दलित राजनीति : पहिचान बनाम पुनर्वितरण
-राधा सरकार और अमर सरकार (लन्दन स्कूल ऑफ़ इकनोमिक्स)
(अनुवादक: एस.आर. दारापुरी)
उत्तर तथा मध्य भारत में दलित राजनीति अधिकतर पहचान के एजंडा के गिर्द ही रही है जिस में समान सम्मान की मांग तो की गयी परन्तु संसाधनों के पुनर्वितरण की मांग नहीं उठाई गयी. इस से वर्ग के हिसाब से उच्च दलितों का सामाजिक और आर्थिक स्तर तो ऊँचा हुआ है परन्तु अधिकतर दलितों के जीवन स्तर में कोई ख़ास परिवर्तन नहीं आया है. दलितों की समान बर्ताव की चाहत सीमित ही रहेगी जब तक शोषणकारी आर्थिक संबंधों को बदलने वाली पुनर्वितरण की राजनीति का अभाव रहेगा.
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1990 से अब तक दलितों में जाति आधारित राजनीति के उभार को किस रूप में समझा जाये? क्या हमें इसे एतहासिक तौर पर शोषित समुदाय के सशक्तिकरण के रूप में देखना चाहिए जैसा कि कुछ विद्वान इसे देखते हैं? या फिर हमें इसके लाभ और सीमाओं को अधिक संदेह की दृष्टि से देखना चाहिए? हमारा तर्क है कि जाति आधारित राजनीति सामाजिक न्याय के लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सकती जब तक कि इसमें वर्ग को शामिल नहीं किया जाता है जैसा कि वह अधिकतर करने में विफल रही है. दलित पार्टियों द्वारा अब तक अपनाई गयी पहचान की राजनीति से दलितों को बहुत थोड़ा लाभ हुआ है और कुल मिला कर इस का लाभ उन दलितों को ही मिला है जिनकी वर्ग के हिसाब से स्थिति अच्छी रही है. दलितों की समान बर्ताव की चाहत सीमित ही रहेगी जब तक शोषणकारी आर्थिक संबंधों को बदलने वाली पुनर्वितरण की राजनीति का अभाव रहेगा. हम अपने तर्कों की व्याख्या के लिए उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी (बसपा), जो कि सबसे बड़े राज्य में राजनीतिक तौर पर काफी सफल रही है, के उदाहरण को लेते हैं.
सामाजिक न्याय
नान्सी फ्रेज़र ने सामाजिक न्याय की दो अवधारणाओं में अंतर किया है: एक पुनर्वितरण पर केन्द्रित है जिस में माल और संसाधनों के न्यायपूर्ण वितरण की मांग है और दूसरी पहचान के दावों पर आधारित है जिस के केंद्र में विभिन्न सामाजिक समूहों के समान आदर के लक्ष्य की प्राप्ति है. फ्रेज़र सामाजिक न्याय के लक्ष्य की प्राप्ति के लिए संस्थागत तौर पर सामाजिक जीवन में भेदभाव के कारण पिछड़ गए समूहों की पहचान को भी उतना ही महत्त्व देती हैं. फ्रेज़र का तर्क है कि सामाजिक अन्याय को ख़त्म करने के लिए पहचान और पुनर्वितरण की राजनीति को एक साथ अपनाया जाना चाहिए क्योंकि इन में से कोई एक सांस्कृतिक और आर्थिक अन्याय को दूर करने में सक्षम नहीं है. उसका तर्क मूलरूप से तो महिलाओं के संबंध में है परन्तु यह जाति उत्पीड़न के मामले में भी सटीक बैठता है. फ्रेज़र इसे लिंग के अनुरूप आर्थिक और सांस्कृतिक पहलुओं की उपज मानती है. इसी लिए लिंग की तरह जाति आधारित अन्याय को समाप्त करने के लिए दोनों: पहचान और पुनर्वितरण के पहलुओं की ओर ध्यान देना पड़ेगा.
