Friday, July 1, 2016

पिथौरागढ़ आज भी वैसा ही है !

पिथौरागढ़ आज भी वैसा ही है !
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(पिथौरागढ़ से लौटकर आत्मालाप)
-दिनेश कर्नाटक
करीब 16 साल पहले जब भार्गव साहब ने मुझे पिथौरागढ़ जाकर Eicher Truks की बिक्री और सर्विस हेतु ब्रांच शुरू करने को कहा तो मैंने हामी भरने में बिलकुल भी देर नहीं लगाई। मैं एक नौकरी छोड़कर उनके पास आया था और मुझे हर हाल में काम चाहिए था। थोड़ा आशंका जरूर थी कि पिथौरागढ़ जैसी दूरस्थ जगह में, मैं कितने ट्रक बेच लूंगा। लेकिन तब तक मैं एक बात सीख चुका था कि किसी भी काम में थोड़ा- बहुत गुंजाईश होने पर जान लगाकर जुट जाने से कामयाबी मिल जाती है।
फिर एक लंबी कहानी है। पिथौरागढ़ में अपनी टीम को एकजुट करके मैंने काम शुरू किया और गाड़ी बिक्री के मामले में बरेली-मुरादाबाद जैसी अपने ग्रुप की दूसरी ब्रांचों को भी पीछे छोड़ दिया। इसका श्रेय पिथौरागढ़ के ट्रांसपोर्टरों को जाता है, जिन्होंने मुझ पर भरोसा किया। हाँ, मैंने भी उनसे जो वादे किये उन्हें हर हाल में निभाया। बदले में उन्होंने मुझे बिक्री दी। कुल-मिलाकर प्राइवेट नौकरी के मामले में ये मेरे जीवन का सबसे कामयाब दौर साबित हुआ। जब टीचर की नौकरी के लिए मैंने इस्तीफ़ा दिया, तब तक चम्पावत, अल्मोड़ा, बागेश्वर में तीन और ब्रांचें मेरे अधीन खुल चुकी थी।
लेकिन इस सबका मेरे लिए कोई अर्थ नहीं था। मेरी रूचि पढ़ने-लिखने में थी और मैं उसे ही अपना पेशा बनाना चाहता था। मैं टीचर होना चाहता था और वह भी हिंदी का। 1999 में,मैं प्राइवेट जॉब में रमने लगा था इसलिए सेवा में नहीं आया। लेकिन 2003 में मैंने अपने पसंदीदा जॉब को चुन लिया।
पिथौरागढ़ से तब एक गहरा रिश्ता बन चुका था, जो छूट गया। लेकिन एक बार जो रिश्ता बनता है, वह इतनी आसानी से नहीं छूटता। कुछ समय बाद शैक्षिक सरोकारों के चलते महेश पुनेठा और राजीव जोशी जी के माध्यम से पिथौरागढ़ के साथ एक नया रिश्ता आरंभ हुआ। यह रिश्ता विचार, संवेदना और सृजन का था। यह रिश्ता शिक्षा पर हमारी साझी सोच से आरम्भ हुआ और अब पिथौरागढ़ से मैं एक दूसरे कोण से मुखातिब हूँ।
पिथौरागढ़ से पहला रिश्ता व्यापार के कारण जुटा था। इसलिए अपनी प्रकृति में तात्कालिक किस्म का था। मगर यह नया रिश्ता ज्यादा गहरा और दीर्घ है क्योंकि यहाँ विचार और सृजन केंद्र में है। मगर आत्मीयता और स्नेह तब भी ऐसा ही था, अब भी वैसा ही है।
महेश पुनेठा, विनोद बसेड़ा, राजीव जोशी, चिंतामणि जोशी, राजेश पंत, गिरीश पांडेय 'प्रतीक', दिनेश भट्ट, भास्कर उप्रेती, राजू महर, कमलेश उप्रेती, रमेश चंद्र जोशी, जयमाला देवलाल आदि साथी गर्मियों की छुट्टियों के बावजूद तीन दिन तक अपने सब काम छोड़कर 'शैक्षिक दख़ल' तथा 'बच्चों में पढ़ने-लिखने का विकास' पर आयोजित कार्यशाला में समर्पित रहे। महेश पुनेठा तथा विनोद बसेड़ा ने अपने घर में बड़ी आत्मीयता से रात्रि भोज पर आमंत्रित किया।
कुल मिलाकर कह सकता हूँ कि पिथौरागढ़ तब भी आत्मीयता और गर्मजोशी से भरा हुआ था और आज 13 साल बाद भौतिक रूप से और भी समृद्ध होने के बावजूद उसका स्वाभाव वैसा ही बना हुआ है, बल्कि अभिषेक पुनेठा और 'आरंभ' के उसके साथियों से मिलकर कह सकता हूँ कि प्रतिबद्धता और सरोकारों की जमीन पर खड़ा यह शहर और यहाँ के लोग परम स्वार्थी हो चुके दूसरे क्षेत्रों के लोगों को सही दिशा दिखाने की दिशा में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं।

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