Wednesday, July 13, 2016

तालेश्वर दानपत्रों ( ७वीं शताब्दी) की दीप पुरी या वर्तमान ताकुला ताराचंद्र त्रिपाठी

तालेश्वर दानपत्रों ( ७वीं शताब्दी) की दीप पुरी या वर्तमान ताकुला
ताराचंद्र त्रिपाठी
ताकुला। शिष्य एवं साथी ललितमोहन लोहनी का गाँव। कनगाड़छीना से लेकर भैंसोड़ीछीना तक विस्तीर्ण एक रमणीय उपत्यका। तालेश्वर दानपत्रों में दीपपुरी नाम से उल्लिखित स्थान ’द्योली’। बिनसर पर्वतमाला की गोद में दूर­दूर तक पसरे गाँव। बसोली, बुढोली, झाड़कोट, चौपाता, डिनथल, इनकोट, गणनाथ, द्योली, पनेरगाँव। मल्लिका, कनबुडि़या देवाल और जोग्याणी देवाल के मंदिर। बिनसर, तालेश्वर दानपत्रों के वीरणेश्वर से नाम-साम्य। एक भुजा में दीपपुरी और दूसरी भुजा में शूर्पी या वर्तमान सुपै।
अक्टूबर का महीना। नवरात्रि। गाँव में रामलीला का मंचन न हो, यह तो हो ही नहीं सकता। ललित, आनन्द और मैं, दिन में इलाके की रागभाग लेते और रात को रामलीला के मंचन में सहयोग करते। अंधों में काना सरदार की तरह विभिन्न दृश्यों को अधिक प्रभावशाली बनाने का प्रयास। शहर से आये थे, ‘बड़े स्कूल‘ के अध्यापक थे, इसलिए लोगों में उत्सुकता भी थी।
लोगों ने बताया कि अल्मोड़ा-­बागेश्वर मोटर मार्ग के निर्माण के समय चिणगैर नामक स्थान पर बहुत सी कब्रें निकली थीं, जिनमें मिट्टी के तरह­-तरह के बर्तन थे। द्योली के समीप कणिद्यो में एक भग्न मंदिर के अवशेष निकले थे। इनकोट में खेत को समतल बनाते समय ईंटों से बना एक मंदिर मिला था। उसमें मिले पत्थर से बने केले के ’चाख‘ और हरगौरी की मूर्ति, को मुंडेश्वर का बाबा उठा ले गया था। गणनाथ में रखी विष्णु भगवान की मूर्ति, अल्मोड़ा के ज्वालादत्त जोशी कत्यूर से लाये थे। बसोली के समीप लूकोट में जूनियर हाईस्कूल का भवन बनाते समय बुनियाद में लोहे के हथियार मिले थे। अमखोली में कत्यूरियों के जमाने के मकान हैं, आदि-­आदि।
कब्रें और उनमें मिट्टी के बर्तन। माथा ठनका। लगा हम अतीत में बहुत दूर पहुँच गये हैं। चिणगैर में सड़क के किनारे अभी भी पहाड़ पर कुछ अवशेषों के निशान दिखाई दे रहे थे लेकिन संस्कारों के कारण किसी कब्र को खोद कर उसकी सामग्री को सहेजने में मन आशंकित हो रहा था। बड़ी हिम्मत कर, सड़क काटने से उभरी एक कब्र को कुरेदना शुरू किया। मुझे अकेले लगा देख, बड़े उत्साह से रामलीला में लगे अल्मोड़ा के चर्मकार मुन्ना को भी जोश आया। वे यहाँ दिन भर बूट पालिश और जूतों की मरम्मत करते थे और शाम को रामलीला में जो भी छोटा­-मोटा पार्ट उन्हें दिया जाता था, उसे सोत्साह करते थे । रावण का पुतला बनाने की जिम्मेदारी भी उन्हीं की थी। पूरे सप्ताह भर, जब तक हम वहाँ रहे, सारा काम­-धाम छोड़ कर वह हमारे साथ लगे रहे और जो स्थान हम लोगों के लिए लगभग अगम्य था, हमें वहाँ तक पहुँचाने में उन्होंने बड़ी सहायता की।
