रहे हैं। अब वे हल्द्वानी में बस गए हैं और वहीं से अपने छात्रों को शिक्षित करते रहते हैं।
अन्य युवकों की तरह ही अजित कुमार जी भी गुरु जी के दीवाने हैं। यहाँ के ‘आर्ट आफ लिविंग‘ समुदाय में गुरुजी के सबसे चहेते शिष्य माने जाते हैं। इस दीवानेपन से हम दोनों, माता-पिता, चिन्तित हैं। गुरु जी का अजित को विशेष महत्व देना हमें और भी आशंकित कर देता हैं। सुनते हैं बहुत से मेधावी युवा सारा काम-धाम छोड़ कर पूरी तरह ‘आर्ट आफ लिविंग‘ में निमग्न हो गये हैं। निर्मला जी की आखों में आँसू और मैं उदास।
गुरु जी हमारी मनोदशा को समझ जाते हैं। आश्वासन देते हैं, ऐसा कुछ नहीं होगा। वह रोजगार भी करेगा और ‘आर्ट ऑफ लिविंग‘ का काम भी।
अजित कुमार जी वैसे भी भजन गाने के अलावा ‘आर्ट आफ लिविंग‘ के किसी और काम के हैं नहीं। पर्वतीय जनों का, गुजराती या दक्षिण भारतीयों की तरह का कोई प्रभावशाली समुदाय भी यहाँ नहीं है, जो उनका और उपयोग हो सके। फिर डेढ़़ हजार साल पहले युवानच्वांग भी देख गया है कि ये पर्वतीयजन धरम-वरम के चक्कर में ज्यादा रहते नहीं हैं, फिर इक्कीसवीं शताब्दी में क्या रहेंगे। बस भजनों के बीच-बीच में कभी खुसरो, कभी किशोर कुमार को जोड़ कर भजनों की काकटेल बना कर भक्त मंडली के हीरो अवश्य हो गये हैं। बचपन में घर के परिवेश के कारण रूसी बाल साहित्य और मानव सभ्यता के विकास की कहानी की घुट्टी को इतना पी बैठे हैं कि अध्यात्म की ‘डोज‘ उन पर अन्य लोगों की तरह जल्दी असर करेगी, ऐसा नहीं लगता।
वैसे भी गुरु जी के युवा भक्तों को छोड़कर अन्य भक्तों को मैं संसार के मामले में चाक चैबन्द ही देखता हूँ। आत्मज्ञानी बनने के प्रयास का दिखावा। नारद मोह अपनी जगह पर। कबीर को भी अधिकतर ऐसे ही लोग मिले होंगे।
बाहर घोल्या होंगलू भीतर भरी मँगारि।
(बाहर तो गेरुए वस्त्र धारण कर रखे हैं पर मन में माँग (वासना)भरी हुई है।)
व्यक्ति का आचरण धर्म या संस्था को गरिमा प्रदान करता हैं। कोई भी संस्था या धर्म किसी भी व्यक्ति को गरिमा प्रदान नहीं करता। चेले भले ही ‘आर्ट आफ लिविंग‘ से संबद्ध होने से आत्मज्ञानी होने का दंभ पालें, गुरुजी इस बात को अच्छी तरह समझते हैं। वे तत्वज्ञान की नहीं, सेवा की बात करते हैं। वे मुक्ति की तलाश में नहीं हैं, आम आदमी के लिए फाइव एच0 (Health,Home,Hygiene, Harmony in diversity and Human values) की तलाश में हैं।
वैसे भी गुरु जी का सम्मोहन ही आर्ट आफ लिविंग है। इतिहास गवाह है कि हर संस्था, मानव कल्याण का हर समारंभ, जो विभिन्न धर्मों के नाम से हमारे सामने हैं, द्रष्टा के प्रभामंडल और सम्मोहन तक ही अपने मूल रूप में रहता है। द्रष्टा के रंगमच से ओझल होते ही उनमें संसार और भी भयावह रूप में प्रकट हो जाता है। मुझे भक्त मंडली को देख कर ‘आर्ट आफ लिविंग‘ की भी यही नियति दिखायी देती है।
