सोनी सोरी और इरोम शर्मिला के बाद किसकी बारी राजनीति के शरण में जाने की?
वैश्विक फासिज्म के दुस्समय में सैन्य राष्ट्र के मुकाबवले लोकतंत्र कहां खड़ा है?
कश्मीर में हमारे साथी यही दलील देते रहे हैं कि सैन्य राष्ट्र के मुकाबले अराजनीतिक जनांदोलन असंभव है क्योंकि कभी भी आप आतंकवादी उग्रवादी माओवादी राष्ट्रविरोधी करार दिये जा सकते हैं और ऐसे में अलगाव में आपके साथ कुछ भी हो,कोई आपके साथ खड़ा नहीं होगा।कश्मीरी पंडितों के अलावा कश्मीर में जो बड़ी संख्या में दलित,ओबीसी और आदिवासी जनसंख्या हैं,उनके नेताओं और कश्मीर घाटी के सामाजिक कार्यकर्ताओं की यह कथा है।
अंधेरे का यह राजसूय समय है और रेशां भर रोशनी बिजलियों की चकाचौंध में कहीं नहीं!
पलाश विश्वास
कम्फर्ट जोन के वातानुकूलित आबोहवा से अभी अभी सड़क पर पांव जमाने की कोशिश में हूं और दिशाएं बंद गली सी दिखती हैं।
ऐसे में अचानक आसमान से बिजली गिरने की तरह हस्तक्षेप पर ही पहले यह खबर दिखी कि हमारी अत्यंत प्रिय लौह मानवी इरोम शर्मिला सात अगस्त को 15 साल से जारी आमरण अनशन खत्म कर रही हैं और अब वे मणिपुर विधानसभा का चुनाव लड़ेंगी।
नवंबर 2000 से मणिपुर में सशस्त्र सैन्यबल विशेषाधिकार कानून खत्म करने की मंग लेकर इरोम शर्मिला अनशन पर हैं।
2001 में हम अपने मित्र जोशी जोसेफ की फिल्म दृश्यांतर,अंग्रेजी में इमेजिनारी लाइंस की शूटिंग के सिलसिले में इंफाल और दिमापुर से तीन किमी दूर मरम गांव में लगभग महीनेभर डेरा डाले हुए थे।
हमने तब लोकताक झील में भी शूटिंग की थी।
मोइरांग में भी थे हम।
मैंने इस फिल्म के लिए संवाद लिखे थे।
उस दौरान इंफाल और बाकी मणिपुर में आफसा का जलवा देखने को मिला था।
तब से लगातार हम पूर्वोत्तर के संपर्क में हैं।
त्रिपुरा और असम में हम दिवंगत मंत्री और कवि अनिल सरकार के घूमते रहे हैं।
तबसे लेकर हालात बिगड़े हैं ,सुधरे कतई नहीं हैं।हाल तक इरोम शर्मिला जेएनयू के छात्र आंदोलन हो या दलित शोध छात्र रोहित वेमुला की संस्थागत हत्या,हर मामले को आफसा के खिलाफ अपने अनशन से जोड़ती रही हैं और कमसकम हमें इसका कोई अंदाजा नहीं था कि 15 साल से आमरण अनशन करते रहने के बाद उसी सशस्त्र सैन्य विशेषाधिकार कानून के तहत फिलवक्त कश्मीर घाटी में जनविद्रोह के परिदृश्य में अचानक आमरण अनशन तोड़कर राजनीतिक विकल्प उन्होंने क्यों चुना।
हमारे लिए अंधेरे में दिशाहीनता का यह नया परिदृ्श्य है।अंधेरे का यह राजसूय समय है और रेशां भर रोशनी बिजलियों की चकाचौंध में कहीं नहीं है।
अमावस में दिया या लालटेन से जितनी रोशनी छन छनकर निकलती थी,वह भी दिख कहीं नहीं रही है।
तेज रोशनियों के इस अभूतपूर्व कार्निवाल में रोशनी ही ज्यादा अंधेरा पैदा करने लगी है और चूंकि मुक्तिबोध ने मुक्तबाजारी महाविनाश का,निरंकुश सत्ता का यह अंधेरा अपने जीवन काल में जिया नहीं है,तो उऩकी दृष्टि और सौंदर्यबोध में भावी समय की ये दृश्यांतर हमारी दृष्टि की परिधि से बाहर रहे हैं कि कैसे इस निर्मम समय के समक्ष जनप्रतिबद्धता के लिए भी राजनीति एक अनिवार्य विकल्प बनता जा रहा है।
इसे पहले बस्तर में सोनी सोरी को राजनीतिक विकल्प चुनना पड़ा है और सोनी की लड़ाई भी इरोम से कम नहीं है।
इरोम तो आमरण अनशन पर हैं और ज्यादातर वक्त जेल के सींखचों के पीछे या अस्पताल में रही हैं या अदालत में कटघरे में।
सोनी सोरी का रोजनामचा ही सैन्य राष्ट्र के मुकाबले आदिवासी भूगोल के हक हकूक के लिए रोज रोज लहूलुहान होते रहने का है।