पहचान बनाम पुनर्वितरण
उत्तर और मध्य भारत में दलित राजनीतिक पार्टियाँ पहचान की राजनीति पर बल देती रही है जबकि उन्होंने पुनर्वितरण की राजनीति को किनारे करके न्याय की पूर्ण प्राप्ति को ही दरकिनार किया है. ऐसी पार्टियाँ और संगठन दूसरों से सम्मान की मांग को ले कर गठित होती हैं. उनकी मुख्य चिंता सामाजिक सांस्कृतिक स्तर में परिवर्तन द्वारा सामाजिक संबंधों में समानता प्राप्त करना होता है. फ्रेज़र के शब्दों में “यह सामाजिक संबंधों में समानता प्राप्त करना” की तलाश ही होती है. परन्तु सांस्कृतिक स्तर में परिवर्तन अधिक से अधिक गलत पहिचान या समूह के निम्न सामाजिक दर्जे को ही सुधार सकता है परन्तु यह कभी भी संसाधनों और माल के गलत और असमान वितरण को दुरुस्त नहीं कर सकता. यदि जाति ही वितरण का अकेला आधार होती तो यह बिलकुल वर्ग के समान होती. यदि एक जाति के सभी सदस्य अपने परम्परागत पेशों में ही लगे होते तो जाति अथवा उपजाति के सभी सदस्यों में संपत्ति की मिलकियत, शिक्षा, संपत्ति और आय में बहुत कम अंतर होता. समाज में किसी समूह की गलत पहचान का अर्थ है संसाधनों का गलत वितरण और पहचान की राजनीति से वितरण का अन्याय और पहचान ठीक हो जाती.
परन्तु जाति का यथार्थ बहुत टेढ़ा है क्योंकि जाति और वर्ग समान रूप नहीं हैं. आर्थिक व्यवस्था और आर्थिक नीति में परिवर्तन से हिन्दुओं और दलितों के बीच बहुत अंतर आया है. , भूमंडलीकरण, विनियमितीकरण, उदारीकरण और उच्च आर्थिक वृद्धि दर के कारण जाति व्यवस्था के विभिन्न हिस्सों को अलग अलग तरह के लाभ प्राप्त हुए हैं. निम्न जातियों के कुछ सदस्यों द्वारा शिक्षा और आरक्षण द्वारा रोज़गार प्राप्त करने से उनके बीच वर्गभेद बढ़ा है. वीनर ने शहरी दलितों के सामाजिक तौर पर गतिशील होने और कम शिक्षित ग्रामीण दलितों की उन्नति की कम संभावनाएं होने की बात कही है. इस प्रकार एक जाति के सभी लोग एक ही वर्ग में नहीं आते, जाति और वर्ग में अदला बदली न होने के कारण पुनर्वितरण की राजनीति की ज़रुरत है. इस आलेख के शेष भाग में हम यह दिखाने की कोशिश करेंगे कि दलित पार्टियों की जाति आधारित राजनीति किस प्रकार दलितों की बहुसंख्या के उत्पीड़न के आर्थिक और सांस्कृतिक पहलुओं का निवारण करने में असमर्थ है.
उत्तर प्रदेश का उदाहरण
उदाहरण के लिए उत्तर प्रदेश में दलित समर्थक बसपा को लीजिये. बसपा 1991 में 9.4% वोट लेकर प्रांतीय स्तर की सत्ता की प्रतियोगी पार्टी के रूप में उभरी थी. 2007 में इसने 30.6% मत ले कर भारी बहुमत प्राप्त किया था. दलितों के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक पहलु को मज़बूत करने के लिए बसपा की दो रणनीतियां थी. पहली उत्तर प्रदेश के परिदृश्य को दलित नेताओं के नाम पर पार्क और मूर्तियां लगा कर और अस्पताल, स्टेडियम, शैक्षिक संस्थानों का दलित नेताओं के नाम पर नामकरण करके संकेतक परिवर्तन करने की थी. बसपा की दूसरी नीति कोई नयी योजनायें चालू न करके प्रचलित योजनाओं के ही क्रियान्वयन को बदलना था. उदहारण के लिए बसपा ने ब्यूरोक्रेसी में दलितों को महत्वपूरण पदों पर बैठाया. 1997 में जब मायावती 6 महीने के लिए मुख्य मंत्री थीं तो उस ने 1350 नागरिक और पुलिस अधिकारियों के तबादले किये थे.
