Sunday, July 31, 2016

आज़ाद दिलों की साजिश: अरुंधति रॉय

आज़ाद दिलों की साजिश: अरुंधति रॉय


 



रोहिथ वेमुला की खुदकुशी, जेएनयू पर होने वाले हमले, गाय के नाम पर हत्याओं के मौजूदा राजनीतिक हालात पर टिप्पणी करता हुआ अरुंधति रॉय का यह लेख अंग्रेजी पत्रिका कारवां के मई अंक में छपा था. इस लंबे लेख को दो किस्तों में पोस्ट किया जा रहा है. पेश है पहली किस्त.अनुवाद - रेयाज उल हक

 

इन दिनों की एक ना-तमाम डायरी

वह फरवरी की एक सुकून भरी रात थी। यह जानते हुए कि हालात अच्छे नहीं चल रहे हैं, मैंने वो किया जो मैं बहुत कम करती हूं. इयरप्लग लगाते हुए मैंने टीवी ऑन किया। हाल में हीघटनाओं का जो सिलसिला चला था जिसमें – हत्याएं और पीट-पीट कर किए जाने वाले कत्ल, विश्वविद्यालय कैंपसों पर पुलिस के छापे, छात्रों की हो रही गिरफ्तारियां और जबरन झंडा फहराना – इन सब पर भले ही मैंने कुछ नहीं कहा था, लेकिन मैं जानती थी कि अब भी मेरा नाम “राष्ट्र-विरोधियों” की पहली फेहरिश्त में था. उस रात मुझे फिक्र होने लगी कि अदालत की अवमानना का जो मुकदमा मैं पहले से झेल रही थी (“इंसाफ के कामकाज में दखल देने के लिए,” केंद्र सरकार, राज्य की सरकारों और पुलिस मशीनरी और न्यायपालिका की भी आलोचना करने के लिए,” और “एक असभ्य, रूखे और बेअदब व्यवहार” के लिए), उसके अलावा टाइम्स नाऊ के हमेशा गुस्से से भरे रहने वाले एक न्यूज एंकर की मौत की वजह बनने का मुकदमा भी मुझ पर चलाया जाएगा. मुझे लगा कि उन्हें मिर्गी का दौरा पड़ सकता है, जब वो हवा में तलवार भांजते हुए और हिकारत से मेरा नाम लेते हुए यह कह रहे थे कि मैं देश में चल रही “राष्ट्र-विरोधी” गतिविधि के पीछे किसी अंधेरे जाल का हिस्सा थी. उनके मुताबिक मेरा अपराध यह है कि मैंने कश्मीर में आजादी के संघर्ष के बारे में लिखा है, मुहम्मद अफजल गुरु की फांसी पर सवाल उठाया है, मैं माओवादी गुरिल्लों (टीवी की जबान में “आतंकवादियों”) के साथ बस्तर के जंगलों में चली हूं भारत द्वारा अपनाए गए “विकास” के मॉडल को लेकर अपने संदेहों के साथ उनके हथियारबंद विद्रोह को और – एक फुफकारती हुई, हिकारत से भरी खामोशी के बाद – भारत के परमाणु परीक्षणों पर भी सवाल किया है.

अब ये बात सच है कि इन मुद्दों पर मेरा नजरिया हुकूमत करने वाले निजाम के विचारों से मेल नही खाता. बेहतर दिनों में, इसे आलोचनात्मक नजरिया या फिर दुनिया को लेकर एक वैकल्पिक खयाल के रूप में जाना जाता था. इन दिनों भारत में इसे राजद्रोह कहा जाता है [वे इसे “देशद्रोह” कहते हैं].

दिल्ली में बैठे हुए, बिगड़ैल हो गई लोकतांत्रिक रूप से चुनी हुई एक सरकार जैसी दिखती इस चीज के रहमोकरम पर बैठे हुए, मैंने अपने मन में सवाल किया कि क्या मुझे अपने विचारों पर दोबारा गौर करना चाहिए. मिसाल के लिए मैंने एक भाषण के बारे में सोचा जो मैंने अमेरिकन सोशियोलॉजिकल असोसिएशन की सालाना बैठक में, बुश बनाम केरी चुनावों के ठीक पहले दिया था. उसमें मैंने मजाक किया था कि कैसे डेमोक्रेट्स और रिपब्लिकन्स – भारत में कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी उनके समकक्ष हैं - के बीच चुनाव करना कपड़े धोने के दो उत्पादों टाइड और आइवरी स्नो के बीच चुनाव करने जैसा है, इन दोनों ब्रांडों की मालिक असल में एक ही कंपनी है. जो कुछ अभी चल रहा है, उसे देखते हुए क्या मैं ईमानदारी से इसी पर यकीन करती रह सकती हूं?

खूबियों के हिसाब से देखें तो जब गैर-हिंदू समुदायों के कत्लेआम की बात हो, या फिर दलितों की हत्याओं की अनदेखी करनी हो, या इसको यकीनी बनाना हो कि सत्ता और संपदा की बागडोर प्रभुत्वशाली जातियों की एक छोटी सी अल्पसंख्यक तादाद के हाथों में बनी रहे, या जान-बूझ कर बनाए गए सांप्रदायिक तनावों की ओट में नवउदारवादी आर्थिक सुधारों को चुपके से लागू करना हो, या किताबों पर पाबंदी लगानी हो तो कांग्रेस और भाजपा के बीच में बहुत फर्क नहीं है. (और जब बात कश्मीर, नागालैंड और मणिपुर जैसी जगहों पर होने वाली हिंसा की हो तो दोनों बड़ी वामपंथी पार्टियों समेत सभी संसदीय दल अपनी अनैतिकता में एकजुट खड़े दिखते हैं.)

ऐसे इतिहास को देखते हुए, क्या यह बात कोई मायने रखती है कि कांग्रेस और भाजपा की घोषित विचारधाराएं पूरी तरह अलग हैं? व्यवहार चाहे जो भी हो, कांग्रेस कहती है कि वह एक धर्मनिरपेक्ष, उदार लोकतंत्र में भरोसा रखती है, जबकि भाजपा धर्मनिरपेक्षता का मखौल उड़ाती है और यह मानती है कि भारत बुनियादी तौर पर एक “हिंदू राष्ट्र” है. कांग्रेसी तर्ज का दोमुंहापन एक संजीदा पेशा है. यह शातिर है, यह आईने को धुंधला बना देता है और हमें अंधेरे में टटोलते रहने के लिए छोड़ देता है. लेकिन अपनी धर्मांधता को गर्व के साथ घोषित करना और उसे उजागर करना, जैसा कि भाजपा करती है, उस सामाजिक, कानूनी और नैतिक बुनियादों को एक चुनौती है जिन पर आधुनिक भारत (ऐसी उम्मीद की जाती है कि) खड़ा है. यह कल्पना करना गलत होगा कि हम आज जो देख रहे हैं वह बिना उसूलों वाली, हत्यारी राजनीतिक पार्टियों के बीच की एक मामूली रस्म है.

