- औद्योगिक क्रांति के " महानगरीय " विकास मॉडल पूंजीवादी शोषण के गढ़ !
- मंजुल भारद्वाज ( रंगचिन्तक )
४०० साल है औद्योगिक क्रांति का इतिहास , १६०० ई. में आई औद्योगिक क्रांति को मानवीय उत्क्रांति का सबसे बड़ा बदलाव माना गया और इस रूप में प्रस्तुतकिया कि सामंतवादी गुलामी से दुनिया को मुक्त कराने के लिए औद्योगिक क्रांति एक मात्र उपाय और मसीहा है । असल में "औद्योगिक क्रांति " पूंजीवाद काअतिमानवीय दिखने वाला एक खतरनाक , घोर , शोषणवादी उपक्रम है जिसने सामंती सोच को ना केवल मजबूती दी अपितु विज्ञान के आविष्कार को तकनीकदेकर शोषण का गांव या विशेष भौगोलिक स्तर तक सीमित ना करके ग्लोबल बना दिया यानि एक झटके में विश्व को तबाह और बरबाद कर दिया जाये।
दरअसल औद्योगिक क्रांति ने मानव कल्याण की नहीं उसके शोषण की रफ्तार को पहिया और पंख लगायें हैं ।
औद्योगिक क्रांति का टिकना मास प्रोडक्शन पर आश्रित है यानि एक जगह ज्यादा उत्पाद हो और दूसरी जगह खपत - इस उत्पाद और खपत का उद्देश्यमुनाफा है - यानि लाभ - लाभ और किसी भी कीमत पर लाभ , इस लोभी प्रकृति ने दुनिया को एक उपनिवेश बना दिया है । नव धनाड्य लोगों ने कारखाने स्थापितकर मुनाफाखोरी शुरू की । उस मुनाफाखोरी से पूंजी को खड़ा किया और पूरी दुनिया में " पूंजी " की सरकार खड़ा करने की पैरवी की । सभी राजे - राजवाड़ों कोहटाया गया और पूंजीवाद के गर्भ में से नई शासन प्रणाली पैदा हुई जिसे हम " लोकतंत्र " कहते है । यानि लोभ का लोक के लिए तंत्र , ये उपर से बडा निर्मल , सरलऔर लोक कल्याणकारी है , पर भीतर से घोर व्यक्तिवादी व्यवस्था है - यानि एक तरह से राजशाही पर जनमत की मुहर भर है । यानि व्यक्तिवादी मानसिकता कापैराकार " पूंजीवाद " 5 साल में एक बार अपने मानवीय वैज्ञानिक विकास के एजेंडे पर मुहर लगवाता है और फिर जनता को आराम से वैज्ञानिक रूप से लूटता है ।इसके आकडे विश्व के सबसे बडे लोकतंत्र के हर बार चुनावी खर्च में पता चलता है कि यह " लोकतंत्र " लोक का कितना है और पूंजी का कितना - भारत में लोक काकितना विकास हुआ और पूंजीवाद और पूंजीवादियों का कितना यह पूरे विश्व के सामने है ।
यानि पूंजीवाद का " लोकतंत्र " के नाम पर खुला खेल फरुखाबादी चल रहा है । अरे भारत आज एक " बाजार " है - जिसपर पूंजीवाद अपनी पसंद के शासकबिठाता है - और दुनिया एवं भारत की जनता के आँखों में धूल झोकता है । और जनता के पास शोषित होने के शिवाय कोई विकल्प नहीं रहता और विकल्प है तोसरकार बदलने का - यूं तो इस लोकतंत्र का एक संविधान भी है जिसको अमल में लाना सरकार की जबाबदारी और जवाबदारी है पर संविधान लागू होने के ६६ सालमें सभी सरकारों ने संविधान के बजाये पूंजीवाद की सेवा की है और जनता का शोषण ।
सामंती व्यवस्था में राजा जिम्मेदार था जनता की दशा के लिए लेकिन इस पूंजीवादी लोकतंत्र में जनता ही अपनी दशा के लिए जिम्मेदार है । इसलिए मुनाफेको कोई सीधा खतरा नहीं है जैसे राजाओं को तख्ता पलटने का खतरा होता था । अब मुहर यानि सरकार पलटने का जोखिम होता है , जो पूंजीवादी चाहते भी हैताकि जनता का आक्रोश - नई सरकार हमारा कल्याण करेगी की लोकलुभावन उम्मीद में निकल जाये ।