सारांश यह है कि बसपा की रणनीति ब्यूरोक्रेसी और उत्तर प्रदेश के परिदृश्य में दलितों की उपस्थिति को बढ़ाना था. स्पष्ट तौर पर बसपा ने कुछ दलितों के राजनीतिक और आर्थिक कद को बढाया है. जबकि आम दलितों की स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ है. बेशक इस से उत्तर भारत में दलित समुदाय को राजनीतिक और सांकेतिक तौर पर लाभ मिला है. दलित अब जातिभेद को चुनौती देने और राजनीति में भागीदारी करने की पहले से बेहतर स्थिति में हैं. कुछ ग्रामीण दलित प्रदेश स्तरीय संबंधों के सहारे राजनीतिक संसाधनों, आर्थिक और सामाजिक संबंधों का इस्तेमाल भी करने लगे हैं. जैफरलाट ने इसे “मूक क्रांति” की जो संज्ञा दी है वह अभी अपरिपक्व है क्योंकि पुनर्वितरण के बिना पहचान की राजनीति की शुरू से ही सीमाएं होती हैं. आर्थिक और सामाजिक अवसरों के वितरण में रेडिकल परिवर्तन लाये बिना पहचान की राजनीति सत्ता संबंधों में बहुत कम परिवर्तन ला पाती है.
सामाजिक-आर्थिक असमानता
बसपा की पहचान की राजनीति की सीमाएं स्पष्ट दिखाई देती हैं. इसकी पहचान की राजनीति और प्रतीकों के एजंडे को बढ़ावा देने के बावजूद बसपा भूमि और मजदूरी के झगड़ों में दखल देने और असमानता और गरीबी को दूर करने की नीतियाँ लागू करने में विफल रही है. सामाजिक आर्थिक असमानतायें जिन की जड़ असमान भूमि और संपत्ति की मिलकियत में हैं दलितों की पहिचान की राजनीति उन्हें नीतियों का लाभ लेने में सहायक नहीं हैं. सरकारी विद्यालयों में आरक्षण लागू करके दलितों के आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक दर्जे का उच्चीकरण करने का दावा किया जा रहा है परन्तु इस से अधिकतर दलितों का कोई फायदा नहीं हुआ है. उदाहरण के लिए ग्रामीण चमारों का कहना है कि उन्हें नौकरी मिलने की बहुत कम संभावनाएं हैं क्योंकि आरक्षित पदों में बहुत तीखी प्रतियोगिता है और भ्रष्टाचार है. शहरी दलितों के मुकाबले में ग्रामीण क्षेत्र के चमार जो कि उपलब्ध घटिया शिक्षा लेने के लिए बाध्य हैं और भर्ती में भ्रष्टाचार के कारण नौकरियां नहीं पा सकते हैं.
