भैंस सम्मान आन्दोलन:
Sanjeev Kumar, "भैंस की उत्पत्ति का इतिहास, जब विश्वामित्र, ब्रह्मा से भिड़कर एक वैकल्पिक सृष्टि रचने लगे तो गाय के विकल्प के रूप में उन्होंने भैंस बनाया. वैकल्पिक सृष्टि के रक्षकों को भैंस रक्षा का अभियान चलाना ही होगा!"
बेचारी भैंस: ज्यादा दूध देती है, जिससे छेना, पनीर, दही, घी और तरह-तरह के पकवान भी बनते हैं. खेतों में भी काम करती है, हल से लेकर गाड़ी तक में जुतती है. लेकिन सम्बन्ध व्यवस्था में कहीं भी नहीं. यही नहीं इसके मांस खाने और निर्यात तक पर भी रोक नहीं. दुर्गा पूजा के समय देश के कई भागों में भैंस की बलि भी चढ़ती है. इहलोक (धरती) पर इनका हर तरह से दोहन और और शोषण तो होता ही, दैवीय व्यवस्था में भी इनके साथ भेदभाव ही होता है. इन्हें मृत्यु के देवता यमराज का वाहन बना दिया गया है. अपमान का आलम देखिए बहादुर और ज्यादा उपयोगी होने के बावजूद सारे गंदे मजाक भी भैंस के ऊपर बना दिए हैं, काला अक्षर भैंस बराबर, भैंस जैसा मोटा, भैंस के आगे बीन बजाना इत्यादि.
भैंस की हालत शूद्रों (दलित, आदिवासी, पिछड़े) जैसी ही है, दोनों की स्थिति में समानता है. शुद्र भी खेतों में काम करते हैं, शहरों में मजदूरी करते हैं, देश को साफ़ सुथरा रखते हैं, अनाज और सब्जियां उगाते हैं, ‘साहबों’ की सारी सुख सुविधा का ध्यान रखते हैं. पर उन्हें मिलता क्या है? सारे गंदे मजाक भी उन्हीं पर बनाए जाते हैं. वैसे तो ‘गऊ’ को भी ‘माता’ बनाने में ‘राजनीति’ हुई है. गाय, ज्यादातर खेतिहर समाज पालते हैं. लेकिन गऊ-दान कौन लेता है, गाय का दूध कौन पीता है आप सब जानते हैं. लेकिन गाय को ‘माता’ के रूप में पेश कर दिया गया, जिससे कि एक समुदाय विशेष के प्रति नफरत फैलाया जा सके.
सामाजिक सम्बन्ध व्यवस्था से लेकर मवेशियों के सम्बन्ध व्यवस्था में भी भेदभाव हुआ है, ज्यादती हुई है. इसलिए समय आ गया है कि मवेशियों की सम्बन्ध व्यवस्था भी फिर से परिभाषित की जाय. शुक्रिया
भैंस के सम्मान में दलित, पिछड़ा, आदिवासी और मुसलमान मैदान में!
बेचारी भैंस: ज्यादा दूध देती है, जिससे छेना, पनीर, दही, घी और तरह-तरह के पकवान भी बनते हैं. खेतों में भी काम करती है, हल से लेकर गाड़ी तक में जुतती है. लेकिन सम्बन्ध व्यवस्था में कहीं भी नहीं. यही नहीं इसके मांस खाने और निर्यात तक पर भी रोक नहीं. दुर्गा पूजा के समय देश के कई भागों में भैंस की बलि भी चढ़ती है. इहलोक (धरती) पर इनका हर तरह से दोहन और और शोषण तो होता ही, दैवीय व्यवस्था में भी इनके साथ भेदभाव ही होता है. इन्हें मृत्यु के देवता यमराज का वाहन बना दिया गया है. अपमान का आलम देखिए बहादुर और ज्यादा उपयोगी होने के बावजूद सारे गंदे मजाक भी भैंस के ऊपर बना दिए हैं, काला अक्षर भैंस बराबर, भैंस जैसा मोटा, भैंस के आगे बीन बजाना इत्यादि.
भैंस की हालत शूद्रों (दलित, आदिवासी, पिछड़े) जैसी ही है, दोनों की स्थिति में समानता है. शुद्र भी खेतों में काम करते हैं, शहरों में मजदूरी करते हैं, देश को साफ़ सुथरा रखते हैं, अनाज और सब्जियां उगाते हैं, ‘साहबों’ की सारी सुख सुविधा का ध्यान रखते हैं. पर उन्हें मिलता क्या है? सारे गंदे मजाक भी उन्हीं पर बनाए जाते हैं. वैसे तो ‘गऊ’ को भी ‘माता’ बनाने में ‘राजनीति’ हुई है. गाय, ज्यादातर खेतिहर समाज पालते हैं. लेकिन गऊ-दान कौन लेता है, गाय का दूध कौन पीता है आप सब जानते हैं. लेकिन गाय को ‘माता’ के रूप में पेश कर दिया गया, जिससे कि एक समुदाय विशेष के प्रति नफरत फैलाया जा सके.
सामाजिक सम्बन्ध व्यवस्था से लेकर मवेशियों के सम्बन्ध व्यवस्था में भी भेदभाव हुआ है, ज्यादती हुई है. इसलिए समय आ गया है कि मवेशियों की सम्बन्ध व्यवस्था भी फिर से परिभाषित की जाय. शुक्रिया
भैंस के सम्मान में दलित, पिछड़ा, आदिवासी और मुसलमान मैदान में!
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