Thursday, July 7, 2016

चिल्कॉट रिपोर्ट से इराक युद्ध का सच सामने है..

चिल्कॉट रिपोर्ट से इराक युद्ध का सच सामने है..
Bhaskar Upreti
इंटर की परीक्षा पास कर मैं कॉलेज पहुंचा तो वहां इराक पर होने जा रहे दूसरे युद्ध की तैयारी के खिलाफ कुछ छात्र-छात्राएं प्रदर्शन कर रहे होते थे. इराक युद्ध से मेरी दिलचस्पी विश्व-राजनीति में बढ़ी, मैं बी.एससी. छोड़ बी.ए. का छात्र हो गया. लेकिन तब ग्रेजुएशन में विदेश नीति जैसा विषय नहीं पढ़ाया जाता था. और गुरुजी अख़बार में लोकल खबरों के अलावा कुछ नहीं पढ़ते थे. पुखराज जैन ने जो लिख दिया था, उससे आगे कुछ नहीं घटा. सो किसी तरह पत्र-पत्रिकाओं के सहारे यह जिज्ञासा शांत करने की कोशिश करता. जुपिटर के खर्कवाल साब के यहाँ से 'फ्रंटलाइन' और 'मेनस्ट्रीम' खरीद तो लाता मगर भेजे में नहीं घुसती. 'इंडिया टुडे' का मसाला कम लगता, जबकि 'प्रतियोगिता दर्पण' के निबंध सूचनाओं के जाल में उलझा देते. उसी समय देश में प्राइवेट चैनलों की बरसात हुई. 1992 आते-आते और युद्ध शुरू होते तक 'आज तक' सबसे आगे हो गया और अंग्रेजी का सी.एन.एन. और स्टार चैनल युद्ध की रोमांचक तस्वीरें जारी कर रहा था. बी.बी.सी. तो जाहिर में दिलचस्प खबरें सुना ही रहा था. 
तो इराक युद्ध के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे मुट्ठी-भर छात्र-छात्राएं अब इराक युद्ध को तेल की राजनीति का खेल बताने लगे थे. उनसे बहस करते-करते मेरी दिलचस्पी विश्व-राजनीति के साथ विश्व-अर्थव्यवस्था में बढ़ने लगी. मैं बहस करते-करते कब खुद प्रदर्शनकारी बन गया मुझे भी मालूम नहीं. 
हालाँकि तब के 'देशभक्त छात्र' इस छोटे से समूह को यह कहकर मजाक उड़ाते कि 'चीन में बारिश हो तो ये यहाँ छाता ओड़ लेते हैं'. इराक के बहाने चीन पर तंज की वाजिब वजह समझी जा सकती थी, क्यूंकि यही छोटा छात्र समूह 'बाबरी मस्जिद-राम मंदिर विवादित स्थल' को गिराने की मजम्मत करता था. यह समूह नारा देता- 'मंदिर नहीं रोजगार दो'. जबकि 'देशभक्त' छात्र देश ही बात करने, उसे हिंदुओं का देश कहने और मंदिर बनाने की बात कह रहे थे. हालाँकि बाद के दिनों में छाता ओड़ने वाले छात्र कम होते गए, अलगाव के शिकार हुए और अब लगभग कहीं नहीं हैं. जबकि 'देशभक्त' छात्रों की चल निकली. आज वे राजसत्ता की कई शाखाओं में चढ़कर 'राष्ट्र-निर्माण' की हवा बहा रहे हैं.
तो आज एन.डी.टी.वी. पर रवीश ने प्राइम टाइम में इराक युद्ध की हकीकत बयां करती चिल्कॉट रिपोर्ट दिखायी तो फिर वे वह दौर याद आ गया. ब्रिटिश सरकार की खुद की रिपोर्ट कहती है कि तब के प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर ने युद्ध में जाने के जो कारण गिनाये वह सरासर झूठे थे. उन्होंने केबीनेट से, विपक्ष से और देश की जनता से झूठ बोला. वह अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश के साथ मिलकर कोर्पोरेट हित में काम कर रहे थे. अब ब्रिटिश जनता और सांसद उन दोनों के खिलाफ अंतर्राष्ट्रीय कोर्ट में 'युद्ध-अपराधी' का मामला दायर करने जा रहे हैं. लेकिन जो रोचक काम दोनों राष्ट्राध्यक्षों ने किया वह था- मीडिया को माध्यम बनाकर युद्ध का ग्लेमरीकरण. यह पहली बार हुआ था जब कॉर्पोरेट मीडिया को 'देशभक्ति' के काम में लगाया गया.दुनिया को युद्ध की त्रासदी पर आंसू आने के बजाय रोमांच होने लगा. स्टार, सी.एन.एन. और बी.बी.सी. के जो जांबाज रिपोर्टर टैंकों में बैठकर जो रोमांचक तस्वीरें ला रहे थे, वे सब के सब पेड थे और कॉर्पोरेट हित साधने में लगे थे. 'गार्डियन' और 'न्यूयॉर्क टाइम्स' जैसे प्रतिष्ठित अख़बार भी इस भेड़चाल के शिकार बन गए. यहाँ तक कि हमारे यहाँ का खुले नज़रिए का 'दि हिन्दू' भी भ्रामक खबरें छाप रहा था. कुल मिलाकर विश्व मीडिया कॉर्पोरेट कुचक्र की जद में आ गया.
इराक युद्ध हुआ, सद्दाम मारा गया. नाभकीय हथियार आज तक नहीं मिले. युद्ध में इराक-ब्रिटेन और अमेरिका के सैनिकों के साथ करीब ढाई करोड़ इराकी लोग मारे गए. यही नहीं इसके बाद प्रतिशोध करने वाला भावुक इस्लामी जगत 'आतंकवाद' की नयी-नयी और रोचक कहानियां रचने लगा. जिसकी एक बड़ी परिणति वर्ल्ड ट्रेड टावर पर हुए 9/11के हमले के रूप में देखा जा सकता है. फ्रांस जैसा उदार मुल्क भी हमलों से नहीं बच सका. 
इराक के तेल की आग उसके बाद सीरिया, ईरान, मिस्र, अफगानिस्तान और जगह-जगह धमाकों के रूप में फंट रही है. बेक़सूर लोग मारे जा रहे हैं. एक साल पहले पाकिस्तान के पेशावर में स्कूली बच्चों को ही मार दिया था. फिर करांची दहला और अभी-अभी ढाका गूँज उठा है. सिलसिला जारी है. 
प्रकृति से तेल निकालकर अपनी बादशाहत कायम रखने की ब्रिटेन और अमेरिका की लालसा ने एशिया के बड़े हिस्से को युद्ध से भर दिया है. अब यह युद्ध घर-घर और मौहल्ले-मौहल्ले पहुँच गया है. और भी भीतर तक जायेगा. विश्व भर में युद्ध के दीवाने 'देशभक्त' भी उतने ही समृद्ध और शक्तिशाली होकर उभरे हैं. ब्रिटेन ने हाल में अपना ईगो ऊंचा करने के लिए यूरोपियन यूनियन को तलाक दे दिया है, अमेरिका में ट्रम्प का पत्ता चमक उठा है. गुजरात के हत्यारे कहाँ पहुँच गए, बताने की जरूरत नहीं. 'देशभक्त कॉर्पोरेट मीडिया' तो सबसे अधिक मोटा हुआ है. 
अभी यह सिलसिला जारी रहेगा..और जयकारे होंगे..और धमाके होंगे..और टी.आर.पी. उछलेगा.. 
मेरी विश्व-राजनीति में दिलचस्पी कम होती जा रही है.

No comments:

Post a Comment