यह लेख इसलिए लिखने की आवश्यकता पड़ी कि अभी तक ये खेल चोरी छुपे होता था लेकिन अब खुलेआम हो गया है । पूंजीवाद ने दुनिया की सभीसमाजवादी सरकारों को ध्वस्त किया और भूमंडलीकरण का दौर चलाया जहाँ खरीद - फ़रोख्त यानि खरीदो और बेचो के राजनैतिक मुल्यों को स्थापित कर दिया ।उसके साथ संस्कृति , श्रद्धा-अंधश्रद्धा , आस्था , धर्म , भगवान और विज्ञान का ऐसा तड़का लगाया कि , मनुष्य सामंतवादी व्यवस्था के भी पहले के रसातल मेंगर्क हो गया ।
जरा बानगी देखिये - अपने आप को आधुनिक कहनेवाला मनुष्य आज कितना हिंसक है । उसने आण्विक अविष्कार को अपनी कब्रगाह बना लिया है , खरीद- फरोख्त अपने आप में कितना हिंसक है - यानि जो बिक सकता है वही जी सकता है - आज विकास के नाम पर - बंधुआ मजदूरी है । बहुराष्ट्रीय कंपनियांदुनिया की संपत्ति पर कब्ज़ा करने वाले चोरों का गिरोह है । अपने मुलाज़िमों को सारी सुख सुविधा के लिए कर्ज़ देते हैं और जिंदगी भर उनसे गुलामी करवाते हैं- वो चाहे भी तो छोड़कर नहीं जा सकता क्योंकि कर्ज़ कैसे चुकायेगा? और उपर से इन चोरों के गिरोह का शगुफा वी आर लिबरल ...यू हव ए चॉइस... लेकिनमगरमच्छों के बीच एक आदमी की क्या चॉइस है ? बस आजीवन बाज़ार में बिकते रहो - दरअसल दुनिया को औद्योगिक क्रांति को तभी समझना चाहिये था जबइसने महानगरीय विकास के मॉडल को बढ़ावा देना शुरू किया था।
इनको महानगरों की आवश्यकता इसलिए थी ताकि यह अपना उत्पाद बेच सकें - इनको एक ऐसे विस्थापित मानवी समाज की जरूरत थी जो निराधार हो ,जिसका कोई आधार ना हो , ना घर हो , ना खेती हो , ना रोजगार हो , ना ही कोई प्रशासनिक सहारा । बस यह अपना श्रम बिना किसी शर्त बेचने को राजी हो ।यानि संसाधन - प्राकृतिक ,श्रम हर किंमत पर बिकने को तैयार और मुनाफा - पूंजीवाद का – इसलिए कारखाना ऐसी जगह लगाया गया जहाँ से उत्पाद कोसमुद्री मार्ग से दुनिया में भेजा जा सके - इसका उदाहरण भारत में मुम्बई और कलकत्ता रहा है ।
अब मुम्बई की विकास गंगा देखें .. औद्योगिक क्रांति के पैराकार युरोपीय शक्तियों ने मुम्बई का दोहन अपने अपने तरीके से किया और अंग्रेजों ने मुम्बईमें कारखाने लगाये । - सबसे बड़ा उदाहरण कपडा मिल जिसमें काम करने के लिए मुम्बई में. महाराष्ट्र कि कोंकण पट्टी से मजदूरों ने पलायन किया और मुम्बईकी मिलों के आसपास चालों में अपनी मुक्ति खोजी , यह वो गरीब , दलित तबका था जो गांव के सामंती ब्राह्मणवाद मे ग्रस्त था , इसने औद्योगिक क्रांति कोअपना कल्याणकारी मसीहा समझा क्योंकि फौरी तौर से तुम्हारी जात क्या है? – इससे निजात मिली , कारखाने में काम करने से शिक्षा शुरू हुई , छोटा सहीपर अपना घर बना , एक नया मजदूर समूह निर्माण हुआ और कुछ तीस चालीस बरस इस समाज के अच्छे गुजरे । उन्हें समाज के केंद्र में अपनी सहभागितामिली - इसके बरक्स मुम्बई निवासी कोली समाज विस्थापित और विलुप्त होता गया , मुम्बई व्यापार केंद्र बना और आज मुम्बई में सबसे ज्यादा विस्थापितआबादी है ।