हालांकि भारत के एक हिंदू राष्ट्र होने के विचार को लगातार प्राचीनता की रंग-रोगन चढ़ाया जा रहा है, लेकिन अनोखे तरीके से यह हाल का एक विचार है. और विडंबना यह है कि इसका संबंध धर्म से उतना नहीं है जितना प्रतिनिधित्व वाले लोकतंत्र से है. ऐतिहासिक रूप से, जो लोग खुद को अब हिंदू कहते हैं वो अपनी पहचान सिर्फ अपनी जाति से ही करते थे. एक समुदाय के रूप में, कठोर रूप से ऊंच-नीच के आधार पर कायम, अपने भीतर शादियां करने वाली जातियों के एक ढीलेढाले गठबंधन के रूप में काम करता है. (यहां तक कि आज भी, एकता और राष्ट्रवाद की सारी बातों के बावजूद, भारत में सिर्फ पांच फीसदी शादियां जातिगत सीमाओं को तोड़कर होती हैं. इन सीमाओं को तोड़ने अब भी युवाओं के सिर काटे जा सकते हैं.) चूंकि हरेक जाति अपने से नीचे की जाति पर प्रभुत्व रखती है, इसलिए सबसे नीचे की जातियों को छोड़ कर सभी जातियों को लालच देकर इस व्यवस्था का हिस्सा बना लिया गया. ब्राह्मणवाद वह शब्द है जिसका इस्तेमाल जाति-विरोधी आंदोलन परंपरागत रूप से इस बनावट को बताने के लिए इस्तेमाल करते आए हैं. हालांकि इसका चलन बंद हो गया (और अक्सर इसे गलत रूप से एक जाति के रूप में ब्राह्मणों की प्रथाओं और विश्वासों का हवाला देने के लिए इस्तेमाल किया जाता है), असल में यह इस सामाजिक और धार्मिक बंदोबस्त के लिए “हिंदू धर्म” की अपेक्षा ज्यादा सटीक शब्द है, क्योंकि यह खुद जाति जितना ही पुराना है और हिंदू धर्म के विचार से सदियों पहले का है.

यह एक विस्फोटक दावा है, इसलिए मुझे भीमराव आंबेडकर का सहारा लेने दीजिए. उन्होंने 1936 में एनाइहिलेशन ऑफ कास्ट में लिखा था, “जिस सबसे पहली और सबसे बड़ी बात की पहचान करना जरूरी है वो ये है कि हिंदू समाज एक मिथक है. खुद हिंदू नाम ही एक विदेशी नाम है. मुसलमानों ने खुद को अलग दिखाने के मकसद से स्थानीय निवासियों [जो सिंधु नदी के पूरब में रहते थे] को यह नाम दिया था.”

फिर सिंधु के पूरब में रहने वाले लोग खुद को हिंदू कैसे और क्यों कहने लगे? उन्नीसवीं सदी का अंत आते आते प्रतिनिधित्व वाले शासन की राजनीति ने सम्राटों और राजाओं की राजनीति की जगह ले ली (जिसे विरोधाभासी रूप से साम्राज्य की ब्रिटिश सरकार अपने उपनिवेश में ले आई थी). ब्रिटिशों ने भारत कहे जाने वाले आधुनिक राष्ट्र-राज्य की सीमाओं की निशानदेही की, इसे क्षेत्रीय निर्वाचन मंडलों में बांटा और स्थानीय स्व-शासन के लिए निर्वाचित संस्थाओं के विचार को प्रस्तुत किया. धीरे-धीरे प्रजा नागरिक बनी, नागरिक वोटर बने और वोटरों ने निर्वाचक मंडल बनाए जो पुरानी और नई निष्ठाओं, गठबंधनों और वफादारियों के एक जटिल जाल में से एक जगह आ जुटे थे. अपने अस्तित्व में आने के साथ ही नए राष्ट्र ने अपने शासकों के खिलाफ संघर्ष शुरू किया. लेकिन अब यह एक शासक को फौजी तरीके से हटा कर गद्दी पर कब्जा करने का सवाल नहीं रह गया था. नए शासकों के लिए, चाहे वो जो भी हों, जनता का एक जायज प्रतिनिधि होना जरूरी था. प्रतिनिधित्व वाले शासन की राजनीति ने नई चिंताओं को जन्म दिया: आजादी के संघर्ष की उम्मीदों के प्रतिनिधि होने की जायज दावेदारी किसकी बनती है? कौन-सा निर्वाचक मंडल बहुमत बनाएगा?

यह उस दौर के शुरू होने की निशानी थी, जिसे हम अब “वोट बैंक” की राजनीति कहते हैं. जनसंख्या की बनावट एक जुनून में तब्दील हो गई. यह जरूरी हो गया कि अब तक खुद को जातियों के नाम से पहचानने वाले लोग अब एक ही झंडे के नीचे आकर एक बहुसंख्यक एकता बनाएं. यही मौका था, जब उन्होंने खुद को हिंदू कहना शुरू किया. यह एक बेहद विविधता से भरे समाज में राजनीतिक बहुसंख्या की रचना करने का रास्ता था. “हिंदू” एक धर्म से ज्यादा एक राजनीतिक जनाधार का नाम था, एक ऐसा जनाधार जो खुद को उसी तरह साफ-साफ परिभाषित कर सके जैसे दूसरे जनाधार– मुसलमान, सिख और ईसाई – कर पाते हैं. हिंदू राष्ट्रवादियों और आधिकारिक रूप से “धर्मनिरपेक्ष” कांग्रेस पार्टी ने भी “हिंदू वोटों” पर अपनी दावेदारी जताई.

यही वो वक्त था जब उन लोगों के बारे में एक पेचीदा संघर्ष शुरू हुआ, जिन्हें “अछूत” या “अवर्ण” के नाम से जाना जाता था. हालांकि वो जाति व्यवस्था की सीमा के बाहर थे, लेकिन वो भी अलग अलग जातियों में बंटे हुए थे, जिनको ऊंच-नीच के कड़े आधार पर एक तरतीब दी गई थी. हम जिस राजनीतिक अव्यवस्था के दौर से गुजर रहे हैं, जिसके केंद्र में दलित अध्येता रोहिथ वेमुला की खुदकुशी है, उसे समझने के लिए सदी के बदलाव के वक्त के इस संघर्ष को समझना जरूरी है, भले ही वह अवधारणा के स्तर पर ही क्यों न हो.

