Anwar Suhail
हम नहीं जानते थे जाकिर नाइक को
हम जानना भी नहीं चाहते जाकिर नाइक को
क्योंकि और भी गम हैं जमाने में मजहब के सिवा
जितना मजहब हम जानते हैं
उसे निभा नहीं पाने का गुनाह लादे सो जाते हैं चुपचाप
कि पहली फुर्सत जब भी मिलेगी
पढ़ लेंगे नमाज़...कर लेंगे तिलावते-कुरआन...
रख लेते हैं रोज़े कि इसमें भूखे-प्यासे ही तो बिताना पड़ता है दिन
और किसी काम में बाधा भी नहीं आती
हम जानते हैं कि बालिग़ हो जाने के बाद
एक मुसलमान को मजहबी हो जाना चाहिए
लेकिन आसपास का जीवन
मुल्तवी कराता जाता है मजहबी ज़रूरतों को
हम जानना भी नहीं चाहते जाकिर नाइक को
क्योंकि और भी गम हैं जमाने में मजहब के सिवा
जितना मजहब हम जानते हैं
उसे निभा नहीं पाने का गुनाह लादे सो जाते हैं चुपचाप
कि पहली फुर्सत जब भी मिलेगी
पढ़ लेंगे नमाज़...कर लेंगे तिलावते-कुरआन...
रख लेते हैं रोज़े कि इसमें भूखे-प्यासे ही तो बिताना पड़ता है दिन
और किसी काम में बाधा भी नहीं आती
हम जानते हैं कि बालिग़ हो जाने के बाद
एक मुसलमान को मजहबी हो जाना चाहिए
लेकिन आसपास का जीवन
मुल्तवी कराता जाता है मजहबी ज़रूरतों को
मस्जिदों के इमाम टोकते रहते हैं तकरीरों में
धिक्कारते रहते हैं मजहब से दूरी बनाये हम जैसे लोगों को
जब भी पा जाते हैं जुमा की नमाज़ में या ईद-बकरीद में
रोना रोते हैं कि मस्जिदें नमाजियों की राह तकते वीरान रहती हैं
और मुसलमान बाज़ारों में, सिनेमाघरों में खूब पाए जाते हैं
लानतें हम पर कि जैसे इस्लाम के लाइसेंस का
नवीनीकरण कराने जाते मस्जिदों में
सफ़ेद लकदक कुरता-पैजामा और टोपी पहनके
ऐसे कि पहचान नहीं पाते इस वेशभूषा में हमारे संगी-साथी
धिक्कारते रहते हैं मजहब से दूरी बनाये हम जैसे लोगों को
जब भी पा जाते हैं जुमा की नमाज़ में या ईद-बकरीद में
रोना रोते हैं कि मस्जिदें नमाजियों की राह तकते वीरान रहती हैं
और मुसलमान बाज़ारों में, सिनेमाघरों में खूब पाए जाते हैं
लानतें हम पर कि जैसे इस्लाम के लाइसेंस का
नवीनीकरण कराने जाते मस्जिदों में
सफ़ेद लकदक कुरता-पैजामा और टोपी पहनके
ऐसे कि पहचान नहीं पाते इस वेशभूषा में हमारे संगी-साथी
ऐसे ही किस्सा-कविताई करते, गाते-गुनगुनाते
आसान ज़िन्दगी की सुविधाएं जुटाते बिता रहे थे दिन
कि अचानक जाने कहाँ से हवा में ये नाम उछला जाकिर नाइक का
और इस नाम को जोड़ दिया गया हमसे इस तरह
जैसे इस व्यक्ति को हम मानते हों कोई धर्म-गुरु
जैसे इस व्यक्ति की तकरीरों को सुनकर बनते जाते हों आतंकवादी
क्योंकि इस दशक में ये साबित हुआ है
कि हर मुसलमान आतंकवादी नहीं है
लेकिन हर आतंकवादी मुस्लिम ज़रूर है....
आसान ज़िन्दगी की सुविधाएं जुटाते बिता रहे थे दिन
कि अचानक जाने कहाँ से हवा में ये नाम उछला जाकिर नाइक का
और इस नाम को जोड़ दिया गया हमसे इस तरह
जैसे इस व्यक्ति को हम मानते हों कोई धर्म-गुरु
जैसे इस व्यक्ति की तकरीरों को सुनकर बनते जाते हों आतंकवादी
क्योंकि इस दशक में ये साबित हुआ है
कि हर मुसलमान आतंकवादी नहीं है
लेकिन हर आतंकवादी मुस्लिम ज़रूर है....
