Thursday, July 7, 2016

H L Dusadh Dusadh अठावले की धमनियों में अभी भी एक पैंथर का खून दौड़ रहा है

H L Dusadh Dusadh
अठावले की धमनियों में अभी भी एक पैंथर का खून दौड़ रहा है 
मेरे प्योर आंबेडकरवादियों मित्रों , 
मा.रामदास आठवले के मंत्री बनने पर यदि आप उन्हें बधाई नहीं दे सकते तो कम से कम उनका मखौल उड़ाने से बचिए. रामदास अठावले की धमनियों में अभी भी एक पैंथर का खून दौड़ रहा है.अभी भी महारष्ट्र में जहां कहीं दलित- वंचितों पर हमला होता है ,आठवले काल बिलम्ब किये बिना उपस्थित होते हैं.आज भी वे सांसद के रूप में सहज उपलब्ध रहते हैं.आज भी वे पहले की तरह खरी-खरी बोलते हैं.आज भी वे मुंबई के समाज विरोधी गुंडों-माफियाओं-व्यापारियों और नेताओं के लिए एक दु:स्वप्न हैं.ऊपर से निहायत ही कठोर दिखने वाले आठवले अन्दर से मोम और एक खुली किताब जैसे हैं. उनका मखौल उड़ाने वाले कथित प्योर आंबेडकरवादियों को नहीं मालूम कि दलित पैंथर के उत्कर्ष के दिनों में नामदेव ढसाल और आठवले बिना पूर्व सूचना के बड़े-बड़े मंत्रियों से मिला करते थे.वे जब मंत्रियों के कमरों की ओर बढ़ते ,उनके सुरक्षा कर्मी ख़ामोशी से रास्ता छोड़कर हट जाते और वे मंत्रियों के दरवाजों पर पहुँच ,नॉक करके नहीं ,लात की जोरदार ठोकर से दरवाजे खोला करते थे.उनके इस अंदाज से ऐसा लगता था जैसे साक्षात् गब्बर सिंह हाजिर हो गया हो .
ढसाल और अठावले इत्यादि पैन्थरों में यह सत-साहस इसलिए पैदा हुआ था कि उन्होंने जान हथेली पर लेकर दलितों पर होने वाले जुल्मो-सितम के खिलाफ लड़ाई लड़ी थी.इसलिए समाज के जबरदस्त समर्थन से पुष्ट उनका मनोबल इस बुलंदी पर पहुंचा था ,जिसके सामने मुंबई के बड़े-बड़े डॉन और लोकतंत्र विरोधी नेता नतमस्तक रहते थे.यही कारण था आजाद भारत की हिस्ट्री की सबसे ताकतवर व लोकप्रिय प्रधानमंत्री 24 वर्षीय युवा पैंथर नामदेव ढसाल के सामने कभी टेबुल-टॉक के लिए विवश हुईं. सत्तर के दशक में उनका फुले-आंबेडकर की भूमि वैसा ही खौफ था ,जैसा पूर्वी भारत में नक्सलियों का.
किन्तु भारत की हिस्ट्री को ‘दलित पैंथर’ के रूप में सबसे क्रन्तिकारी और जुझारू संगठन उपहार देने के बावजूद ढसाल और अठावले जैसे सर्वगुणसंपन्न ‘पैंथर’ तत्कालीन भारतीय राजनीति को बुरी तरह प्रभावित करने के बावजूद खुद राजनीति की बुलंदी को नहीं छू सके .इसका एकमेव कारण जाति संख्या-बल का अभाव रहा .महाराष्ट्र में दलितों की आबादी भारत के कई प्रान्तों की तरह 20-25 प्रतिशत नहीं,बमुश्किल 11 प्रतिशत है.उस पर से वहां लम्बे समय महार और गैर-महारों में इतनी बड़ी खाई रही ,जिसे पाटने में बाबा साहेब आंबेडकर जैसी सर्वकालीन सर्वश्रेष्ठ दलित हस्ती भी पूरी तरह विफल रही.बहरहाल मंडल उत्तरकाल में जाति चेतना के राजनीतिकरण ने पैन्थरों की राजनीतिक स्थिति और पतली कर दी .जाति चेतना के इसी दौर ने दलित –पिछड़ो में सजाति संख्या-बल से समृद्ध ढेरों साधारण लोगों को तक को भी बुलंदी पर पहुंचा दिया.दूसरी ओर इसी दौर में कई प्रतिभाशाली बहुजन नेता अपना राजनीतिक वजूद बचाने के लिए सवर्णवादी दलों के साथ संगत करने के लिए विवश हुए,जिनमें दुर्भाग्य से एक नाम रामदास अठावले का भी रहा.वैसे तो ढेरों राजनीतिक दलों और व्यक्तियों ने सवर्णवादी दलों के साथ मिलकर सत्ता की मलाई चाभी,पर ज्यादा बदनाम पैंथर ही हुए.यही कारण है आज आठवले साहब को बधाई देने वालों की तुलना में माखौल उड़ाने वालों की सख्या बहुत ज्यादा है .
यही आठवले साहब 2012 में नामदेव ढसाल के सौजन्य से मुबई में आयोजित ‘डाइवर्सिटी डे’ प्रोग्राम में शिरकत करने के लिए आये .जब उनको अपनी बात रखने की बारी आई उन्होंने अपना भाषण मुंबई में हिंदी पट्टी वालो पर हो रहे अत्याचार पर केन्द्रित रखते हुए यही कहा-
‘मैं दूसरे एक प्रोग्राम के लिए पहले से समय दे रखने के कारण इसमें आ पाने की स्थिति में नहीं था.लेकिन मुझे पता चला की दिल्ली,यूपी,बिहार से आये हमारे भाइयों पर कुछ लोग हमला करने वाले हैं.देखता हूँ कौन ऐसी हिम्मत करता है.उसके बाद वे देर तक मुंबई में आये हिंदी-पट्टी वालों को निर्भय होकर काम करने का इत्मीनान दिलाते रहे.’उनके के मंत्री बनने के बाद 2012 में कही गयी उनकी वही बात सबसे पहले मेरे जेहन में कौंधी.

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