जिसका अपना कोई आधार नही है - यानि जो श्रम बेच सकता है , और जीने के लिए वस्तू खरीद सकता है वही मुम्बई में रह सकता है । भूमंडलीकरण केबाद मुम्बई में उत्पाद कम और सेवा श्रम ज्य़ादा विकसित हो गया है । प्रोडक्शन ओरिएंटेड टू सर्विस ओरिएंटेड -अधिकारिक रूप से 1.25 करोड की आबादी को सुबह टूथपेस्ट से लेकर पेपर नेपकीन तक खरीदने पडते हैं । यानि हररोज 1.25 करोड लोगों का बाज़ार ! यही बाज़ार औद्योगिक क्रांती और पूंजीवाद कोचलाता है – चूँकि आज सूचना और तकनीक का युग है इसलिये आज " सर्विस ओरिएंटेड इकॉनमी " है - एक छल और है इसमें वो नॉलेज इकॉनमी कर रहे हैं यानि सूचना को वो ज्ञान कहकर प्रसारित और प्रचारित कर रहे है - जैसे तकनीक को विज्ञान समझ और समझा रहे हैं । तकनीक और विज्ञान का फ़र्क समझनाजरुरी है - यह सबसे बड़ा घपला है जो 'पूंजीवाद' के शोषण वादी कूचक्र का इल्जाम ईश्वरीय शक्ति पर थोपना चाहते हैं - इसकी बानगी देखिये इस पृथ्वी के सभीप्राकृतिक संसाधनो का विगत ४०० वर्षों मे जो दोहन पूंजीवाद ने किया है वो अभी तक कि मानवीय उत्क्रांति के इतिहास में कभी नहीं हुआ । इस दोहन से प्रकृति का संतुलन बिगड़ गया है - जो ग्लोबल वार्मिंग के रूप में हमारे सामने मौजूद है ।
अचानक अधिक वर्षा या लगातार सुखा , एक तरफ बाढ़ और दूसरी तरफ बूंद बूंद पानी को तरसता जीवन , इसका सबूत है - और इसकी जवाबदारी अपनेउपर ना आये इसलिए तकनीक का उपयोग कर नये ईश्वर को , भगवान को मानने वाला तथाकथित शिक्षित वर्ग खडा किया जा रहा है जो दिखने मे आधुनिक,कंप्यूटर जैसे ..पर कंप्यूटर का संचालन गणपति की फोटो की पूजा करके करता है । इस आधुनिक विकास ने हमारे जीवन के मौलिक , आधारभू्त तत्वों को बर्बादकिया है - यानि सांस लेने के लिए शुद्ध हवा , पीने के लिए शुद्ध जल और पैदा करने के लिए उर्वरक भूमि ।
हवा , जल और भूमि का अपने मुनाफे के लिए बेलगाम दोहन पर अपने अंत की और तेजी से बढ़ रहा है । मनुष्य जीवन को लील रहा है । और इसविकास का मॉडल है महानगर । वो महानगर जिसका अपना कोई आधार नहीं है जो प्रकृति पर अभिशाप है और मानवीय विकास की सबसे बड़ी बाधा ।
इन महानगरों की अवस्था नारकीय हो गई है । एक व्यक्ति को रहने के लिए आवश्यक प्रति व्यक्ति स्पेस नदारद है । सिरमुंडों से भरा बाजार हर पलप्रदूषित कर रहा है भूमि , जल और प्रकृति को - पूंजीवाद इसी विकास की रट लगा रहा है - नये नये आयाम , आधुनिक - यातायात - जबकि एक इंच जगह शेष नहीं है महानगरों में ,क्योंकि कहीं और विकास करने में इनको मुनाफा नहीं होगा यानि यह अब भी महानगरों के विकास के आगे अपने आप को नहीं देखते हैं -जनता भी नहीं देखती है । इसलिए अपने आधार यानि अपने गांव को छोड़ कर भाग रही है । महानगर के गंदे नालों पर अपना जीवन गुजारने के लिए अपनी छत, अपना पानी , अपनी भूमि को छोड़ कर महानगर का गंदा नाला.... वाह क्या विकास है ?