मुन्ना की सहायता से मिट्टी के बर्तन बड़ी सफाई से निकाल कर घर लाया। संस्कारों के कारण, उन्हें घर के भीतर ले जाने में संकोच हुआ। मन में सोचता रहा, यदि कहीं स्वप्न में मृतात्मा ने बर्तन वापस माँगे तो सुबह वहीं रख आऊंगा पर ऐसा कुछ नहीं हुआ और ये कलात्मक बर्तन राजकीय महाविद्यालय, नैनीताल के इतिहास विभाग में पहुँच गये।
खेतार। संभवतः क्षेत्रपाल का स्थान रहा होगा। यदि क्षेत्रपाल का स्थान था तो कुछ न कुछ तो पुरावशेष इस स्थान पर होंगे ही। खेतों के बीच एक छोटा सा झाड़ झंखाड़ से भरा टीला। 1999 में बागेश्वर जाते समय एक बार ताकुला स्टेशन पर रुका तो बातों­-बातों में पता लगा कि इस स्थान से भूस्वामी को बहुमूल्य सामग्री मिली थी।
इनकोट। नाम इन्द्र से पड़ा या अरंडी के पेड़ से, खास बात तो यह है कि यहाँ प्राचीन काल की बड़ी­बड़ी ईटों से निर्मित उत्तराखंड के एकमात्र मंदिर के अवशेष विद्यमान हैं। खंडित कर दिये जाने के बावजूद 1972 में यह भग्नावशेष भूमि से लगभग 8 फीट तक उठा हुआ था। लोगों ने बताया कि मंदिर के अवशेषों से ग्रामीणों को चौकोर मुखकृति वाली हरगौरी की प्रतिमा और प्रस्तर निर्मित केले का चक्र मिला था जिन्हें मुंडेश्वर का बाबा उठा ले गया था। केले का चक्र तो क्या होगा, सहस्रफण नाग-मूर्ति होगी। ब्रह्मपुर नरेशों की दीपपुरी में उनके कुल देवता अनन्तमूर्ति सहस्रफण भगवान वीरणेश्वर की प्रतिमा होना अस्वाभाविक भी नहीं है।
अल्मोड़ा के तत्कालीन मंडलाधिकारी राजकिशोर मिश्र को मंदिर के खंडित किये जाने और मूर्तियों के गायब होने की सूचना दी तो उन्होंने तुरंत इस पर कार्यवाही कर मूर्तियों का पता लगाया और मंदिर के अवशेषों को सुरक्षित रखने के लिए पटवारी को भी लिखा। आज भी हरगौरी की प्रतिमा तो मुंडेश्वर में है पर ‘केले का चक्र‘? कहाँ गया, इसका पता नहीं चल सका। इस महत्वपूर्ण स्मारक को बचाने के लिए रंचमात्र भी सहयोग किसी अन्य व्यक्ति ने दिया हो, मुझे याद नहीं हैं।
जोग्याणी देवाल। गोरखा शैली का छोटा सा मंदिर। भीतर स्थानक विष्णु और हरगौरी की प्रतिमा। दोनों लगभग 50 से.मी. ग 27 सेमी के लगभग। अब तक उत्तराखंड और उसके बाहर भी हरगौरी की चौकोर और अंडाकार मुखाकृति वाली बहुत सी प्रतिमाएँ देखी होंगी, पर जो माधुर्य और सम्मोेहन इस प्रतिमा में देखा, उसकी झलक तक उन प्रतिमाओं में कहीं नहीं थी। जैसे कलाकार इस प्रतिमा को उत्कीर्ण करते हुए स्वयं पार्वती के निनिन्द रूप सौन्दर्य में ही नहीं भाव सौन्दर्य में भी तल्लीन हो गया था। कालिदास याद आ गये:
स्नपयति हृदयेशं स्नेह निष्यन्दिनी ते। जाने कहाँ गये वो दिन