गुरु जी के पीछे दीवानापन! क्या भारतीय और क्या अमेरीकी, सभी में यह दीवानापन है। भारतीयता का जुनून! उपासक नाम बदल रहे हैं। कनाडा की प्रसिद्ध पॉप गायिका स्टीफेन थॉम्प्सन अब दिव्यप्रभा हैं। एक फ्रैंच युगल, पता नहीं उनके मूल नाम क्या थे, अब लक्ष्मी ला फौन्तेन और गणेश ला फोन्तेन बन गये हैं। दिव्यप्रभा तो अब केवल भजन गाती हैं। कैलिफोर्निया के करोड़पति व्यवसायी जान आसबार्न का भजन गायन किसी को भी तन्मय कर सकता है।
गुरु जी के कार्यक्रमों में उपासिकाओं की वेशभूषा बदल जाती है। गौरांग महिलाएँ बड़े सहेज कर रखी हुई साउथ सिल्क की साड़ियाँ, माथे पर बिन्दी और पावों में बिछुए पहनकर उपस्थित होती हैं।
न्यूयार्क में एम.एस. कर रही अमरीकी बाला कैथरीन, कालिदास की शकुन्तला सी शुद्धान्तदुर्लभ देह यष्टि से ही नहीं भारतीय शाकाहारी व्यंजन बनाने और शालीनता में भारतीय लोक कल्पना की आदर्श गृहिणी सी लगती हैं। भजनों में तन्मय उनका नृत्य मीरा की कल्पना को साकार कर देता है।
मैक्सिकन युवती लौरेना, विचारों में कट्टर साम्यवादी हैं, पर गुरु जी के कार्यक्रमों के संयोजन में अपर्णा जी के साथ पहली पंक्ति में रहती हैं।
एक सज्जन हैं स्टीव ब्रौस। अवस्था होगी 32-33 साल। पेशे से आर्किटैक्ट हैं। पेनसिलवेनियाँ के बैथेलम शहर में रहते हैं। तन्मय होकर गाते हैं। तबला बहुत अच्छा बजाते हैं। सत्संग के नाम पर रात-आधी रात भी सौ दो सौ मील का सफर कर बिला नागा पहुँच जाते हैं।
बेला रूस से अमेरिका पहुँची स्वेतलाना, भले ही परम ब्रह्म को फरम ब्रह्म और गोपाल को गोफाल उच्चरित करें भजन बहुत अच्छा गाती हैं। फ्रैड किंग्सबरी जो पेशे से हड्डियों के डाक्टर हैं, हर सत्संग में अपना एक ओर का हुड़का लेकर पहुँच जाते हैं।
गुरु जी, जैसा कि लोग उन्हें पुकारते हैं, का आगमन कृष्ण की मुरली के निनाद का सा समा उपस्थित कर देता है।
चूल्हे चढ़े छाँड़े उफनात दूध भाँड़े उन,
सुत छाँड़ें अंक पति छाँडे़ं पर्यंक में।
गुरु जी के एक भक्त के विवाह में गया। अमरीका में बसे एक यहूदी नागरिक हैं नोवा। अच्छे संगीतकार हैं। परिवेश भले ही अमरीकी हो, पर गुरु जी के प्रति समर्पित और मन से भारतीय हैं। यह उनका दूसरा विवाह था। शायद पहली से तलाक हो गया होगा। दुल्हन थीं मौलिन। तलाकशुदा अमरीकी महिला। पहले विवाह से उनकी बारह वर्ष की एक बेटी भी थी। विवाह भारतीय परंपरा से हुआ।
