Sunday, July 31, 2016

उत्तर प्रदेश में बसपा ही दलित पिछडो का एक मात्रा विकल्प विद्या भूषण रावत

Hindutva forces are ready to play the 'identity' card. There will be many Dalits ready to take that mattle but we hope people in Uttar Pradesh understand it. Dalits of Agra were among the very first, who embraced the ideology of Baba Saheb Ambedkar. They know it well that it is not merely 'identity' otherwise Babu Jagjivan Ram would have been the tallest leader. It is the ideology of Ambedkarism that people in Uttar Pradesh have carried. We can understand that things at ground are difficult and identities matter. BJP's attempt to discredit Ms Mayawati will not succeed as she is not just a Dalit leader but people of Uttar Pradesh consider her an efficient administrator. We know well that the Sangh Parivar is working on multiple agenda to divide Dalit votes but we hope they will not succeed. There is no other option for Dalits than to vote for BSP. Ms Maywati remain the only choice at the moment in Uttar Pradesh.I know people get angry but the thing is that those who want to 'experiment' in Uttar Pradesh can do it in the next elections as they will only be ''vote-katua' and nothing else. People should understand that 'vote-katuas' are actually to help the BJP. So be careful. For experiments, we have many other places like Madhya Pradesh, Chhattishgarh, Bengal etc, Gujarat, Maharastra and many more places. I am not against any political formulations but I personally feel that these elections in Uttar Pradesh are 'aar-paar ki ladai' with Hindutva and if they are not decimated then you cant expect to do anything in 2019 Lok Sabha elections. I would advise those who want to contest in the name of Bahujans to please focus on other states and try to mobilise people there. A divided Dalit vote will only help the upper caste parties in Uttar Pradesh.

Vidya Bhushan Rawat




उत्तर प्रदेश में बसपा ही दलित पिछडो का एक मात्रा विकल्प 

विद्या भूषण रावत 



उत्तर प्रदेश में बहुजन और दलितों का नेतृत्व करने वालो की लाइन लग गयी है।  ये कोई बुरी बात नहीं है क्योंकि लोकतंत्र में ऐसा होगा।  पिछड़ी जातियो की भी तमाम पार्टिया बन चुकी हैं और हर एक जाती अपनी एक पार्टी बना रही है।  समस्या यह नहीं के जातीया पार्टी बना रही है बल्कि यह के व्यक्तिगत महत्वकांशाए पार्टिया बनवा रही है और अपनी व्यक्तिगत  महत्वाकांक्षा को 'समाज' की 'चाहत' का नाम दे दिया जा रहा है।  दलो में आतंरिक लोकतंत्र नहीं है और लोगो को हम भिखारी से ज्यादा नहीं समझ रहे हैं. अस्मिताओं की राजनीती करने वाले अपने से नीचे और हासिये रहने वालो की अस्मिताओं  और महत्वाकांक्षाओं को वैसे ही नकारते हैं जैसे हिंदुत्व के लोग दलितों और पिछडो की अस्मिताओं को 'हिन्दू' धर्म को तोड़ने की साजिश।  असल में जिसे प्रतिनिधत्व नहीं मिलेगा वो दुसरी तरफ जाएगा क्योंकि राजनीती में सरवाइवल ऑफ़ फिट्टेस्ट होता है।  अस्मिताओं के मतलब संघ परिवार से ज्यादा कोई नहीं समझता इसलिए उसे ब्राह्मणवाद को ढ़ोने वाले व्यक्ति चाहिए जिनकी जातियो के नाम पर वो उन्हें हिंदुत्व के खेमे में ला सके।  

हालांकि छोटी छोटी संख्या वाली जातियो की मांगे गैर वाजिब नहीं है और उनको दलित बहुजन के नाम का दावा करने बाली पार्टियों को निपटाने का प्रयास करना चाहिए था ताकि वे दूसरी और न खिसके।  ये दुखद बात होगी के दलितों के अति दलित जातिया या पिछडो की अति पिछड़ी जातीय हिंदुत्व के खेमे में जाएँ लेकिन समस्या राजनैतिक भागीदारी की है और इसके लिए बड़ी जातियो को दिल बड़ा करना पड़ेगा और कुछ स्पेस काम संख्या वाली जातियो को देना पड़ेगा।  बसपा के शुरूआती दौर में मान्यवर कांशीराम जी ने उन तमाम छोटी छोटी जातियो को गोलबंद किया जिनका प्रतिनिधित्व नहीं था इसलिए बसपा को वो कार्य नहीं छोड़ना चाहिए। 