पिछली सदियों में जाति के अभिशाप से बचने के लिए के लिए लाखों अछूतों (मैं इस शब्द का इस्तेमाल सिर्फ इसलिए कर रही हूं क्योंकि आंबेडकर ने भी इसका इस्तेमाल किया था) ने बौद्ध, इस्लाम, सिक्ख और ईसाई धर्म अपनाए. अतीत में इन धर्मांतरणों ने प्रभुत्वशाली जातियों में किसी चिंताको जन्म नहीं दिया. लेकिन जब से आबादी की बनावट की राजनीति ने केंद्रीय जगह अपना लिया, आबादी के हिस्सों का रिस कर दूसरे धर्मों में जाना फौरी चिंता का विषय बन गया. जिन लोगों को हमेशा दूर ही रखा जाता रहा था और जिन्हें बेहरमी से कुचला जाता रहा, अब उन्हें एक ऐसी आबादी के रूप में देखा जाने लगा जो हिंदू मतदाताओं की तादाद को बड़े पैमाने पर बढ़ा सकते थे. बहला-फुसला कर उन्हें किसी तरह से “हिंदू बाड़े” में ले आना था. हिंदू धर्मोपदेश की यह शुरुआत थी. आज हम जिसे घर वापसी के नाम से जानते हैं, वह प्रभुत्वशाली जातियों द्वारा अछूतों और आदिवासियों का - जिन्हें वे “दूषित” मानते थे- “शुद्धिकरण” करने के लिए निकाली गई एक तरकीब थी,. विचार यह था (और अब भी है) कि इन प्राचीन और स्थानीय लोगों को बहला-फुसला कर यह भरोसा दिलाया जाए कि वो पहले हिंदू थे और यह भी कि हिंदू धर्म इस उपमहाद्वीप का मूल और स्थानीय धर्म था. ऐसा नहीं था कि प्रभुत्वशाली जातियों से आने वाले हिंदू राष्ट्रवादियों ने ही अछूतों को राजनीतिक रूप से अपनाने की कोशिश की और दूसरी तरफ जाति व्यवस्था की महिमा गाते रहे. कांग्रेस में भी उनके जोड़ीदारों ने भी यही काम किया. भीमराव आंबेडकर और मोहनदास गांधी के बीच की मशहूर बहस की वजह यही थी; और आज भी भारतीय राजनीति में यह गंभीर उथल-पुथल की वजह बनी हुई है. यहां तक कि आज भी, एक हिंदू राष्ट्र के अपने विचार को बाकायदा मजबूत बनाने के लिए, भाजपा को दलित आबादी की एक बहुसंख्या को बहलाना-फुसलाना पड़ रहा है ताकि वे एक ऐसी व्यवस्था को अपना लें जो उन्हें कलंकित और अपमानित करती है. आश्चर्यजनक तरीके से वे इसमें कामयाब भी रहे हैं और उनकी यह कोशिश कुछ जुझारू आंबेडकरी दलितों को अपने साथ लाने में कामयाब रही है. यही व विरोधाभास है, जिसके द्वारा रचे हुए राजनीतिक समय में हम रह रहे हैं, जो इतनी उत्तेजनापूर्ण, उन्मादित और अप्रत्याशित है.

हिंदू राष्ट्रवाद (और भाजपा) के विचारधारा की बागडोर अपने हाथों में रखने वाली होल्डिंग कंपनी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने 1925 में अपनी स्थापना के बाद से ही इस काम में लग गई थी कि अजीबोगरीब जातियां, समुदाय, जनजातियां (ट्राइब), धर्म और एथनिक समूह अपनी अपनी पहचानें खत्म करके हिंदू राष्ट्र के बैनर तले खड़े हो जाएं. यह थोड़ा-थोड़ा ऐसा है जैसे एक तूफानी समुंदर से एक विशाल, मजबूत, पथरीली भारत माता की प्रतिमा गढी जाए, जो मदर इंडिया का हिंदू दक्षिणपंथी आदर्श है. हो सकता है कि पानी को पत्थर में बदलना एक व्यावहारिक महत्वाकांक्षा न हो, लेकिन अरसे से आरएसएस की कोशिशों ने समुंदर को गंदा कर दिया है और इसके जीव-जंतुओं और हरियाली के लिए ऐसे खतरे पैदा कर दिए हैं, जिन्हें पलटा नहीं जा सकता. इसकी तबाही लाने वाली विचारधारा – जिसे हिंदुत्व नाम से जाना जाता है और जो बेनितो मुसोलिनी और एडोल्फ हिटलर जैसों से प्रेरित है – खुलेआम नाजी शैली में भारतीय मुसलमानों के सफाए की बात कहती है. आरएसएस के सिद्धांत में (जिसे इस संगठन के दूसरे सरसंघचालक एमएस गोलवलकर ने लिखा है) हिंदू राष्ट्र की राह रोकने वाले तीन मुख्य दुश्मन बताए गए हैं: मुसलमान, ईसाई और कम्युनिस्ट. और अब जबकि आरएसएस उस लक्ष्य की तरफ तेजी से आगे बढ़ रहा है, हर चीज असल में ठीक-ठीक उसके मनमाफिक ही हो रही है, भले ही हमारे आसपास घट रही चीजें हमें अव्यवस्था जैसी दिखाई दे रही हों.

इधर, आरएसएस ने जानबूझ कर राष्ट्रवाद और हिंदू राष्ट्रवाद का आपस में घालमेल कर दिया है. यह इन दोनों शब्दों का आपस में अदल-बदल कर इस्तेमाल करता है, मानो उनका एक ही मतलब हो. स्वाभाविक रूप से, यह इस तथ्य की अनदेखी करना चाहता है कि इसने ब्रिटिश उपनिवेशवाद के खिलाफ संघर्ष में बिल्कुल कोई भूमिका अदा नहीं की थी. लेकिन जहां आरएसएस ने एक ब्रिटिश उपनिवेश को एक आजाद राष्ट्र बनाने की लड़ाई दूसरों के ऊपर छोड़ दी थी, वहीं तब से एक आजाद राष्ट्र को एक हिंदू राष्ट्र बनाने के लिए किसी भी दूसरे राजनीतिक और सांस्कृतिक संगठन की तुलना में कहीं ज्यादा मेहनत इसने की है.

1980 में भाजपा की स्थापना के पहले आरएसएस का राजनीतिक संगठन भारतीय जन संघ था. लेकिन आरएसएस का असर पार्टियों की सीमाओं से परे है और अतीत में इसकी रहस्यमय मौजूदगी कांग्रेस की अधिक बदनाम और हिंसक गतिविधियों में जाहिर होती रही है. अब संगठन के पास हजारों शाखाओं और लाखों कार्यकर्ताओं का जाल है. इसका अपना मजदूर संघ है, इसके अपने शैक्षिक संस्थान हैं जहां दसियों लाख छात्रों के भीतर इसके विचार भरे जाते हैं, इसका अपना शिक्षकों का संगठन है, महिलाओं का संगठन है, एक मीडिया और प्रकाशन विभाग है, आदिवासी कल्याण के लिए इसके अपने संगठन हैं, इसका अपना मेडिकल मिशन है, घटिया इतिहासकारों का इसका अपना गिरोह है (जो इतिहास की अपनी खामखयाली परोसते रहते हैं) और बेशक सोशल मीडिया पर ट्रोल (पीछा) करने वाली इसकी अपनी फौज है. इसके सहयोगी संगठन बजरंग दल और विश्व हिंदू परिषद उन लोगों पर संगठित हमला करने के लिए, नाजी स्टॉर्म ट्रूपरों की तरह ही एक हिंसक और आक्रामक हमलावर मुहैया कराते हैं, जिनके विचारों को वे एक खतरे के रूप में देखते हैं. अपने खुद के संगठन बनाने के साथ साथ (जो भाजपा को मिला कर संघ परिवार बनाता है), आरएसएस ने बड़े धीरज के साथ सार्वजनिक संस्थानों में अपने प्यादे बिठाने के लिए मेहनत की है: सरकारी समितियां, विश्वविद्यालय, नौकरशाही और सबसे अहम रूप में खुफिया सेवाओं में.