एक अन्य उपासक की पुत्री के विवाह में भी सम्मिलित हुआ। भारतीय मूल के अमेरिकी नागरिक। डा0 माधवकृष्ण शर्मा। देह अमेरिका में पर मन सदा भारत में। यदा-कदा ही अंग्रेजी बोलते हैं, अन्यथा अपनी ठेठ पंजाबी मिश्रित हिन्दी में। बहुश्रुत और बहुपठित। व्यवहार कुशलता में अप्रतिम। अलमस्त। न अंह, न वर्जना। जहाँ बैठते हैं, मजमा अपने आप जुड़ जाता है। पता ही नहीं लगता कि समय कब बीता और तनाव कब गायब हुआ। पेशे से चिकित्सक हैं पर मरीजों को दवा से ठीक करते हैं या चुटकुलों से, कह नहीं सकते। गाने लगते हैं तो ऐसा लगता है जैसे जगजीत सिह के सहोदर हों।
दूल्हे राजा अमेरिकी और दुल्हिन भारतीय। विवाह दोनों परंपराओं से हुआ। न्यूजर्सी के विशाल महलनुमा होटल अल्बर्ट पैलेस में। मेहमानों में अमेरिकी और भारतीय दोनों। मेहमानों के मनोरंजन के लिए भारत से सिने गायक सुदेश भोंसले और उनके सहयोगी आमंत्रित। भारतीय सिने गीतों की ताल पर अतिथि थिरकते हैं तो उनके और अजित कुमार जी के भजनों पर झूमने लगते हैं। गुरुजी वहाँ उपस्थित नहीं हैं पर परिवेश में वह छाये हुए हैं।
एक ओर अपने देश में, बुरी तरह रूढ़िग्रस्त परिवार भी, कुछ तो नंबर दो की कमाई के और कुछ ‘हम किसी से कम हैं क्या‘ के असर से जहाँ शादी-ब्याह के अवसर पर डिस्को और डी.जे. के पश्चिमी तमाशे में खोते जा रहे हैं, तो दूसरी ओर भारत से हजारों मील दूर इस महादेश में अनेक गौरांग युगल, किसी गुरु के प्रभाव से ही सही, भारतीय परंपरा के अनुसार अग्नि के फेरे ले रहे हैं।
कोई भी संस्कृति न तो महान होती है और न हेय। संस्कृतिसंस्कृति होती है।
कठमुल्ला मानसिकता चाहे वह किसी भी समाज के नेतृत्व की हो, अपने मिथ्या गौरव की दुहाई देकर भले ही समाजों को मध्ययुगीन अंधेरी कोठरियों में बन्द करने की सोचे, विश्व संस्कृति की सतत प्रवहमान धाराओं का नित्य नूतन संगम रुकता नहीं है। कोई भी संस्कृति न तो महान होती है और न हेय। संस्कृति, संस्कृति होती है। उनका उद्गम और संगम एक प्राकृतिक परिघटना है।
गुरु जी की सभाओं को और उनके अपने निजी कक्ष को भी देखा, जहाँ उनके भक्त दर्शनों की चाह में बाहर खड़े-खडे़ अपनी बारी की प्रतीक्षा करते हैं। यहाँ उपदेश नहीं है। बन्धन नहीं है। गुरु हैं, पर गुरुडम नहीं। वर्जनाएँ नहीं हैं, पर ओशो की तरह काम उन्मुक्तता भी नहीं । एक संस्कार सम्पन्न भारतीय परिवार की सी गरिमा है, अपनापा और सहजता है, रस है। मूल मंत्र है प्रेम. ‘आइ बिलांग टु यू‘ । इन सब के साथ है तथाकथित स्ट्रेस विमोचनी सुदर्शन क्रिया।
जैसे-जैसे उनके भक्तों के सपंर्क में आता हूँ, मैं यह तय नहीं कर पाता कि गुरु जी सन्त हैं या एक विलक्षण कार्पोरेट ब्रेन। उनके अपने शब्दों में Business is the legs of sprituality, sprituality should be the heart of business“.
