Sunday, July 31, 2016

हिंदुत्व और दलित मुक्ति: दोनों साथ नहीं चल सकते

हिंदुत्व और दलित मुक्ति: दोनों साथ नहीं चल सकते




आनंद तेलतुंबड़े अपनी इस ताजा टिप्पणी में हाल में दलितों के खिलाफ होने वाले अत्याचारों और अपराधों में भाजपा के हिंदुत्व एजेंडे की भूमिका की पड़ताल कर रहे हैं. साथ ही वे इसको दिखाने की कोशिश भी कर रहे हैं कि दलितों और हिंदुत्व के बीच एक खाई है जिसे पाटा नहीं जा सकता. अनुवाद: रेयाज उल हक
 

दलितों के पलटवार में एक खास भाजपा-विरोधी रंग है. चाहे वह रोहिथ वेमुला की खुदकुशी पर छात्रों का राष्ट्रव्यापी विरोध हो या फिर गुजरात की शर्मनाक घटना पर होने वाले विरोध आंदोलन हों जहां चार दलित नौजवानों को बुरी तरह पीटा गया था, या फिर मुंबई में प्रतीक बन चुके आंबेडकर भवन के विध्वंस पर 19 जुलाई को होने वाला प्रदर्शन हो या फिर राजस्थान में एक नाबालिग लड़की के बलात्कार और हत्या पर नाराजगी हो, भाजपा के खिलाफ दलितों का गुस्सा सतह पर है और उसे महसूस किया जा रहा है.वेमुला के मामले की जानकारी इतनी आम है कि यहां उसका ब्योरा देना जरूरी नहीं है. लेकिन इस पर गौर करना जरूरी है कि विरोधों के बावजूद अहंकारी सत्ता ने हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय के वीसी अप्पा राव पोडिले और वेमुला के खिलाफ कार्रवाई की मांग करने वाले केंद्रीय मंत्री बंडारू दत्तात्रेय को गिरफ्तार करने से इन्कार कर दिया.

गुजरात में “गौ रक्षा समिति” कहने वाले हिंदुत्व के हत्यारे गिरोह ने मोटा समाधियाला गांव में एक दलित परिवार पर गाय की हत्या करने का आरोप लगाते हुए उन्हें पीटा. उन्होंने चार नौजवानों को पकड़ा, उनके कपड़े फाड़ डाले, उन्हें एक कार में बांधकर उना शहर तक घसीटते हुए ले गए, जहां उन्हें एक पुलिस थाने के ठीक बगल में कई घंटों तक सबकी आंखों के सामने पीटते रहे. हमलावरों को इसका यकीन था कि उनपर कोई कार्रवाई नहीं होगी और उन्होंने इस करतूत का वीडियो भी बनाया. लेकिन यह कदम भारी पड़ा क्योंकि वीडियो वायरल हो गया और गुस्साए हुए दलित सड़कों पर उतर पड़े.

25 जून को मुंबई में दो बुलडोजरों से लैस गुंडों (बाउंसरों) की एक बड़ी भीड़ ने प्रतीक बन चुके आंबेडकर भवन और बाबासाहेब आंबेडकर के प्रेस को तोड़ कर गिरा दिया. ऊपरी तौर पर ऐसा एक रिटायर्ड दलित नौकरशाह के कहने पर किया गया, लेकिन दलितों ने इसे राज्य में शासन कर रही भाजपा की कार्रवाई के रूप में देखा.

यह एक गंभीर आपराधिक कार्रवाई थी, लेकिन एफआईआर के बावजूद पुलिस ने अपराधियों को गिरफ्तार करने से इन्कार कर दिया. पुलिस द्वारा कोई कार्रवाई न किए जाने के विरोध में दलितों ने भाजपा के नेतृत्व वाली महाराष्ट्र सरकार के खिलाफ एक बहुत बड़ा जुलूस निकाला.

29 मार्च को राजस्थान के बारमेड़ जिले में एक दलित लड़की की लाश उसके स्कूल के करीब एक टंकी से बरामद की गई. हालांकि सबूत बलात्कार और हत्या की तरफ इशारा कर रहे थे, भाजपा सरकार ने इसे दबा दिया. राज्य में दलित सड़कों पर उतर पड़े.

ये और ऐसी ही अनेक घटनाएं साफ दिखाती हैं कि दलित भाजपा के हिंदुत्व के एजेंडे से खफा हैं. हालांकि भाजपा ने दलितों को अपने साथ लेने के लिए भारी पैंतरेबाजी की है, क्योंकि उन्हें अहसास हो गया कि वे उनके “हिंदू राष्ट्र” को हासिल करने में केंद्रीय अहमियत रखते हैं, लेकिन दलितों और हिंदुत्व के बीच के ऐतिहासिक और विचारधारात्मक अंतर्विरोधों की खाई को किसी भी तरह पाटा नहीं जा सकता. न ही भाजपा महज आंबेडकर के स्मारक खड़े करके और उनके प्रति अपनी “भक्ति” का दिखावा करके दलितों का दिल जीत सकती है, जबकि दूसरी तरफ उनकी रेडिकल विरासत को धड़ल्ले से दफनाया जा रहा है.