यह बात पहले से तय ही थी कि यह दूरअंदेशी और कड़ी मेहनत एक दिन काम आनेवाली है. इसके बाद भी, यहां तक पहुंचने में कल्पना और बेरहमी जरूरी थी. हममें से ज्यादातर इस कहानी को जानते हैं, लेकिन हम पर चीजों को भुला देने की जो बीमारी थोपी जा रही है, उसमें हालिया वर्तमान में घटनाओं के सिलसिले को रखना बेहतर होगा. कौन जानता है, कि अलग-अलग दिखने वाली चीजें अगर बाद में देखी जाएं तो शायद असल में जुड़ी हुई दिखें. और इसके उलट भी हो सकता है. इसलिए एक खाके को सुलझाने की इस कोशिश में अगर मैं जाने-पहचाने इलाकों की गश्त लगाने लगूं तो मुझे माफ कीजिएगा.


सत्ता की यात्रा राम जन्मभूमि आंदोलन से शुरू हुई. 1990 में एक भाजपा नेता और आरएसएस के सदस्य एलके आडवाणी ने अपने एयरकंडीशंड रथ में देश भर में एक यात्रा निकाली और “हिंदुओं” से उठ खड़े होने और भगवान राम के पवित्र जन्मस्थान पर मंदिर बनाने के लिए प्रोत्साहित किया. लोगों से कहा गया कि यह जन्मस्थान अयोध्या शहर में ठीक वही जगह थी जहां सोलहवीं सदी की एक मस्जिद बाबरी मस्जिद खड़ी थी. अपनी रथ यात्रा के ठीक दो साल बाद 1992 में आडवाणी ने अपनी नजरों के सामने एक संगठित भीड़ द्वारा बाबरी मस्जिद को मलबे में तब्दील होते देखा. इसके बाद दंगे, कत्लेआम और सिलसिलेवार धमाके हुए. मुल्क इस तरह से दो ध्रुवों में बंट गया, जैसा बंटवारे के बाद से कभी नहीं बंटा था. 1998 आते-आते, भाजपा ने (जिसके पास 1984 में संसद में सिर्फ दो सीटें थीं), केंद्र में एक गठबंधन सरकार बना ली.

भाजपा ने सबसे पहला काम ये किया उसने परमाणु परीक्षणों के एक सिलसिले के जरिए आरएसएस की पुरानी इच्छा को साकार किया. आरएसएस अब तीन बार (गांधी की हत्या के बाद, आपातकाल के दौरान और बाबरी मस्जिद गिराए जाने के बाद) प्रतिबंधित होने वाले संगठन से आखिरकार सरकारी नीतियों को तय करने की हैसियत में आ गया था. हम इसे उठान का साल कह सकते हैं.

ऐसा नहीं था कि भारत ने पहली बार परमाणु परीक्षण किए हों, लेकिन 1998 की तड़क-भड़क भरी नुमाईश कुछ अलग ही थी. यह हैसियत बदल देने वाले अनुष्ठान की तरह था. “हिंदू बम” इस बात का ऐलान था कि हिंदू राष्ट्र बस आने ही वाला है.

कुछ ही दिनों के भीतर पाकिस्तान ने (जो 1956 में ही खुद को इस्लामी गणतंत्र घोषित करके पहले ही होड़ में आगे चल रहा था) “मुस्लिम बम” की नुमाइश की. और अब हम इन दोनों शेखीबाज, परमाणु हथियारों से लैस मुर्गों के बीच में फंस गए थे, जिनको एक दूसरे से नफरत करना सिखाया गया था, जिन्होंने बहुसंख्यकवाद और धार्मिक अंधराष्ट्रवाद के हॉरर शो में एक दूसरे से मुकाबले के दौरान अपनी अल्पसंख्यक आबादी को बंधक बना रखा था, और उनके पास कश्मीर था, जिस पर वे लड़ सकते थे.

परमाणु परीक्षणों ने भारत में सार्वजनिक बहस के लहजे को बदल दिया था. उन्होंने इसे खुरदरा बल्कि यह कहें कि हथियार से लैस कर दिया. अब की तरह तब भी ऐसे लेख लोगों में बांटे गए कि हिंदू राष्ट्र बस आनेवाला है- कि फिर से उठ खड़ा होने वाला भारत “पुराने उत्पीड़कों पर टूट पड़ेगा और उन्हें पूरी तरह तबाह कर देगा.” यह सब बेतुका था, लेकिन परमाणु हथियारों ने ऐसे विचारों को बजाहिर मुमकिन बना दिया था. उसने ऐसे विचार पैदा किए.

आगे जो आने वाला था उसको देखने के लिए आपको भविष्यद्रष्टा होने की जरूरत नहीं थी.

उठान का वह साल, 1998, ईसाइयों (बुनियादी तौर पर दलित और आदिवासी) पर घिनौने हमलों का गवाह बना, जो हिंदुत्व के सबसे असुरक्षित दुश्मन हैं. आरएसएस से जुड़े वनवासी कल्याण आश्रम के धार्मिक संगठन के मुखिया स्वामी असीमानंद (जो समझौता एक्सप्रेस ट्रेन में बम धमाकों के मुख्य अभियुक्त के रूप में राष्ट्रीय खबरों की सुर्खियां बने रहे ) को पश्चिमी गुजरात के जंगल वाले जिले डांग में एक मुख्यालय स्थापित करने के लिए भेजा गया. हिंसा की शुरुआत क्रिसमस की पूर्वसंध्या से हुई. हफ्ते भर के भीतर इलाके में 20 गिरजाघरों को या तो जला दिया गया या फिर हिंदू धर्म जागरण मंच की अगुवाई में हजारों की भीड़ द्वारा तबाह कर दिया गया. यह मंच विश्व हिंदू परिषद और बजरंग दल से जुड़ा हुआ है. जल्दी ही, डांग जिला घर वापसी का एक बड़ा केंद्र बन गया. हजारों आदिवासी, हिंदू धर्म में ‘वापस’ लौटे थे. दूसरे राज्यों में हिंसा फैली. उड़ीसा के क्योंझर जिले में एक ऑस्ट्रेलियाई ईसाई मिशनरी ग्राहम स्टेन्स को, जो भारत में 35 बरसों से काम कर रहे थे, 6 और 10 साल के उनके दो बेटों के साथ जिंदा जला दिया गया. जिस आदमी ने यह हमला किया था, उसका नाम दारा सिंह था और वह बजरंग दल का एक कार्यकर्ता था.