आर्ट आफ लिविंग के कोर्सेज – बेसिक कोर्स, एडवांस कोर्स, सहज समाधि, दिव्य समाज का निर्माण, टी.टी.सी. (आर्ट आफ लिविंग का टीचर्स ट्रेनिंग कोर्स) वन, टी.टी.सी. टू. पूजा, बच्चों के लिए आर्ट एक्सेल और नहीं क्या-क्या।
यह सब एक सन्त की नहींएक कार्पोरेट ब्रेन के दिमाग की उपज है। जो आयेवह उलझता ही चला जाय
उनके अधिकतर अनुयायी, खास तौर पर अमेरीकी enlightenment के चक्कर में हैं और सोचते हैं कि इन सब ‘कोर्सेज‘ को कर लेने पर उन्हें आत्मज्ञान हो जायेगा। उनके समागमों में इन्हीं सब की चर्चा होती है. Have you done TTC? यह सब एक सन्त की नहीं, एक कार्पोरेट ब्रेन के दिमाग की उपज है। जो आये, वह उलझता ही चला जाय।
तेरा जलवा जिसने देखा वह तेरा हो गया।
मार्केटिंग, कार्पोरेट ब्रेन का अनिवार्य तत्व है। गुरु जी मार्केटिंग में किसी से कम नहीं हैं। संयोग से हमें उनके अनेक कार्यक्रमों में सहभागिता का अवसर मिला। सर्वत्र गुरुजी अलकायदा के आतंकियों की विचारधारा को बदल देने की, आर्ट आफ लिविंग कोर्सेज की, सामर्थ्य के उदाहरण के रूप में टाडा के अधीन बन्दी मुहम्मद अफरोज द्वारा मुंबई के कारागार में आर्ट आफ लिविंग का बेसिक कोर्स करने, एडवांस कोर्स किये बिना कारागार से जमानत हो जाने पर भी बाहर न जाने की जिद और भविष्य में मानव सेवा का व्रत लेने के संकल्प का उल्लेख करते रहे। यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि अलकायदा से आतंकित अमेरीकियों को प्रभावित करने के लिए यह गुर किसी कमाल के मार्केटिंग विशेषज्ञ के दिमाग की ही उपज हो सकता था।
कार्पोरेट ब्रेन आर्ट आफ लिविंग चलाता है और सन्त, अधिक अच्छा होगा उन्हें लीला पुरुष कहूँ, केवल विभिन्न अदाओं में मुस्कुराता है, बेहद मिठास भरी मुस्कुराहट। उनके कुछ भक्त उन्हें कृष्ण का अवतार मानते हैं तो दूसरे शिव का अवतार। वे स्वयं चमत्कारी नहीं हैं, पर भक्तों ने उनके चमत्कारों के सैकड़ों किस्से जोड़ लिये हैं। भक्तों को इसमें सुविधा भी है। किसी महाजन ( लाला का नही, महाजनों येन गतः स पन्थाः का संदर्भ लें) को अवतारी पुरुष घोषित कर देने और चमत्कार के किस्से गढ़ लेने पर अपने आप को सुधारने की मुसीबत से बच भी तो जाते हैं। गुरु के पीछे पगलाये हुए से दौड़ लीजिये, रात आधी रात तक, घर-बार छोड़ भजन गा लीजिये, अधिक हुआ तो गुरु जैसा बाना धारण कर लिया, बस छुट्टी।
मन न रंगावेरंगावे तन जोगिया।
जो भी हो पर वे हैं एक भले आदमी। He is a good man^] ‘, मेरे यह कहने पर एक उपासिका नाराज हो जाती हैं। कहती हैं, हमें उन्हें ‘आदमी‘ कहना ही बुरा लगता है। वे तो अवतारी पुरुष हैं। जो भी हो एक मामले वे कृष्ण तो हैं ही।
