सुधीर सुमन के फेसबुक वाल से साभार
शायद 2010 में महाश्वेता जी के एक निर्णय को लेकर एक दोस्त से तीखी बहस हो गयी थी। अपने विरोध की वजह सेे एक आयोजन में उनको आमंत्रित किये जाने का भी उन्होंने विरोध किया था। मैंने कहा कि जब महाश्वेता जी नहीं रहेंगी, तब उस निर्णय की वजह से उनको याद नहीं किया जाएगा, जिससे आपका विरोध है, बल्कि वे अपने लेखन और अपनी सामाजिक भूमिका की वजह से हमारे लिए प्रासंगिक रहेंगी। आज भी मैं उस स्टैंड पर कायम हूँ। महाश्वेता जी जनपक्षधर लेखकों-संस्कृतिकर्मियों और अपने लोकतान्त्रिक हक़-अधिकार के लिए लड़ने वालों के लिए हमेशा प्रासंगिक और प्रेरक रहेंगी।
युवानीति ने उनके उपन्यास 'हज़ार चौरासी की माँ' का मंचन 90 के शुरूआती वर्षों में किया था, जिसने मुझ पर गहरा असर डाला था। हालाँकि उसके पहले से मैं महाश्वेता जी के बारे में जानता था, पर उस नाटक की बड़ी भूमिका रही मुझे क्रन्तिकारी वामपंथी राजनीति के करीब लाने में। फिर जब 1997 में उनका उपन्यास 'मास्टर साब' हिंदी में छपा तो उसे पढ़ते हुए अपने भोजपुर के संघर्ष को और ज्यादा बढ़िया से समझा। काफी रिसर्च करके यह उपन्यास उन्होंने लिखा होगा, यह महसूस हुआ। 1998 में उनके उपन्यास 'मास्टर साब' के बेहद सफल मंचन के बाद मैंने उनको एक ख़त लिखा था, जिसका जिक्र उन्होंने जनसत्ता के अपने नियमित स्तम्भ में किया था। उन्हें हम कभी भूल नहीं सकते। लाल सलाम महाश्वेता जी!
युवानीति ने उनके उपन्यास 'हज़ार चौरासी की माँ' का मंचन 90 के शुरूआती वर्षों में किया था, जिसने मुझ पर गहरा असर डाला था। हालाँकि उसके पहले से मैं महाश्वेता जी के बारे में जानता था, पर उस नाटक की बड़ी भूमिका रही मुझे क्रन्तिकारी वामपंथी राजनीति के करीब लाने में। फिर जब 1997 में उनका उपन्यास 'मास्टर साब' हिंदी में छपा तो उसे पढ़ते हुए अपने भोजपुर के संघर्ष को और ज्यादा बढ़िया से समझा। काफी रिसर्च करके यह उपन्यास उन्होंने लिखा होगा, यह महसूस हुआ। 1998 में उनके उपन्यास 'मास्टर साब' के बेहद सफल मंचन के बाद मैंने उनको एक ख़त लिखा था, जिसका जिक्र उन्होंने जनसत्ता के अपने नियमित स्तम्भ में किया था। उन्हें हम कभी भूल नहीं सकते। लाल सलाम महाश्वेता जी!
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