अप्रैल 2000 में संयुक्त राज्य के राष्ट्रपति बिल क्लिन्टन पाकिस्तान के एक आधिकारिक दौरे पर थे, जिसके बाद उन्हें दिल्ली आना था. लद्दाख के कारगिल जिले में जंग को अभी एक साल से भी कम समय बीता था, जिसमें भारत ने पाकिस्तानी सेना को पीछे धकेल दिया था, जिसने उकसावे वाला कदम उठाते हुए अपने सैनिकों को नियंत्रण रेखा (लाइन ऑफ कंट्रोल) पार करके रणनीतिक जगहों पर कब्जा करने के लिए अपने सैनिकों को भेज दिया था. भारत सरकार इसके लिए इच्छुक थी कि अंतरराष्ट्रीय समुदाय पाकिस्तान को एक “आतंकवादी राज्य” के रूप में मान्यता दे. 20 अप्रैल को, जिस रात क्लिंटन को पहुंचना था, दक्षिणी कश्मीर में एक गांव छत्तीसिंघपुरा में 35 सिखों की बेरहमी से हत्या कर दी गई. हत्यारों के बारे में बताया गया कि वे पाकिस्तान-स्थित मिलिटेंट थे, जिन्होंने भेस बदलते हुए भारतीय सेना की वर्दियां पहन रखी थीं. पहली बार कश्मीर में मिलिटेंटों द्वारा सिखों को निशाना बनाया गया था. पांच दिन बाद, स्पेशल ऑपरेशन्स ग्रुप और राष्ट्रीय राइफल्स ने दावा किया कि उन्होंने मिलिटेंटों में से पांच का पता लगा कर उनको मार डाला है. मारे गए लोगों की जली हुई, कटी-फटी लाशें, साफसुथरी बिना जली हुई फौजी वर्दियों में थीं. असलियत खुली कि वे सभी स्थानीय कश्मीरी गांव वाले थे, जिनको सेना ने अगवा करके एक फर्जी एनकाउन्टर में मार दिया था.

अक्तूबर 2001 में, संयुक्त राज्य पर 9/11 हमलों के बस कुछ हफ्ते बाद भाजपा ने नरेन्द्र मोदी को गुजरात का मुख्यमंत्री बनाया. तब मोदी कमोबेश अनजान से शख्स थे. उनकी मुख्य राजनीतिक खासियत आरएसएस का लंबा और वफादार सदस्य होना थी.

दिल्ली में 13 दिसंबर 2001 की सुबह में, जब भारतीय संसद का शीतकालीन सत्र चल रहा था, पांच हथियारबंद आदमी एक इम्प्रोवाइज्ड एक्सप्लोसिव डिवाइस लगी एक सफेद एंबेस्डर कार में आए और इसके दरवाजों से दाखिल हुए. बजाहिर तौर पर, वो सेक्योरिटी को पार कर गए, क्योंकि उनकी विंडस्क्रीन पर गृह मंत्रालय का एक फर्जी स्टीकर लगा था, जिसकी दूसरी तरफ लिखा था:

भारत एक बेहद बुरा देश है और हम भारत से नफरत करते हैं हम इसको तबाह करना चाहते हैं और ईश्वर ने चाहा तो हम ऐसा कर देंगे ईश्वर हमारे साथ है और हम इसकी पूरी कोशिश करेंगे. यह मूरख वाजपेयी और आडवाणी हम उन्हें मार डालेंगे. इन्होंने अनेक बेगुनाह लोगों को मारा है और वो बहुत खराब लोग हैं. उनका भाई बुश भी एक बहुत बुरा इंसान है और वह हमारा अगला निशाना होगा वह भी बेगुनाह लोगों का हत्यारा है उसे मरना होगा और हम ये करेंगे

जब इन आदमियों को चुनौती दी गई, वो कार से कूद पड़े और गोलियां चलाने लगे. इसके बाद हुई गोलीबारी में सभी हमलावर, आठ सेक्योरिटी जवान और एक माली मारा गया. तब के प्रधानमंत्री एबी वाजपेयी (वे भी आरएसएस के सदस्य थे) ने, सिर्फ एक ही दिन पहले, चिंता जताई थी कि संसद पर हमला हो सकता है. एलके आडवाणी ने, जो उस वक्त गृह मंत्री थे, हमले की तुलना 9/11 हमलों से की. उन्होंने कहा कि वो लोग “पाकिस्तानियों की तरह दिख रहे थे.” चौदह साल बाद, हम अब भी नहीं जानते कि वो लोग असल में कौन थे. उनकी सही-सही पहचान होनी अब भी बाकी है.

कुछ ही दिनों के भीतर 16 दिसंबर को दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल ने ऐलान किया कि इसने मामले को हल कर लिया है. इसने कहा कि यह हमला पाकिस्तान स्थित दो आतंकवादी संगठनों लश्कर-ए-तैयबा और जैश-ए-मुहम्मद की मिली-जुली कार्रवाई थी. तीन कश्मीरी लोगों एसएआर गीलानी, शौकत हुसैन गुरु और मुहम्मद अफजल गुरु को भी गिरफ्तार कर लिया गया. स्पेशल सेल ने मीडिया को बताया कि भारत में इसके मास्टरमाइंट गीलानी थे जो दिल्ली विश्वविद्यालय में अरबी के एक युवा प्रोफेसर थे. (आगे चल कर अदालतों ने उन्हें बरी कर दिया.) 21 दिसंबर को खुफिया सूचनाओं के आधार पर भारतीय सरकार ने पाकिस्तान के साथ हवाई जहाज, रेल और बस की आवाजाही पर रोक लगा दी , अपने आसमान में उसकी उड़ानों पर प्रतिबंध लगा दिए और अपना राजदूत वापस बुला लिया. पांच लाख से ज्यादा सैनिकों को सीमा पर भेज दिया गया और वे कई महीनों तक हाई अलर्ट पर रहे. एक जंग की आशंका में, जो परमाणु युद्ध में भी तब्दील हो सकता था, विदेशी दूतावासों ने अपने नागरिकों के लिए यात्रा के मशविरे जारी किए और अपने स्टाफ वापस बुला लिए.

27 फरवरी 2002 को, जबकि भारतीय और पाकिस्तानी सैनिक एक दूसरे की आंखों में आंखें डाले सीमा पर खड़े थे और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण चरम पर था, अयोध्या से लौटते 58 कार सेवक गुजरात के गोधरा शहर के स्टेशन के ठीक बाहर अपनी बोगियों में जिंदा जला दिए गए. गुजरात पुलिस ने कहा कि बोगियों में आग बाहर से गुस्साए हुए स्थानीय मुसलमानों की एक भीड़ द्वारा लगाई गई थी. (बाद में स्टेट फोरेंसिक लैब ने दिखाया कि कैसे मामला यह नहीं था.) एलके आडवाणी ने कहा कि “बाहरी तत्व” भी इसमें शामिल हो सकते हैं. कारसेवकों की लाशें, जो पहचान से परे जल चुकी थीं, जनता द्वारा श्रद्धांजली देने के लिए अहमदाबाद ले आई गईं.
 

इसके बाद जो हुआ वो बखूबी जाना हुआ है. (और बखूबी भुला दिया गया भी, क्योंकि कल के धर्मांधों को हमें आज का उदारवादी कह कर बेचा जा रहा है.) इसलिए थोड़े में कहते हैं: फरवरी और मार्च 2002 में गुजरात जलता रहा और पुलिस हाथ पर हाथ धरे देखती रही. शहरों में और गांवों में संगठित हिंदुत्व भीड़ ने मुसलमानों की दिनदहाड़े हत्याएं कीं. औरतों के साथ बलात्कार हुए और उन्हें जिंदा जलाया गया. नवजात बच्चों को तलवारों की भेंट चढ़ाया गया. मर्दों के टुकड़े-टुकड़े किए गए. पूरे के पूरे मुहल्ले जला कर राख कर दिए गए. हजारों मुसलमानों को उनके घरों से खदेड़ कर शरणार्थी शिविरों में भेज दिया गया. कत्लेआम कई हफ्तों तक चलता रहा.
 