मुझे तो कृष्ण में भी रसिया, सन्त और कार्पोरेट ब्रेन तीनों का अद्भुत संयोग दिखायी देता है। रसिक भक्तों को रिझाता है, सन्त गीता का उपदेश देता है तो कार्पोरेट महाभारत की व्यूह रचना करता है। यही गुरुजी में भी दिखायी देता है। यह व्यक्तित्व ‘जै.जै राधा रमण हरि बोल‘ के सुरों में खुद भी नाचता है, नचाता है, अष्टावक्र गीता की व्याख्या करता है तो विश्व के 140 देशों में फैली ‘आर्ट आफ लिविंग फाउंडेशन‘ की सैकड़ों शाखाओं को सहेजता भी है।
‘आर्ट आफ लिविंग फाउंडेशन‘ उनके हर कार्यक्रम, उनकी हर एक भंगिमा को, हर एक वाक्य को टी.वी कैमरे में रिकार्ड करता है। उनकी 100 से भी अधिक वेबसाइट हैं। हर सप्ताह उनका संदेश इन वेबसाइटों पर प्रसारित होता है। आर्ट आफ लिविंग का बेसिक कोर्स किये हुए हर व्यक्ति का रिकार्ड उनके कंप्यूटर में सुरक्षित है। हर एक उपासक के जन्म दिन पर पता नहीं कहाँ-कहाँ बसे उनके भक्त बधाई संदेश भेजते हैं। संदेश आत्म ज्ञान का ही होता है:
सागर में एक लहर उठी तेरे नाम की
तुझे मुबारक खुशियाँ आत्मज्ञान की।
किस समुदाय को किस तरह प्रभावित किया जाय इसकी पकड़ गुरु जी को अच्छी खासी है। बंगाल के लोगों को प्रभावित करने का दायित्व यदि सुमधुर स्वर में भजन गाने वाले बंगाली शिष्य विक्रम संभालते हैं तो गुजराती बंधुओं को आकर्षित करने के लिए गुजराती शिष्य नितिन। टोरंटो के सिख समुदाय को दीक्षित करने का दायित्व संभालते हैं उनके सिख शिष्य सुखी जी। घर के अन्य धर्म गुरुओं को प्रभावित करने के लिए वे उन्हें सारी दुनिया की सैर कराने में भी पीछे नहीं रहते।
इस बार उनके साथ दक्षिण भारत के नौ धार्मिक आचार्य और महन्त आये हैं। नौ के नौ गेरुए वस्त्रों में और बीच में श्वेतांबरधारी गुरु जी। कृष्ण के विराट रूप के समक्ष अर्जुन की तरह गुरु जी के प्रभाव से सभी चकित।
अदृष्टपूर्वं हृषितोऽस्मि दृष्ट्वा भयेन च प्रव्यथितं मनो मे।
( मैं पहले न देखे हुए आपके इस आश्चर्यमय रूप को देख कर हर्षित हो रहा हूँ और मेरा मन भय से अति व्याकुल हो रहा है)
उनकी और इन नौ आचार्यों की भंगिमाओं को देख कर मुझे गीता में अर्जुन का निवेदन याद आ रहा था:
नष्टो मोहः स्मृति लब्ध्वा त्वत्प्रसादान्मयाच्युतः।
स्थितोऽस्मि गत संदेहः करिष्ये वचनं तव।।
(आपकी कृपा से मेरा मोह नष्ट हो गया और मैंने अपनी स्मृति प्राप्त कर ली है अब मैं संशय रहित होकर स्थित हूँ अतः आपकी आज्ञा का पालन करूंगा।)
शायद गुरुजी का लक्ष्य भी उन्हें ‘करिष्ये वचनं तव‘ की स्थिति में लाना रहा होगा। ‘होमफ्रंट‘ पर भी दिग्विजय। बेचारे कुछ तो गुरुजी के संसार व्यापी प्रभाव से मंत्रमुग्ध, कुछ हर मंच पर गुरुजी द्वारा दिये जा रहे सम्मान से गदगद, कुछ अंग्रेजी न जानने के कारण बेजुबान। केवल टुकुर-टुकुर ताकते रहने को मजबूर। कुछ लोगों के विचार से इन नवर्षियों को विश्वभ्रमण कराने में गुरु जी का सहगामी लक्ष्य उनकी कूप मंडूकता से मुक्ति भी हो सकती है। क्या पता?