चाहे इसको जैसी भी शक्ल दी जाए, हिंदुत्व का मतलब हिंदू रिवाजों, प्रथाओं और संस्कृति पर गर्व करना ही है, और ये जाति व्यवस्था का ही एक दूसरा नाम हैं और इस तरह यह दलितों की मुक्ति के एजेंडे का विरोधी है. गाय के लिए हिंदुत्व की सनक ने – जो अब गाय के पूरे परिवार तक फैल गई है – अब मुसलमानों के बाद दलितों को चोट पहुंचाई है. यह उन्हें उनके पसंदीदा बीफ (गोमांस) से वंचित करती है जो प्रोटीन का बहुत सस्ता स्रोत है और इसने उनके लाखों लोगों को बेरोजगार बना दिया है.

दिलचस्प बात ये है कि मशहूर हुए मामलों के मुताबिक देखें तो दिखेगा कि दलितों ने मुसलमानों से भी ज्यादा तकलीफ उठाई है. 2002 में हरियाणा के झज्झर के दुलीना में पांच दलितों को हिंदुत्व के हुजूम ने पीट-पीट कर उनकी जान ले ली और फिर उन्हें जला दिया. हाल ही में गुजरात में एक हिंदुत्व गिरोह ने एक दलित परिवार को सरेआम पीटा है. इन दोनों घटनाओं के बरअक्स मुस्लिम परिवार पर हमले का एक मामला है. सितंबर 2015 में हिंदुत्व की एक भीड़ ने उत्तर प्रदेश के दादरी में मुहम्मद अखलाक को पीट-पीट कर मार डाला और उनके बेटे को गंभीर रूप से जख्मी कर दिया.

दलित अर्थव्यवस्था पर चोट

छोटे किसानों के रूप में दलित मवेशी पालते हैं. ‘गाय नीति’ उनकी माली हालत पर गंभीर चोट करती है. सबसे हैरान करने वाली बात इसके पीछे की अतार्किकता और दोमुंहापन है. आर्थिक अतार्किकता को कई अर्थशास्त्रियों ने उजागर किया है और अगर यह बनी रही तो कुछ बरसों में यह देश के लिए अकेली सबसे बड़ी तबाही बन सकती है. और दोमुंहापन ये है कि जबकि हजारों छोटे कत्लखानों में मवेशियों के कत्ल पर पाबंदी है और जिसने लाखों मुसलमान और दलित बेरोजगार बना दिया है, निर्यात के लिए छह बड़े कत्लखाने इसी समय फल-फूल रहे हैं, जिनमें से चार के मालिक हिंदू हैं और उनमें से भी दो ब्राह्मण हैं. चाहे यह गाय के कत्ल का मामला हो या इसका सांस्कृतिक राष्ट्रवादी पहलू हो, ये सीधे-सीधे दलितों के हितों और उनकी उम्मीदों का विरोधी है.

दलित आंदोलन और शिक्षा के फैलाव से दलितों के बीच में अहम सांस्कृतिक बदलाव आया है. जहां एक ओर पिछले छह दशकों के दौरान उनका करीब सिर्फ एक दहाई ही मध्यवर्ग तक जा पाया था, इस तरक्की ने, जिसे राज्य की नालायक उदारता के रूप में लिया जाता है, आम तौर पर ऊंची जातियों में एक नफरत भरी है. यहां तक कि हिंदुत्व बलों के हद से ज्यादा आंबेडकर-परस्त एजेंडे ने भी गांव के लोगों के बीच इस नफरत में इजाफा किया है जो एक साथ मिल कर अत्याचारों में तेजी ला रहा है.

जहर उगलने वाले चीखते-चिल्लाते स्वामी, साध्वी और कुछ फौजी जनरल हिंदुत्व और दलितों के बीच अंतर्विरोधों की न पाटी जा सकने वाली उस खाई के लक्षण हैं.

वेमुला के मामले में और उना अत्याचारों के सिलसिले जैसी कुछ करतूतें भाजपा को आनेवाले चुनावों में गंभीर नुकसान पहुंचाने जा रही हैं. सिर पर खड़े उत्तर प्रदेश चुनावों के दौर में भाजपा नेता दयाशंकर सिंह द्वारा बहुजन समाज पार्टी की मुखिया मायावती के खिलाफ “वेश्या” वाली टिप्पणी इन चुनावों में मायावती की सिर्फ मदद ही कर सकती है.

जैसा कि अनेक विश्लेषकों ने उम्मीद की है, भाजपा कुछ और “मुजफ्फरनगर” रचने की अपनी पेटेंट तरकीब को यकीनन आजमाने की कोशिश करेगी, लेकिन इस बार वह कामयाब नहीं होगी. भाजपा के नुकीले पंजों के उजागर हो जाने के साथ ही, अब यह देखना है कि दलित क्या करते हैं.

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