Thursday, July 14, 2016

Rajiv Nayan Bahuguna Bahuguna जज़्बा ए हुस्न सलामत रहे इंशा अल्लाह ।

यह चित्र 1982 का , तब का है , जब मेरे पिता ने कश्मीर से कोहिमा की लंबी पैदल यात्रा शुरू की , और मैं कश्मीर में उनके साथ था । यह मेरी पहली कश्मीर यात्रा थी । आज कश्मीर की हालत देख सुन मेरा कलेजा सचमुच मुंह को आता है । 
हम श्रीनगर में शेख़ अब्दुल्लाह साहब के मेहमान थे , और फारूक साहब उन दिनों एम् पी थे । वह भी हमारे कारण दिल्ली से श्रीनगर चले आये थे । सुबह हम उनके बंगले के लॉन में थे । उमर अब्दुल्लाह , एक क्यूट बच्चा , अपने पिता की ऊँगली पकड़े खड़ा था । मैंने अपने कुर्ते के पल्लू से उसकी बहती नाक पोंछी । फारूक़ साहब विह्वल हो गए । मैंने कहीँ पढ़ा था कि फारूक़ श्रीनगर की सड़कों पर निडर होकर बाइक दौड़ाते हैं । मैंने इच्छा ज़ाहिर की । कल सुबह , इंशा अल्लाह , उन्होंने जवाब दिया ।
तीसरे दिन हम श्रीनगर से कूछ दूर जब खेतों के किनारे सड़क पर बोझा लादे पैदल चल रहे थे , तो एक तेज़ स्यंदनों का काफिला झटके से रुका । वज़ीरे आला शेख साहब उतरे , और एक फारेस्ट ऑफिसर को हमारे हवाले कर आगे बढ़ गए । क्या शान्ति थी यार तब । जज़्बा ए हुस्न सलामत रहे इंशा अल्लाह ।

No comments:

Post a Comment