धवलबहल मुग्धा दुग्धकुल्येव दृष्टिः।
मंदिर में बैठा मुग्ध भाव से हरगौरी की प्रतिमा को निहारता ही रह गया। जैसे समाधिस्थ। देश­काल­परिस्थिति सब लापता। मन बुधि चित अहमिति बिसराई। संध्याकालीन आरती करने के लिए आने वाली महिलाओं की खसुर.पुसुर से ध्यान बँटा। पूरे तीन घंटे हो गये थे। यह मूर्ति वहीं है या वह भी एन.आर.आइ. हो गयी है, कुछ पता नहीं।
कनबुडि़या देवाल ताकुला बाजार के बीचों­बीच हैैै। इसमें कत्यूरी युग की अनेक अभिलिखित प्रतिमाएँ हैं। ’कनबुडि़या’ नाम कैसे पड़ा यह किसी को मालूम नहीं है। नाम से बुढि़या या संस्कृत ’वृद्धा’ भले ही जान पड़े पर बात कुछ और लगती है। कनबुडि़या देवाल और कुछ दूरी पर द्योलीगाँव के समीप कणिद्यो के मंदिर के अवशेष। कन या कणि दोनों ही कर्ण के विकसित रूप। चंपावत में कानादेव, कर्ण करायत। लगता है, कुछ गड़बड़ है ! नामान्त में देव है तो कोई कत्यूरी सामन्त होंगे। ललितशूरदेव, पùटदेव, लखनपाल देव, धामदेव, ब्रह्मदेव... और भी पुराने होते तो जगतग्राम के शीलवर्मन, देवप्रयाग के कल्याणवर्मन या तालेश्वर दानपत्रों के द्युतिवर्मन की तरह नाम होता ’कर्णवर्मन’। कत्यूरी हैं, पर वंशावली में कहीं नाम भी नहीं है। छोडि़ये, कत्यूरियों के ही कोई सामन्त होंगे।
गणनाथ। स्थान­नाम के साथ ‘नाथ‘ जुड़ा नहीं, समझ लीजिये वहाँ पर मठ मिलेगा या मठ के अवशेष। एक गुफानुमा स्थान पर बना मठ। भीतर विष्णु की अभिलिखित भव्य प्रतिमा। विष्णु यहाँ पूरे दलबल के साथ हैं। दरबार लगा है। सारी की सारी देवयोनियाँ उन्हें घेर कर खड़ी हैं। विष्णु की ऐसी प्रतिमाओं को वैकुंठ प्रतिमा नाम दिया गया है। नीचे लखनपालदेव के पुत्र सहणपालदेव द्वारा इस मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा से संबंधित शाके 1229 का एक लेख है।
कनगाड़ छीना। नाम सामान्य। पर कहीं तार जुड़े हुए लगे। कत्यूरी जागर के ‘किनगोड़ी को झाल‘ से। कत्यूरी जागरों वर्णित खजाने की स्थिति ‘सात रौली वार सात रैली पार, बीच में किनगोड़ी को झाल। घट चाकलों, घट बाकलो धन‘। दिमाग ने फिर चक्कर खाया। सातरौली और सतराली (ताकुला क्षेत्र), किनगोड़ी और कनगाड़। कहीं यहाँ कत्यूरी नरेशों का, जागरों में वर्णित खजाना, तो नहीं दबा पड़ा है? जन धारणा भी थी कि कनगाड़ छीना के पास शान्तिभ्योल की गुफा में कुछ है। दुर्गम स्थान। सोचा अगली बार नैनीताल पर्वतारोहण क्लब के चन्द्रलाल साह जी की सहायता से पर्वतारोहियों को लेकर आयेंगे।
जो भी हो दीपपुरी या ताकुला क्षेत्र पुरातात्विक अनुसंधान के लिए एक अत्यन्त महत्वपूर्ण क्षेत्र है। मेरा अनुमान है कि यह हमारे इतिहास को कुषाण युग से भी पहले के युग में ले जा सकता है।’

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