आर्ट आफ लिविंग का अपना प्रकाशन है। गुरु जी के संवादों की, विचारधारा की सैकड़ों पुस्तकों के भारतीय भाषाओं और अंग्रेजी में नये-नये संस्करण निकलते रहते हैं। उनके उपदेशों के वीडियो कैसेट बनाने की शाखा सान्ता बारबरा, कैलिफोर्निया में है। आडियो कैसेट्स संभवतः बंगलौर में बनते है। उनके उतारे हुए वस्त्रों को भक्त अच्छे खासे मूल्य पर खरीदने को उतावले दिखाई देते हैं। उनके चित्र से युक्त लौकेट भक्त लोग बड़े चाव से खरीदते हैं। उपभोक्ता सामग्री के उत्पादन की अपनी इकाइयाँ हैं। कुल मिलाकर यह अध्यात्म पर आधारित एक बहुराष्ट्रीय उपक्रम सा लगता है।
वाणी, व्यवहार, व्यक्तित्व मीडिया और विलायत में मिली प्रतिष्ठा ने मिलकर 1956 में जन्मे ’गुरु जी’, श्री श्री रविशंकर को एक सुपर स्टार बना दिया है। उनका व्यक्तित्व अपनी जगह है, पर जो धूम मचाता जलवा है वह अंग्रेजी पर उनके अच्छे अधिकार, मीडिया से सरोकार, और चेलों द्वारा रचित वेब साइट्स का उपहार है। वैसे जब तक विलायत में प्रतिष्ठा न मिले, अपने देश में चाहे कोई कितना ही बड़ा समाज सुधारक, विद्वान, वैज्ञानिक या सन्त हो, बेचारी गुलाम मानसिकता, उसे प्रतिष्ठा कैसे दे सकती है?
नगरों के उच्च मध्यम वर्ग पर उनकी विशेष पकड़ है। जहाँ भी वे जाते हैं नेता, अभिनेता और अभिजात वर्ग का मजमा जुड़ जाता है। ‘आर्ट आफ लिविंग‘ का बंगलौर में अपना एक विद्यालय भी है. ‘वेद विज्ञान महा विद्यापीठ‘, जिसमें एक हजार अन्तेवासी छात्र अध्ययन रत हैं। फाइव एच. के नाम से संचालित योजना के अन्तर्गत भारत और विदेशों में हजारों गाँवों को अपनाये जाने की चर्चा होती रहती है। मीडिया में टाइम्स आफ इंडिया ग्रुप उनके बहुत निकट है।
पर ‘आर्ट आफ लिविंग‘ के इस संसार से परे जब मैं गुरु जी को देखता हूँ तो वे एक भिन्न व्यक्ति नजर आते हैं। ऐसा लगता है कि वे ज्ञान की निरर्थकता और आत्मज्ञान के छलावे को समझ चुके है। इसलिए अब केवल वे आनन्द और प्रेम की बातें करते हैं। यदि आप उनसे किसी सेवा के लिए आग्रह करेंगे तो वे केवल एक सेवा का आदेश देंगे: ‘प्रेम करो‘। अजित कुमार जी की शादी क्या तय हुई उन्होंने चटखारे लेने के लिए गुरु जी के आदेश का नया पाठ अपनी मंगेतर शुभ्रा जी को भेज दिया। “गुरुजी का आदेश है. “शादी किसी से भी करो पर प्रेम मुझ से करो“।
गुरुजी नितान्त सहज व्यक्ति हैं। अपने विशिष्ट होने का बोध उनमें नाममात्र भी नहीं हैं। वाशिंगटन के कांस्टिट्यूशन हाल में उनकी एक सभा है। वे मेरीलेंड में अपनी उपासिका नीलम जी के घर टिके हैं। नीलम जी, देह और वाणी में, लगता है, पूर्व जन्म में थानेदार रही होंगी। सुबह हम भी उनसे डाँट खा चुके हैं। गुरु जी को भी डाँट पिलाने में हिचक नहीं। उपासकों की