पहचान की राजनीती के कारण वर्ग में उच्च स्थान रखने वाले दलित पहचान के कारण उपलब्ध अवसरों का लाभ लेने की बेहतर स्थिति में हैं. इस के आगे पुनर्वितरण के बिना सम्मान पाने में पहचान की राजनीति की सीमाएं हैं क्योंकि देहात क्षेत्र में सामाजिक सम्मान भूमि की मिलकियत और उपभोग से जुड़ा है. क्योंकि अधिकतर दलित भूमिहीन हैं अतः वे पूरी तरह से ज़मींदारों पर आश्रित हैं. विषम मजदूरी सम्बन्ध और भूमिहीनता के कारण दलितों को काफी अपमान सहना पड़ता है और उनके मालिक उनका शोषण करते हैं. दलितों को सही रूप में इज्ज़त तभी मिल सकती जब भूमि पुनरवितरण, मजदूरी नियमितीकरण, या अन्य पुनर्वितरण तरीके अपनाये जाएँ. पहचान की राजनीती का सामाजिक जीवन में बराबरी का लक्ष्य केवल पुनर्वितरण द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है. इस का मतलब पहचान की राजनीति के मूल्य को नकारना नहीं है.
यह पहचान के नुकसानों के अन्याय हैं और इन का इलाज भी समान महत्त्व को मानना ही है. परन्तु पहचान की दलित राजनीति जो कि पुनरवितरण के एजंडे को अपनाने में असफल है छिछली है और केवल उच्च वर्ग के कुछ दलितों को ही सांकेतिक लाभ पहुंचाती है. इतना ही नहीं यह आर्थिक और सामाजिक संबंधों के अंतर्संबंध को भी नज़रंदाज़ करती है. पर्याप्त पुनर्वितरण के बिना अपने जीवन यापन के लिए दलित उच्च जातियों पर निर्भर रहने के लिए अभिशप्त हैं. यह आर्थिक निर्भरता शोषण के संबंधों को जन्म देती है और सामाजिक जीवन में बराबर की हिस्सेदारी को नकारती है जिस को पहचान की राजनीति प्राप्त करना चाहती है. देश के सब से ज्यादा उत्पीड़ित और अन्त्यज समुदायों की सामाजिक और आर्थिक जीवन में पूर्ण हिस्सेदारी के बिना भारतीय लोकतंत्र केवल आंशिक रूप में ही सफल हो पायेगा.
साभार : इकनामिक एंड पोलिटिकल वीकली
-राधा सरकार और अमर सरकार (लन्दन स्कूल ऑफ़ इकनोमिक्स)
(अनुवादक: एस.आर. दारापुरी)
उत्तर तथा मध्य भारत में दलित राजनीति अधिकतर पहचान के एजंडा के गिर्द ही रही है जिस में समान सम्मान की मांग तो की गयी परन्तु संसाधनों के पुनर्वितरण की मांग नहीं उठाई गयी. इस से वर्ग के हिसाब से उच्च दलितों का सामाजिक और आर्थिक स्तर तो ऊँचा हुआ है परन्तु अधिकतर दलितों के जीवन स्तर में कोई ख़ास परिवर्तन नहीं आया है. दलितों की समान बर्ताव की चाहत सीमित ही रहेगी जब तक शोषणकारी आर्थिक संबंधों को बदलने वाली पुनर्वितरण की राजनीति का अभाव रहेगा.
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1990 से अब तक दलितों में जाति आधारित राजनीति के उभार को किस रूप में समझा जाये? क्या हमें इसे एतहासिक तौर पर शोषित समुदाय के सशक्तिकरण के रूप में देखना चाहिए जैसा कि कुछ विद्वान इसे देखते हैं? या फिर हमें इसके लाभ और सीमाओं को अधिक संदेह की दृष्टि से देखना चाहिए? हमारा तर्क है कि जाति आधारित राजनीति सामाजिक न्याय के लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सकती जब तक कि इसमें वर्ग को शामिल नहीं किया जाता है जैसा कि वह अधिकतर करने में विफल रही है. दलित पार्टियों द्वारा अब तक अपनाई गयी पहचान की राजनीति से दलितों को बहुत थोड़ा लाभ हुआ है और कुल मिला कर इस का लाभ उन दलितों को ही मिला है जिनकी वर्ग के हिसाब से स्थिति अच्छी रही है. दलितों की समान बर्ताव की चाहत सीमित ही रहेगी जब तक शोषणकारी आर्थिक संबंधों को बदलने वाली पुनर्वितरण की राजनीति का अभाव रहेगा. हम अपने तर्कों की व्याख्या के लिए उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी (बसपा), जो कि सबसे बड़े राज्य में राजनीतिक तौर पर काफी सफल रही है, के उदाहरण को लेते हैं.