मीडिया उछालता है नाम जाकिर नाईक का इस तरह
कि लादेन या अल-बगदादी से भी खतरनाक हो जाता है जाकिर नाइक
बच्चे गूगल करने लगते हैं और पाते हैं कि ज़बरदस्त अंग्रेजी में
दाढ़ी-टोपी और कोट-पेंट-टाई में एक व्यक्ति
कुरआन, वेद, बाइबिल आदि ग्रन्थों से सन्दर्भ सहित उद्धरण
इस तेज़ी से बोलता है कि यकीन नहीं होता
कि ये कोई इंसान है या रोबोट
जो धडाधड पेश करता है दलीलें इस तरह
कि इस्लाम ही दुनिया का सर्व-श्रेष्ठ धर्म है...
कि लादेन या अल-बगदादी से भी खतरनाक हो जाता है जाकिर नाइक
बच्चे गूगल करने लगते हैं और पाते हैं कि ज़बरदस्त अंग्रेजी में
दाढ़ी-टोपी और कोट-पेंट-टाई में एक व्यक्ति
कुरआन, वेद, बाइबिल आदि ग्रन्थों से सन्दर्भ सहित उद्धरण
इस तेज़ी से बोलता है कि यकीन नहीं होता
कि ये कोई इंसान है या रोबोट
जो धडाधड पेश करता है दलीलें इस तरह
कि इस्लाम ही दुनिया का सर्व-श्रेष्ठ धर्म है...
अतीतजीवी लोग पसंद करते होंगे जाकिर नाइक को
लेकिन हम पसंद नहीं करते उसे सिर्फ इसलिए
कि हम सर्वश्रेष्ठ हैं तो फिर इसे साबित करने की क्या ज़रूरत भाई....
और थोड़ी से तनख्वाह पर टिके मुहल्ले की मस्जिद के मौलवी से
जाकिर नाईक कतई श्रेष्ठ नहीं हो सकता
क्योंकि नमाज़ी आयें या न आयें लेकिन प्रतिदिन पांच बार
बिना नागा देते हैं अज़ान मौलवी
हय्या अलल फ़लाह...हय्या अलल फ़लाह...
भलाई की तरफ आओ...भलाई की तरफ आओ...
इस अज़ान को सुनके भी हम अनसुना कर देते हैं
और रोज़मर्रा के उलझनों में फंसे रहते हैं
फिर भी मौलवी नाराज़ नहीं होते और मिलने पर
नमाज़ पढने, मस्जिद आने की दावत ज़रूर देते हैं...
लेकिन हम पसंद नहीं करते उसे सिर्फ इसलिए
कि हम सर्वश्रेष्ठ हैं तो फिर इसे साबित करने की क्या ज़रूरत भाई....
और थोड़ी से तनख्वाह पर टिके मुहल्ले की मस्जिद के मौलवी से
जाकिर नाईक कतई श्रेष्ठ नहीं हो सकता
क्योंकि नमाज़ी आयें या न आयें लेकिन प्रतिदिन पांच बार
बिना नागा देते हैं अज़ान मौलवी
हय्या अलल फ़लाह...हय्या अलल फ़लाह...
भलाई की तरफ आओ...भलाई की तरफ आओ...
इस अज़ान को सुनके भी हम अनसुना कर देते हैं
और रोज़मर्रा के उलझनों में फंसे रहते हैं
फिर भी मौलवी नाराज़ नहीं होते और मिलने पर
नमाज़ पढने, मस्जिद आने की दावत ज़रूर देते हैं...
हमें जाकिर नाइक में कोई दिलचस्पी नहीं है भाई
हमें लादेन या अल-बगदादी से कोई लेना-देना नहीं है
फिर क्यों हमपे किया जाता है शक
क्यों चिढाया जाता है आये दिन
इनके-उनके किये गुनाहों की सज़ा हम कब तक भोगने को अभिशप्त रहेंगे
कोई तो बताओ...कोई तो बताओ...
(10/7/2016)
हमें लादेन या अल-बगदादी से कोई लेना-देना नहीं है
फिर क्यों हमपे किया जाता है शक
क्यों चिढाया जाता है आये दिन
इनके-उनके किये गुनाहों की सज़ा हम कब तक भोगने को अभिशप्त रहेंगे
कोई तो बताओ...कोई तो बताओ...
(10/7/2016)
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