सोनी सोरी ही नहीं,जनांदोलन के तमाम साथी राजनीतिक विकल्प चुनने के लिए मजबूर हैं।
फासिज्म के इस वैश्विक दुस्समय में अराजनीतिक जनांदोलन लंबे समय तक जारी रखना मुश्किल है।बामसेफ के सिलसिले में पहले माननीय कांशीराम और बाद में वामन मेश्राम ने जब राजनीतिक विकल्प चुना तो यह अराजनैतिक आंदोलन भी बिखराव का शिकार हो गया है और राजनीतिक वर्चस्व के मुकाबले उसका वजूद नहीं के बराबर है।उदित राज से भी राजनीतिक विकल्प अपनाने पर संवाद होता रहा है।
इससे पहले अस्सी के दशक में इंडियन पीपुल्स फ्रंट ,जसम के गठन और बाद में राजनीतिक विकल्प पर नई दिल्ली में और अन्यत्र बहसें होती रही हैं और हम हमेशा असहमत रहे हैं।अब उस असहमति के लिए शायद कोई जगह अब बची नहीं है।
हमारे लिए यह बहुत बड़ा संकट है और पासिज्म फुलब्लूम है कि पहले आपको अपनी आत्मरक्षा के लिए राजनीतिक पहचान बनानी है अन्यथा आप जनप्रतिबद्धता या जनांदोलन के लिए किसी काम के नहीं रहेंगे।
एनजीओ के तहत जो जनांदोलन चल रहे ते,वह भी अब असंभव है और एनजीओं से जुड़े सबसे बड़ा काफिला राजनीति में शामिल हो गया है तो अब अराजनीतिक बाकी नागरिकों की नक में नकेल डालने का सिलसिला शुरु होने वाला है।
कश्मीर में हमारे साथी यही दलील देते रहे हैं कि सैन्य राष्ट्र के मुकाबले अराजनीतिक जनांदोलन असंभव है क्योंकि कभी भी आप आतंकवादी उग्रवादी माओवादी राष्ट्रविरोधी करार दिये जा सकते हैं और ऐसे में अलगाव में आपके साथ कुछ भी हो,कोई आपके साथ खड़ा नहीं होगा।कश्मीरी पंडितों के अलावा कश्मीर में जो बड़ी संख्या में दलित,ओबीसी और आदिवासी जनसंख्या हैं,उनके नेताओं और कश्मीर घाटी के सामाजिक कार्यकर्ताओं की यह कथा है।
मणिपुर में राजनीति लेकिन हाशिये पर है और आफसा के तहत बाकायदा सैन्य शासन के हालात में भी वहां लोकतांत्रिक आंदोलन का सिलसिला लगातार जारी है और इस जनांदोलन का नेतृत्व इंफाल के इमा बाजार से लेकर पूरे मणिपुर की घाटियों,पहाड़ों और मैदानों में आदिवासी नगा और दूसरे समूहों,मैतेई वैष्णव जनसमूहो की महिलाओं के हाथों में हैं।
मणिपुरी शास्त्रीय नृत्यसंगीत और मणिपुर के थिएटर की तरह यह सारा संसार पितृसत्ता के खिलाफ चित्रांगदा का महाविद्रोह है और इसकी महानायिका इरोम हैं।इसलिए बाकी देश में पितृसत्ता के वर्चस्व के तहत राजनीतिक संरक्षण की अनिवार्यता जिस तरह समझ में आनेवाली बात है,मणिपुर और इरोम शर्मिला के मामले में यह मामला वैसा बनता नहीं है।
कुल मिलाकर लोकतंत्र में राजनीति के अलावा जो नागरिकों की संप्रभुता और स्वतंत्रता का परिसर है और बिना राजनीतिक अवस्थान के जनप्रतिबद्धता और जनांदोलन का जो विकल्प है,वह सिरे से खत्म होता जा रहा है और मूसलाधार मानसून से भी ज्यादा मूसलाधार अंधेरे में होने का अहसास है।
हिंदी के महाकवि मुक्तिबोध की बहचर्चित कविता अंधेरे में न जाने कितनी दफा पढ़ा है और अब लगता है देश काल परिस्थितियों के मुताबिक हर पाठ के साथ इसके तमाम नयेआयाम खुलते जा रहे हैं।
कोलकाता में जब से आया हूं जीवन में पहली दफा जो बंद गली में कैद होने का अहसास हुआ,फिर अंधेरे के शिकंजे से छूटकर रोशनी के ख्वाब में जो रोज का रोजनामचा है,वह कुल मिलाकर इसी कविता का पाठ है।
हर रोज नये अनुभव के साथ इस कविता के नये संदर्भ और नये प्रसंग बनते जा रहे हैं।
जिन्होंने अभी हमारे समय को पढ़ा नहीं है,उनके लिए पूरी कविता काव्यकोश में उपलब्ध है।लिंक इस प्रकार हैः
साभार http://kavitakosh.org/
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