सामाजिक न्याय
नान्सी फ्रेज़र ने सामाजिक न्याय की दो अवधारणाओं में अंतर किया है: एक पुनर्वितरण पर केन्द्रित है जिस में माल और संसाधनों के न्यायपूर्ण वितरण की मांग है और दूसरी पहचान के दावों पर आधारित है जिस के केंद्र में विभिन्न सामाजिक समूहों के समान आदर के लक्ष्य की प्राप्ति है. फ्रेज़र सामाजिक न्याय के लक्ष्य की प्राप्ति के लिए संस्थागत तौर पर सामाजिक जीवन में भेदभाव के कारण पिछड़ गए समूहों की पहचान को भी उतना ही महत्त्व देती हैं. फ्रेज़र का तर्क है कि सामाजिक अन्याय को ख़त्म करने के लिए पहचान और पुनर्वितरण की राजनीति को एक साथ अपनाया जाना चाहिए क्योंकि इन में से कोई एक सांस्कृतिक और आर्थिक अन्याय को दूर करने में सक्षम नहीं है. उसका तर्क मूलरूप से तो महिलाओं के संबंध में है परन्तु यह जाति उत्पीड़न के मामले में भी सटीक बैठता है. फ्रेज़र इसे लिंग के अनुरूप आर्थिक और सांस्कृतिक पहलुओं की उपज मानती है. इसी लिए लिंग की तरह जाति आधारित अन्याय को समाप्त करने के लिए दोनों: पहचान और पुनर्वितरण के पहलुओं की ओर ध्यान देना पड़ेगा.
पहचान बनाम पुनर्वितरण
उत्तर और मध्य भारत में दलित राजनीतिक पार्टियाँ पहचान की राजनीति पर बल देती रही है जबकि उन्होंने पुनर्वितरण की राजनीति को किनारे करके न्याय की पूर्ण प्राप्ति को ही दरकिनार किया है. ऐसी पार्टियाँ और संगठन दूसरों से सम्मान की मांग को ले कर गठित होती हैं. उनकी मुख्य चिंता सामाजिक सांस्कृतिक स्तर में परिवर्तन द्वारा सामाजिक संबंधों में समानता प्राप्त करना होता है. फ्रेज़र के शब्दों में “यह सामाजिक संबंधों में समानता प्राप्त करना” की तलाश ही होती है. परन्तु सांस्कृतिक स्तर में परिवर्तन अधिक से अधिक गलत पहिचान या समूह के निम्न सामाजिक दर्जे को ही सुधार सकता है परन्तु यह कभी भी संसाधनों और माल के गलत और असमान वितरण को दुरुस्त नहीं कर सकता. यदि जाति ही वितरण का अकेला आधार होती तो यह बिलकुल वर्ग के समान होती. यदि एक जाति के सभी सदस्य अपने परम्परागत पेशों में ही लगे होते तो जाति अथवा उपजाति के सभी सदस्यों में संपत्ति की मिलकियत, शिक्षा, संपत्ति और आय में बहुत कम अंतर होता. समाज में किसी समूह की गलत पहचान का अर्थ है संसाधनों का गलत वितरण और पहचान की राजनीति से वितरण का अन्याय और पहचान ठीक हो जाती.