भीड़ देख कर नीलम जी परेशान हैं। स्थानीय भक्तों ने भले ही पाटलक ( अपने-अपने घर से भोजन बना कर लाना)की व्यवस्था कर रखी है, पर ‘इतने फालतू लोगों को मैं क्यों खिलाऊँ‘, यह भावना उनके मन में जोर मारने लगी है। बचा हुआ भोजन चुपचाप फ्रिज और कप बोर्ड में दुबक जाता है। आधे लोग उपवास की तैयारी कर रहे हैं। गुरु जी विश्राम के लिए चले गये हैं। अकस्मात गुरु जी नीचे आते हैं, चूल्हा जलाते हैं। कपबोर्ड और फ्रिज से भोजन बाहर निकालते हैं। नीलम जी खीझती हैं लेकिन इतने जिद्दी ‘बालक‘ पर उनकी भी नहीं चलती। गुरु जी अपने हाथ से सब को भोजन कराते हैं। हम पहले ही भोजन कर चुके हैं। उन्हें भरोसा नहीं होता। भक्त लोग कहते हैं कि गुरु जी के हाथों भोजन करने का सौभाग्य बिरले भाग्यशाली लोगों को मिलता है। इसलिए मना न करें। हम दुबारा भोजन करने लगते हैं।
अमेरिका में ही नहीं, भारत में भी जहाँ उपासकों की भारी भीड़ के कारण उनसे मिल पाना दुर्लभ होता है, अपने व्यस्ततम क्षणों के बीच भी उन्हें अपने भक्तों और उपासकों में किसने भोजन किया, किसने नहीं, किसके आवास की व्यवस्था हुई, किसके नहीं, इस बात का सदा ध्यान रहता है। उपासक उनको छोड़ने को तैयार नहीं रहते। सारी रात आँखों में बिता देना चाहते हैं, पर गुरु को मालूम है कि कुछ लोग बहुत दूर से उ
Shri Shri Ravishankar
Shri Shri Ravishankar
नके दर्शनों के लिए आये हैं। इसलिए कितना ही बड़ा समागम क्यों न हो रात्रि 9 बजे गुरुजी समापन गीत जै-जै राधारमण हरिबोल की धुन में झूमते हुए अपने विश्राम कक्ष की ओर चल देते हैं।
वे किसी की आलोचना नहीं करते। निन्दा तो दूर की बात हैं। किसी प्रश्न पर चिढ़ते नहीं हैं। भेदभाव नहीं करते। किसी को हेय नहीं समझते। पहले कभी ज्ञान का उपदेश देते रहे हों, पर अब उपदेश भी नहीं देते। केवल सहज बाल-भाव से मुस्कुराते हैं। खिलखिलाते हैं, कभी-कभी बच्चों की सी शैतानी से चुटकी भी लेते हैं। सायंकालीन प्रार्थना सभा में उनके शिष्य नितिन एक भजन गा रहे हैं। बोल हैं। एक ही ज्ञान आत्म ज्ञान… गुरुजी को यह रूखापन पसन्द नहीं हैं। वे बीच में ही नया भजन शुरू कर देते हैं। बोल हैं ‘तुम्हीं तो मीत हो…. तुम्हीं तो हो।‘ अकेले में गुनगुना उठते हैं। अपने चुलबुले साफ्टवेयर भक्तां का अपने प्रति गाया जाने वाला फिल्मी गीत।
रूप तेरा ऐसा दर्पण में न समाय।
पलक बन्द कर लूँ कहीं छलक ही न जाय।
उनके एक अनन्य उपासक एन.आर.आई। उद्योगपति हितेन पटेल के शब्दों में “आर्ट आफ लिविंग क्या है, मैं नहीं जानता। मेरे लिए तो केवल गुरुजी हैं।“
(मेरी पुस्तक आँखिन की देखी (2001) के अपनी अमरीका यात्रा के वृत्तान्त ’परदेश से’)

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