पूंजीवाद का यह भी षडयंत्र है क्योंकि जमीन से इतना बेतहाशा उत्पादन किया है कि अब कृत्रिम उर्वरक डालने के बाद जमीन जहर उगल रही है - इसकाउदाहरण हमारे देश के विकसित प्रदेश से हर रोज निकलती कॅन्सर ट्रेन है । वाह क्या विकास है ?
भूमंडलीकरण का अनोखा षडयंत्र – सस्ता बेचो – इससे भारत के किसानों की दुर्दशा इस कदर बढ़ गई की जमीन बोझ बन गई । जीवन आत्महत्या मेंबदल गयी और पूंजीवादी ' कौडियों ' में जमीन खरीद कर उनपर अपना कब्ज़ा जमा रहे हैं । यानि हमारे देश की आत्मा यानि गांव बिक रहे हैं , बिक गये हैं ,दुनिया को अन्न देने वाला किसान आत्महत्या कर रहा है । केमिकल बेचने वाले बनिया , बाबा और मल्टीनेशनल आबाद हो रहे हैं । सूचना बिकाऊ हो गई है ।
लोकतंत्र का चौथा स्तंभ मीडिया पूंजीवाद और अंधश्रद्धा को बेचने की मंडी है । देश का राजनैतिक नेतृत्व पूंजीवाद के पंख लगाकर विदेश भ्रमण मेंमशगूल है । देश के बुजुर्ग टीव्ही में बड़े धार्मिक गुरुओं के चंगुल में फंसकर भगवान के नाम पर अंधश्रद्धा के गुलाम बन कर अपने संतान से लड़ रहे हैं । तकनीकके नाम पर ' विज्ञान ' को बेच रहा युवा वर्ग - भोगवाद के चक्रव्यूह में " पूंजीवाद " को अपना सेवाहार मान कर बुलेट ट्रेन का सपना देख रहा है जहां से सीधे स्वर्ग कीसीढी पर पैर रखा जा सकता है । यानि जिस समय सामंतवादी व्यवस्था में मुट्ठी भर लोगों के हाथ में दुनिया की संपत्ति थी ४०० साल बाद - ' लोकतांत्रिक 'दुनिया में शेयर मार्केट के ज़रिये वो संपत्ति फिर मुट्ठीभर लोगों के हाथ में है ।
तो क्या मिला इस औद्योगिक क्रांति में नील बटे सन्नाटा , एक पूंजीवाद अजगर जो अपने आप को ही लीलता है और महानगर का आकार लिए विकास कामॉडल बन कर - खरीद फरोख्त की माला जप रहा है । विनाश की ओर बढ़ रहा है । इस महा मानवीय विनाश से बचने का तरीका है - खरीदने और बेचने के सूत्र कोसिरे से नकारना , जितनी जरुरत उतना उत्पाद , बेलगाम मुनाफा खत्म करना और मेहनत का हिस्सा देना ।
प्राकृतिक संसाधनों पर जनता का कब्ज़ा , जल , वायू , भूमि और प्रकृति का संवर्धन , पुनसंवर्धन ।
विकास के मॉडल महानगर का तिरस्कार और आत्म स्वावलंबी गांवों का प्राकृतिक प्रकृति प्रिय विकास , पूंजीवाद के बजाय सही मायनों का लोकतंत्र , तकनीकके बजाय विज्ञान, जीवन का आधार हो यही सर्वोत्तम कारगर कदम हैं , जो विनाश के मुहाने पर खड़ी मानवता और आणविक आविष्कार के अभिशाप सेमानव और सृष्टि को बचा सकता है !
संपर्क - मंजुल भारद्वाज .
373/ 18 , जलतरंग ,सेक्टर 3 , चारकोप ,कांदिवली (पश्चिम) मुंबई -400067.
फोन : 9820391859
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