परन्तु जाति का यथार्थ बहुत टेढ़ा है क्योंकि जाति और वर्ग समान रूप नहीं हैं. आर्थिक व्यवस्था और आर्थिक नीति में परिवर्तन से हिन्दुओं और दलितों के बीच बहुत अंतर आया है. , भूमंडलीकरण, विनियमितीकरण, उदारीकरण और उच्च आर्थिक वृद्धि दर के कारण जाति व्यवस्था के विभिन्न हिस्सों को अलग अलग तरह के लाभ प्राप्त हुए हैं. निम्न जातियों के कुछ सदस्यों द्वारा शिक्षा और आरक्षण द्वारा रोज़गार प्राप्त करने से उनके बीच वर्गभेद बढ़ा है. वीनर ने शहरी दलितों के सामाजिक तौर पर गतिशील होने और कम शिक्षित ग्रामीण दलितों की उन्नति की कम संभावनाएं होने की बात कही है. इस प्रकार एक जाति के सभी लोग एक ही वर्ग में नहीं आते, जाति और वर्ग में अदला बदली न होने के कारण पुनर्वितरण की राजनीति की ज़रुरत है. इस आलेख के शेष भाग में हम यह दिखाने की कोशिश करेंगे कि दलित पार्टियों की जाति आधारित राजनीति किस प्रकार दलितों की बहुसंख्या के उत्पीड़न के आर्थिक और सांस्कृतिक पहलुओं का निवारण करने में असमर्थ है.
उत्तर प्रदेश का उदाहरण
उदाहरण के लिए उत्तर प्रदेश में दलित समर्थक बसपा को लीजिये. बसपा 1991 में 9.4% वोट लेकर प्रांतीय स्तर की सत्ता की प्रतियोगी पार्टी के रूप में उभरी थी. 2007 में इसने 30.6% मत ले कर भारी बहुमत प्राप्त किया था. दलितों के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक पहलु को मज़बूत करने के लिए बसपा की दो रणनीतियां थी. पहली उत्तर प्रदेश के परिदृश्य को दलित नेताओं के नाम पर पार्क और मूर्तियां लगा कर और अस्पताल, स्टेडियम, शैक्षिक संस्थानों का दलित नेताओं के नाम पर नामकरण करके संकेतक परिवर्तन करने की थी. बसपा की दूसरी नीति कोई नयी योजनायें चालू न करके प्रचलित योजनाओं के ही क्रियान्वयन को बदलना था. उदहारण के लिए बसपा ने ब्यूरोक्रेसी में दलितों को महत्वपूरण पदों पर बैठाया. 1997 में जब मायावती 6 महीने के लिए मुख्य मंत्री थीं तो उस ने 1350 नागरिक और पुलिस अधिकारियों के तबादले किये थे.
सारांश यह है कि बसपा की रणनीति ब्यूरोक्रेसी और उत्तर प्रदेश के परिदृश्य में दलितों की उपस्थिति को बढ़ाना था. स्पष्ट तौर पर बसपा ने कुछ दलितों के राजनीतिक और आर्थिक कद को बढाया है. जबकि आम दलितों की स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ है. बेशक इस से उत्तर भारत में दलित समुदाय को राजनीतिक और सांकेतिक तौर पर लाभ मिला है. दलित अब जातिभेद को चुनौती देने और राजनीति में भागीदारी करने की पहले से बेहतर स्थिति में हैं. कुछ ग्रामीण दलित प्रदेश स्तरीय संबंधों के सहारे राजनीतिक संसाधनों, आर्थिक और सामाजिक संबंधों का इस्तेमाल भी करने लगे हैं. जैफरलाट ने इसे “मूक क्रांति” की जो संज्ञा दी है वह अभी अपरिपक्व है क्योंकि पुनर्वितरण के बिना पहचान की राजनीति की शुरू से ही सीमाएं होती हैं. आर्थिक और सामाजिक अवसरों के वितरण में रेडिकल परिवर्तन लाये बिना पहचान की राजनीति सत्ता संबंधों में बहुत कम परिवर्तन ला पाती है.