भारत में इसके पहले भी कत्लेआम हुए हैं, जो उतने ही घिनौने, उतने ही नाकाबिले-माफी रहे हैं, जिनमें मारे गए लोगों की तादाद इससे कहीं ज्यादा रही है: नेल्ली, असम में 1983 में कांग्रेस सरकार के तहत हुआ मुसलमानों का कत्लेआम (मारे गए लोगों की तादाद का अंदाजा आधिकारिक 2000 से लेकर अनाधिकारिक रूप से इसका दोगुना तक है); इंदिरा गांधी की 1984 में हुई हत्या के बाद कांग्रेस के नेतृत्व वाली भीड़ द्वारा करीब 3000 सिखों का कत्लेआम (जिसे जायज ठहराते हुए राजीव गांधी ने, जो आगे चल कर प्रधानमंत्री बने, कहा था, “जब एक बड़ा पेड़ गिरता है तो धरती हिलती है”); बाबरी मस्जिद गिराए जाने के बाद 1993 में मुंबई में शिवसेना द्वारा सैकड़ों मुसलमानों का कत्लेआम. इन सभी कत्लेआमों में भी हत्यारों को बचाया गया और उन्हें पूरी छूट हासिल थी.

लेकिन गुजरात 2002 का कत्लेआम मास मीडिया के दौर का कत्लेआम था. इसके पीछे के विचारधारात्मक आधार को युद्ध की तड़क-भड़क के साथ दिखाया गया. आने वाले दिनों में कत्लेआम अतीत के कत्लेआमों से किस कदर अलग होंगे इसकी निशानी इस कत्लेआम को जायज ठहराने के तरीकों में थी. यह पुराने कत्लेआमों की निरंतरता तो थी ही, एक नए की शुरुआत भी थी. हमें, अवाम को, बहुत साफ साफ नोटिस दे दी गई. बातों को छिपाने का जमाना जा चुका था.

गुजरात का कत्लेआम, इस्लाम या मुसलमानों से नफरत करने या उनके प्रति पूर्वाग्रह रखने (इस्लामोफोबिया) के अंतरराष्ट्रीय माहौल से बखूबी मेल खाता था. वार ऑन टेरर (आतंक के खिलाफ युद्ध) का ऐलान हो चुका था. अफगानिस्तान पर बम गिराए जा चुके थे. इराक पहले से ही निशाने पर था. महीनों चलने वाले इस कत्लेआम के बाद गुजरात में ताजा चुनावों की घोषणा हुई. मोदी ने इसे आसानी से जीत लिया. उनके पहले कार्यकाल के कुछ ही बरसों के भीतर 2002 कत्लेआम में शामिल कुछ लोग कैमरे के सामने खुशी-खुशी इसके बारे में बताते हुए देखे गए कि कैसे उन्होंने लोगों को काटा, जलाया और गोद-गोद कर मारा. फुटेज राष्ट्रीय खबरों में दिखाई गई. इससे राज्य में मोदी की शोहरत में इजाफा ही हुआ, जहां उन्होंने अगले दो चुनाव भी जीत लिए, इसी दौरान उन्होंने बड़े कॉरपोरेशनों के कई प्रमुखों का समर्थन भी पुख्ता कर लिया और 12 बरसों तक मुख्यमंत्री रहे.

एक तरफ मोदी एक ताकत से दूसरी ताकत का सफर तय कर रहे थे, वहीं उनकी पार्टी केंद्र में लड़खड़ा गई. 2004 के आम चुनावों में इसके “भारत उदय” के अभियान को लोगों ने एक क्रूर मजाक के रूप में लिया और हैरान करते हुए कांग्रेस वापस लौटी. भाजपा केंद्र में 10 बरसों के लिए सत्ता से बाहर रही.

आरएसएस ने खुद को एक ऐसे संगठन के रूप में पेश किया है, जो बाधाओं में भी आगे बढ़ता है. माहौल ऐसा था, जिसे “खराब” के रूप में जाना जाता है. 2003 और 2009 के बीच ट्रेनों, बसों, बाजारों, मस्जिदों और मंदिरों में बम धमाकों और आतंकी हमलों का सिलसिला चला, जिनमें अनगिनत मासूम लोग मारे गए. इन हमलों के बारे में सोचा गया कि वो इस्लामी आतंकवादी समूहों द्वारा किए गए हैं. उनमें से सबसे बदतर 2008 के मुंबई हमले थे, जिनमें पाकिस्तान के लश्कर-ए-तैयबा के मिलिटेंटों ने 164 लोगों को मार डाला और 300 से ज्यादा को जख्मी किया.

सभी हमले असल में वैसे नहीं थे, जैसा उन्हें बताया गया. आगे जो दिया जा रहा है, वह उन घटनाओं में से कुछ की एक अधूरी फेहरिश्त है, एक बानगी भर है: 15 जून 2004 को इशरत जहां नाम की एक युवती और तीन मुसलमानों को गुजरात पुलिस ने गोली मार कर हत्या कर दी, उसने कहा कि वे मोदी की हत्या करने के अभियान पर निकले लश्कर-ए-तैयबा के लोग थे. केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) ने कहा कि “मुठभेड़” गढ़ी हुई थी और सभी चारों पीड़ितों को पकड़ कर सोच-समझ कर उनकी हत्या की गई थी. 23 नवंबर 2005 को एक मुसलमान दंपती सोहराबुद्दीन शेख और उनकी बीवी कौसर बी को गुजरात पुलिस ने एक पब्लिक बस से उतार लिया. तीन दिनों बाद बताया गया कि शेख अहमदाबाद में एक “मुठभेड़” में मारे गए हैं. पुलिस ने कहा कि वो लश्कर-ए-तैयबा के लिए काम करते थे और उन्हें शक था कि वो मोदी की हत्या करने के अभियान पर थे. कौसर बी की हत्या दो दिनों के बाद की गई. शेख की हत्या के एक गवाह तुलसीराम प्रजापति को भी एक साल बाद एक पुलिस मुठभेड़ में मार दिया गया. गुजरात पुलिस के अनेक वरिष्ठ अधिकारी इन हत्याओं के लिए मुकदमे का सामना कर रहे हैं (उनमें से एक पीपी पाण्डेय को हाल ही में गुजरात का पुलिस महानिदेशक नियुक्त किया गया है). 18 फरवरी 2007 को समझौता एक्सप्रेस, दिल्ली और पाकिस्तान के अटारी के बीच हफ्ते में दो बार चलने वाली एक “दोस्ती की ट्रेन” में एक बम धमाका हुआ और 68 लोग मारे गए, जिनमें से ज्यादातर पाकिस्तानी थे. सितंबर 2008 में मालेगांव और मोदास्सा शहरों में तीन बम धमाके हुए. इन मामलों में गिरफ्तार लोगों में अनेक, जिनमें वनवासी कल्याण आश्रम के स्वामी असीमानंद भी शामिल हैं, आरएसएस के सदस्य थे. (तफ्तीश का नेतृत्व करने वाले महाराष्ट्र एंटी-टेररिस्ट स्क्वाड के मुखिया, पुलिस अधिकारी हेमंत करकरे, 2008 में मुंबई हमलों के दौरान गोलियों से मारे गए. कहानी के भीतर की कहानी के लिए पढ़िए महाराष्ट्र के रिटायर्ड पुलिस महानिरीक्षक एसएम मुशरिफ की हू किल्ड करकरे?)