उत्तर प्रदेश का चुनाव केंद्र की सरकार के कार्यो के बारे में जनता की राय भी होगा।  राज्य में इस चुनाव में अच्छी पोजीशन के लिए भाजपा दलित वोट को विभाजित करने , पिछड़े वोट में गैर यादव वोट को अपने पक्ष में लाने के लिए तरह तरह के तिकड़में कर रही है।  इसलिए ये देखना जरुरी है के जिसको खड़ा किया जा रहा है वो कौन हैं। वे सभी क्यों  एक ही जाति में जा रहे हैं ?  क्या उत्तर प्रदेश के दलित उन पर हो रहे अत्यचारों को भुलादे ? रोहित वेमुला के हत्याकांड से लेकर , नौकरियों में आरक्षण के प्रश्न, गुजरात, मध्य प्रदेश में गौ रक्षा के नाम पर दलितों और मुसलमानो का उत्पीडन और दलित छात्रों की छात्रविर्तियो को बंद करना या काम करना सभी को याद होना चाहिए।  आज जिस प्रकार से हिंदुत्व के  गैर कानूनी ब्रिगेड कही पर भी किसी को नहीं बख्स रही है और कानून व्यवस्था की स्थिति पूर्णतः चरमरा गयी है।  उत्तर प्रदेश के लोग मुजफ्फरनगर,  दादरी, कैराना, शामली को कैसे भूल सकते हैं जहाँ प्रदेश के सरकार ने  हाथ पाँव खड़े कर दिए।  मथुरा में जय गुरुदेव के नाम से जो फौज इकट्ठा होकर ईमानदार पुलिस अधिकारी को मार दी उसकी जांच कहा तक पहुंची किसी को पता नहीं है लेकिन  उन पर चर्चा नहीं होती।  अभी इटावा में एक नट समाज के दम्पति को जिस बेरहमी से मात्रा १५ रुपये के उधार न देने के लिए क़त्ल कर दिया गया वो दिखाता है दलितों  और अति दलितों की स्थिति उत्तर प्रदेश में कैसी है।  अभी नॉएडा से एक माँ बेटी के साथ शाहजहांपुर जाते समय रेप हुआ है और उनका सारा सामन लूट लिया गया। 

हम नहीं जानते के प्रदेश के सरकार ने दलित पिछड़े आरक्षण के प्रश्न पर क्या रवैय्या अपनाया है ? ये भारत में पहली बार हुआ है जहाँ प्रदेश की सरकार ने खुले तौर पर ट्रेड यूनियनों को अनुसूचित जातियो के प्रमोशन में आरक्षण के खिलाफ भड़काया।  इलाहबाद में पिछड़े वर्ग के छात्रों ने UPSC में आरक्षण के लिए जो लड़ाई लड़ी उसे कोई सहयोग नहीं दिया। 

आज हम सबके समक्ष एक चुनौती है के कैसे हिंदुत्व की ताकतों को उत्तर प्रदेश में ध्वस्त करें।  हम जानते है के दलितों पिछडो, मुसलमानो, आदिवासियों और अन्य प्रगतिशील लोगो में चिंता व्याप्त है और सभी भाजपा को हराना  चाहते हैं लेकिन अगर उसे करके दिखाना है तो कैसे ? क्या हम केवल भाजपा हराओ नारा देकर उनको ध्वस्त कर सकते हैं ? उत्तर प्रदेश में हमें एक विकल्प को चुनना होगा नहीं तो वोट का विभाजन हिंदुत्व को सबसे जायद ताकत देगा। इस निर्णय पर पहुचना होगा के दलित पिछडो अकलियतों के हित कहाँ सुरक्षित हैं।  यदि ऐसा नहीं करते तो हमें मैदान में नहीं जाना चाहहिये और ये जाने अनजाने हिंदुत्व की सेवा ही है। 

उत्तर प्रदेश में दलित वोटो का विभाजन केवल सवर्ण पार्टियों को लाभ पहुंचाएगा।  जो लोग भी बहुजन या दलित पिछड़े के नाम पर राजनीती कर रहे हैं उनसे केवल एक अनुरोध है के इस चुनाव की ऐतिहासिकता को देखे।  हम सब जानते हैं के उत्तर प्रदेश में मुख्या पार्टियों में बसपा, सपा , भाजपा और कांग्रेसहै  खड़ी  हैं और आज तक पार्टियां सत्ता में २९ से ३० प्रतिशत के वोटो पर सत्ता में आयी हैं / दलितों को विभाजित करके भाजपा सत्ता में आना चाहती है।  दलित संगठन और पार्टियां मध्य प्रदेश, छत्तीशगढ़, गुजरात , महाराष्ट्र, बंगाल, हरयाणा और अन्य राज्यो को भी अपना केंद्र बना सकते हैं और उत्तर प्रदेश में मेहनत करके २०२१ के चुनाव की तैयारी कर सकते हैं।  बसपा को भी बदलना पड़ेगा और बृहत्तर दलित बहुजन समाज के अंदर जो अपेक्षाएं हैं उन पर खरा उतारना पड़ेगा।  हम केवल इन चुनावो की महत्त्ता को देखकर बात कर रहे हैं क्योंकि चुनाव लड़ना और न लड़ना  ये लोगो का व्यक्तिगत अधिकार है. हमारी अपील केवल वर्तमान परिस्थियों को देखकर और देश में जो संकट है उसके अनुसार है।  हम या भी जानते हैं के बहुत से साथीयो को बसपा के बारे में पक्का विश्वाश नहीं है लेकिन हम केवल ये कहना चाहेंगे के जो भी लोग हिंदुत्व के साथ समझौता करेंगे वे समाज के भीतर जाने  महसूस करेंगे।  बसपा ने ये गलती की थी  लेकिन उससे सबक सीख लिया और हम उम्मीद करते हैं के वह मज़बूती से अपने विचारधारा पे कायम रहेगी लेकिन  अगर उन्होंने किसी भी प्रकार से हिंदुत्व की शक्तियों के साथ गठबंधन किया तो फिर जो लोग में दलितो गोलबंद कर रहे हैं २०२१-२२ में वे ही पार्टी का सूपड़ा साफ़ कर देंगे।  फिलहाल हम उम्मीद करते हैं के सभी साथी कोशिश करेंगे के सांप्रदायिक जातिवादी ब्राह्मणवादी शक्तिया उत्तर प्रदेश में हारें ताकि डॉ आंबेडकर के संविधान की रक्षा की जा सके और २०१९ में राष्ट्रीय चुनावो में देश को एक नया नेतृत्व मिल सके जो सभी को साथ लेकर चल सके और गैर संवैधानिक ताकतों से भली प्रकार से निपट सके। 

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