सामाजिक-आर्थिक असमानता
बसपा की पहचान की राजनीति की सीमाएं स्पष्ट दिखाई देती हैं. इसकी पहचान की राजनीति और प्रतीकों के एजंडे को बढ़ावा देने के बावजूद बसपा भूमि और मजदूरी के झगड़ों में दखल देने और असमानता और गरीबी को दूर करने की नीतियाँ लागू करने में विफल रही है. सामाजिक आर्थिक असमानतायें जिन की जड़ असमान भूमि और संपत्ति की मिलकियत में हैं दलितों की पहिचान की राजनीति उन्हें नीतियों का लाभ लेने में सहायक नहीं हैं. सरकारी विद्यालयों में आरक्षण लागू करके दलितों के आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक दर्जे का उच्चीकरण करने का दावा किया जा रहा है परन्तु इस से अधिकतर दलितों का कोई फायदा नहीं हुआ है. उदाहरण के लिए ग्रामीण चमारों का कहना है कि उन्हें नौकरी मिलने की बहुत कम संभावनाएं हैं क्योंकि आरक्षित पदों में बहुत तीखी प्रतियोगिता है और भ्रष्टाचार है. शहरी दलितों के मुकाबले में ग्रामीण क्षेत्र के चमार जो कि उपलब्ध घटिया शिक्षा लेने के लिए बाध्य हैं और भर्ती में भ्रष्टाचार के कारण नौकरियां नहीं पा सकते हैं.
पहचान की राजनीती के कारण वर्ग में उच्च स्थान रखने वाले दलित पहचान के कारण उपलब्ध अवसरों का लाभ लेने की बेहतर स्थिति में हैं. इस के आगे पुनर्वितरण के बिना सम्मान पाने में पहचान की राजनीति की सीमाएं हैं क्योंकि देहात क्षेत्र में सामाजिक सम्मान भूमि की मिलकियत और उपभोग से जुड़ा है. क्योंकि अधिकतर दलित भूमिहीन हैं अतः वे पूरी तरह से ज़मींदारों पर आश्रित हैं. विषम मजदूरी सम्बन्ध और भूमिहीनता के कारण दलितों को काफी अपमान सहना पड़ता है और उनके मालिक उनका शोषण करते हैं. दलितों को सही रूप में इज्ज़त तभी मिल सकती जब भूमि पुनरवितरण, मजदूरी नियमितीकरण, या अन्य पुनर्वितरण तरीके अपनाये जाएँ. पहचान की राजनीती का सामाजिक जीवन में बराबरी का लक्ष्य केवल पुनर्वितरण द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है. इस का मतलब पहचान की राजनीति के मूल्य को नकारना नहीं है.
यह पहचान के नुकसानों के अन्याय हैं और इन का इलाज भी समान महत्त्व को मानना ही है. परन्तु पहचान की दलित राजनीति जो कि पुनरवितरण के एजंडे को अपनाने में असफल है छिछली है और केवल उच्च वर्ग के कुछ दलितों को ही सांकेतिक लाभ पहुंचाती है. इतना ही नहीं यह आर्थिक और सामाजिक संबंधों के अंतर्संबंध को भी नज़रंदाज़ करती है. पर्याप्त पुनर्वितरण के बिना अपने जीवन यापन के लिए दलित उच्च जातियों पर निर्भर रहने के लिए अभिशप्त हैं. यह आर्थिक निर्भरता शोषण के संबंधों को जन्म देती है और सामाजिक जीवन में बराबर की हिस्सेदारी को नकारती है जिस को पहचान की राजनीति प्राप्त करना चाहती है. देश के सब से ज्यादा उत्पीड़ित और अन्त्यज समुदायों की सामाजिक और आर्थिक जीवन में पूर्ण हिस्सेदारी के बिना भारतीय लोकतंत्र केवल आंशिक रूप में ही सफल हो पायेगा.
साभार : इकनामिक एंड पोलिटिकल वीकली
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