ईसाइयों पर हमले भी जारी रहे. उनमें से सबसे उग्र हमला 2008 में उड़ीसा के कांधमाल का था. नब्बे ईसाई (सभी दलित) मार डाले गए और 50,000 से ज्यादा लोगों को उजाड़ दिया गया. त्रासदी ये थी कि जिस भीड़ ने उन पर हमला किया, वो नए नए “हिंदू बने” आदिवासी थे, जिन्हें घेर कर अभी-अभी संघ परिवार के हत्यारे दस्तों में भर्ती किया गया था.

कांधमाल के ईसाई अभी भी खतरे में जी रहे हैं, उनमें से ज्यादातर अपने घरों को नहीं लौट सकते. दूसरे राज्यों, जैसे छत्तीसगढ़ और झारखंड में भी ईसाई लगातार खतरे में जीते हैं.

2013 में, भाजपा ने घोषणा की कि मोदी 2014 के आम चुनावों के लिए उसके प्रधान मंत्री के उम्मीदवार होंगे. इस अभियान के दौरान, उनसे पूछा गया कि क्या उनकी हुकूमत में गुजरात में 2002 में जो कुछ हुआ था, उस पर उन्हें कोई पछतावा है. “कोई भी शख्स, अगर हम एक कार चला रहे हैं, हम एक ड्राइवर हैं, और कोई और कार चला रहा है और हम पीछे बैठे हैं,” उन्होंने रायटर्स के एक पत्रकार से कहा, “तब भी अगर एक पिल्ला पहिए के नीचे आ जाता है, तो यह दर्दनाक होगा कि नहीं? बेशक होगा. अगर मैं एक मुख्यमंत्री हूं या नहीं भी पर मैं एक इंसान हूं. अगर कहीं कुछ बुरा होता है, तो उदास होना स्वाभाविक है.”

मीडिया ने फर्ज अदा करते हुए गुजरात के कत्लेआम को एक बासी खबर के रूप में दूर ही रखा. अभियान अच्छा चला. मोदी को “गुजरात मॉडल” के शिल्पकार के रूप में अपनी पहचान बनाने की छूट मिली. कहा गया कि यह मॉडल गतिशील आर्थिक विकास की एक मिसाल है. वो कॉरपोरेट भारत के सबसे चहेते उम्मीदवार बने – नए भारत की इच्छाओं के साकार रूप, जमीन पर उतरने का इंतजार कर रहे एक आर्थिक चमत्कार के शिल्पकार. उनके चुनाव में खजाना लुटा दिया गया, जिसमें चुनाव आयोग के मुताबिक कुल 11.5 करोड़ डॉलर – 700 करोड़ रुपयों से ज्यादा – की लागत आई.

लेकिन प्रचार की तड़क-भड़क और 3डी डायग्रामों के पीछे चीजें बहुत नहीं बदली थीं. उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर नाम के एक जिले में असली गुजरात मॉडल का जांचा-परखा संस्करण चुनाव की रणनीति के रूप में फिर से खड़ा किया गया. तकनीक ने अपनी भूमिका निभाई. (आने वाले वक्त में इसे बार बार दोहराया जाना था.) यह सब एक ऐसी बात को लेकर एक झगड़े से शुरू हुआ, जिसे तब “लह-जिहाद” कहा जा रहा था – यह एक ऐसी धारणा थी जो आबादी को लेकर उस पुरानी चिंता से सीधे-सीधे खेल रही थी. हिंदुओं से कहा गया कि मुसलमानों का “लव-जिहाद” अभियान हिंदू लड़कियों को रोमांटिक तरीके से फंसा कर उन्हें इस्लाम धर्म कबूलवाने का मामला है. अगस्त 2013 में एक हिंदू लड़की को छेड़ने के आरोप में एक मुसलमान लड़के को दो जाटों ने मार डाला. इसपर हुए पलटवार में दो जाटों की हत्या कर दी गई. एक मुसलमान दिखने वाली भीड़ द्वारा एक आदमी को पीट-पीट कर मार देने का एक वीडियो फेसबुक पर और मोबाइल नेटवर्कों पर खूब शेयर किया गया. असल में यह घटना पाकिस्तान के सियालकोट में घटी थी. लेकिन ऐसा कहा गया कि वीडियो में एक स्थानीय घटना को दर्ज किया गया है, जिसमें मुसलमानों ने एक हिंदू लड़के की पीट-पीट कर हत्या दी है. वीडियो से भड़के हुए हिंदू जाट किसानों ने तलवारों और बंदूकों से लैस होकर स्थानीय मुसलमानों पर हमला कर दिया, जिनके साथ वे सदियों से रहते और काम करते आए थे. अगस्त और सितंबर 2013 के दौरान, आधिकारिक अनुमानों के मुताबिक 62 लोग मारे गए थे – 42 मुसलमान और 20 हिंदू. गैर आधिकारिक अनुमान मारे गए मुसलमानों की तादाद 200 से ज्यादा बताते हैं. हजारों मुसलमानों को अपनी जमीन से भाग कर शरणार्थी शिविरों में चले जाने को मजबूर किया गया. और, बेशक, अनेक महिलाओं का बलात्कार किया गया.

अप्रैल 2014 में आम चुनावों से ठीक पहले, तब भाजपा के महासचिव और अब पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ने (जिन्हें सोहराबुद्दीन शेख मामले में गिरफ्तार किया गया था, लेकिन विशेष अदालत ने उन्हें छोड़ दिया था), मुजफ्फरनगर की सीमा से लगे एक जिले में जाटों की एक सभा को संबोधित किया. “उत्तर प्रदेश में, खास कर पश्चिमी उत्तर प्रदेश में, यह चुनाव इज्जत के लिए है,” उन्होंने कहा. “यह अपमान के लिए बदला लेने का एक चुनाव है. यह चुनाव उन्हें सबक सिखाने के लिए है, जिन्होंने अन्याय किया है.” एक बार फिर तरकीब काम आई. उत्तर प्रदेश भाजपा की झोली में जा गिरा, जिसकी संसद में सबसे बड़ी हिस्सेदारी है.

इन सबके बीच ऐसा लगा कि, कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार ने जिन ईमानदार प्रगतिशील कानूनों को आगे बढ़ाया था – जैसे सूचना का अधिकार और राष्ट्रीय ग्रामीम रोजगार गारंटी अधिनियम, जो सबसे गरीब लोगों के लिए सचमुच थोड़ी सी राहत लेकर आए थे, उन कानूनों में की गई हेर-फेर कोई मायने ही नहीं रखती हो. सत्ता से दस साल तक बाहर रहने के बाद भाजपा ने अकेले बहुमत हासिल किया. नरेंद्र मोदी दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के प्रधानमंत्री बने. एक ऐसे चुनाव अभियान में, जहां दिखावा ही सबकुछ था, वो अपने शपथ ग्रहण के लिए अहमदाबाद से दिल्ली तक अडानी ग्रुप के एक निजी जेट में आए. जीत इतनी निर्णायक थी, जीत के जश्न इतने आक्रामक थे कि ऐसा लग रहा था मानो हिंदू राष्ट्र की स्थापना में बस कुछ ही हफ्तों की देर है.

सत्ता पर मोदी की चढ़ाई एक ऐसे वक्त में हुई, जब बाकी की दुनिया अव्यवस्था में धंस रही थी. अफगानिस्तान, इराक, लीबिया, सोमालिया, दक्षिण सूडान और सीरिया. अरब में बसंत आया और उल्टे पांव लौट गया. वार ऑन टेरर की वह खौफनाक औलाद आईएसआईएस उभर रहा था, जिसके आगे तालिबान और अल-कायदा भी उदारवादी लगने लगे. . यूरोप का शरणार्थी संकट शिखर पर भले न पहुंचा हो, गहराने लगा था. पाकिस्तान गंभीर मुश्किल में था. इसके उलट भारत गर्मजोशी से भरा, नरम, शरारती, मुंबइया फिल्मों जैसा, मुक्त-बाजार-के-प्रति-दोस्ताना लोकतंत्र दिखाई दे रहा था, जो कारगर था. लेकिन यह तो सिर्फ बाहर से दिखने वाला नजारा था.
शपथ लेते ही नए प्रधानमंत्री ने इस किस्म का उन्माद दिखाना शुरू किया, जिसकी उम्मीद आप एक ऐसे इंसान से करेंगे जो जानता हो कि उसके ढेर सारे दुश्मन हैं और जो अपने ही संगठन पर भरोसा नहीं करता. उनका पहला कदम भाजपा के भीतर आडवाणी के नेतृत्व वाले एक गुट की ताकत को खत्म करने और उसे बेकार बनाने का था, जिसे वो एक खतरे के रूप में देखते थे. उन्होंने सरकार में फैसले लेने की काफी सारी ताकत अपने हाथ में रखी और फिर चक्कर ला देने वाले दुनिया के एक सफर पर निकल पड़े (जो अभी खत्म नहीं हुआ है), जिस दौरान वे कभी-कभी भारत में भी थोड़े वक्त के लिए ठहर जाते हैं. एक वैश्विक नेता के रूप में देखे जाने की मोदी की निजी महत्वाकांक्षा, जल्दी ही उस संगठन की हदों को पार करने लगी, जिसने उन्हें पाला-पोसा था और जो अपने को आगे बढ़ाने की हरकतों को नरमदिली से नहीं लेता. जनवरी 2015 में उन्होंने संयुक्त राज्य के राष्ट्रपति बराक ओबामा का स्वागत एक ऐसे सूट में किया, जिसकी कीमत दस लाख रूपए से ज्यादा थी, जिसमें बनी धारियां, बारीक धागों से बुने गए उनके नाम से बनी थीं:narendradamodardasmodinarendradamodardasmodi. साफ तौर पर यह एक ऐसा शख्स था, जो अपने ही प्यार में पड़ा हुआ था – जो अब सिर्फ एक मजदूर मधुमक्खी नहीं रह गया था, एक सीधा-सादा सेवक भर नहीं था. ऐसा दिखने लगा मानो आसमान में चढ़ने के लिए इस्तेमाल की गई सीढ़ियों को फेंका जा रहा हो.

मोदीमोदी सूट को आखिरकार नीलामी पर लगाया गया और उसे एक प्रशंसक ने 4.3 करोड़ रु. में खरीद लिया. इस बीच यह कार्टूनिस्टों और सोशल मीडिया पर कुछ गंभीर मजाक की वजह भी बना. जिस आदमी से खौफ खाया जाता था, पहली बार उस पर हंसा जा रहा था. अपनी बखिया उधड़ने के एक महीने बाद मोदी को पहले बड़े झटके का अनुभव भी हुआ. फरवरी 2015 दिल्ली राज्य के चुनावों में, उन्होंने भले ही अथक प्रचार अभियान चलाया था, अनुभवहीन आम आदमी पार्टी ने 70 में 67 सीटें जीत लीं. 2002 के बाद यह पहला चुनाव था, जब मोदी हारे थे. एकबारगी ही नया नेता भुरभुरा और गैरभरोसेमंद दिखने लगा था.

इसके बावजूद, बाकी देश में हत्यारे और घात लगा कर हत्याएं करनेवाले जिन लोगों को सत्ता में ले आए थे, उनका समर्थन अपने साथ होने की वजह से बेखौफ होकर उन्होंने अपना खूनी खेल जारी रखा. फरवरी 2015 में एक लेखक और भारत की कम्युनिस्ट पार्टी के एक अहम सदस्य गोविंद पानसरे की महाराष्ट्र के कोल्हापुर में गोली मार कर हत्या कर दी गई. 30 अगस्त 2015 को जाने-माने कन्नड़ तर्कवादी और विद्वान एमएम कलबुर्गी को कर्नाटक में धारवाड़ के उनके घर के बाहर हत्या कर दी गई. दोनों आदमियों को उग्रवादी दक्षिणपंथी हिंदू संगठनों से कई बार धमकियां मिल चुकी थीं और उन्हें लिखना बंद करने को कहा गया था.

सितंबर 2015 में दिल्ली के करीब ही एक गांव दादरी में एक मुस्लिम परिवार के घर के बाहर एक भीड़ जमा हुई. भीड़ दावा कर रही थी कि परिवार ने गोमांस खाया है (जो गो हत्या पर प्रतिबंध का उल्लंघन है, जिसे उत्तर प्रदेश और कई दूसरे राज्यों में थोपा गया है). परिवार ने इससे इन्कार किया. भीड़ ने उनकी बात पर भरोसा करने से मना कर दिया. मुहम्मद अखलाक को उनके घर से बाहर खींच लाया गया और उन्हें पीट-पीट कर मार दिया गया. नए निजाम के हत्यारे ढीठ थे. उन्हें कोई पछतावा नहीं था. हत्या के बाद संघ परिवार के वफादारों ने प्रेस में “गैरकानूनी वध” की बात की, उनका मतलब काल्पनिक गाय से था. जब उन्होंने “फोरेंसिक जांच के लिए सबूत लेने” की बात की तो उनका मतलब परिवार के फ्रिज में रखे भोजन से था, न कि पीट-पीट कर मार दिए गए शख्स की लाश से. पता लगा कि अखलाक के घर से लिया गया मांस गोमांस ही नहीं था. लेकिन इससे क्या होता है?

इसके कई दिनों बाद तक ट्विटर-प्रेमी प्रधानमंत्री ने कुछ भी नहीं कहा. दबाव में उन्होंने एक कमजोर सी, आंसुओं से डबडबाई हुई फटकार जारी की. तब से ऐसी ही अफवाहों के नतीजे में दूसरे कई लोग मारे जाने की हद तक पीटे गए हैं, यहां तक कि उन्हें फांसी पर लटका तक दिया गया है. मुसलमान जानते हैं कि उनके सतानेवालों को पूरी छूट मिली हुई है और एक छोटी सी झड़प भी एक पूरे कत्लेआम को भड़का सकती है. उम्मीद की जाती है एक पूरी की पूरी आबादी अपने में सिमटे हुए खौफ में जीती रहे. और हम जानते हैं कि यह एक नामुमिकन सी बात है. हम करीब 17 करोड़ लोगों के बारे में बात कर रहे हैं.

(जारी)

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