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विश्वविद्यालय साहित्य के
कब्रिस्तान है.......
संजीव ‘मज़दूर’ झा...
साहित्य के संदर्भ में
राजेंद्र यादव ने कहा था कि- ‘विश्वविद्यालय साहित्य के कब्रिस्तान हैं’। अगर समाज-शास्त्रीय अध्ययन की दृष्टि से देखा जाय
तो यह समस्या सिर्फ़ साहित्य तक ही सीमित नहीं है, बल्कि इस मान्यता का
विस्तार हमें विश्वविद्यालय की समूची संरचना में देखने को मिलता है। इस आधार पर यह
कहा जा सकता है कि- ‘विश्वविद्यालय ज्ञान के कब्रिस्तान
हैं’। लेकिन प्रश्न यह उठता है कि आखिर विश्वविद्यालयों पर
ढांचागत बहसें क्यों महत्वपूर्ण हैं? कुछ तो ऐसी खास
अपेक्षाएं होंगी कि क्यूबा के फिडेल-कास्त्रो से लेकर भारत के लगभग प्रतिरोधी
क्रांतिकारी विश्वविद्यालयी जमातों में आते-जाते रहे हैं। वैश्विक स्तर पर देखें
तो हम पाते हैं कि सामाजिक बदलाव में इस तरह की संस्थाओं की एक बड़ी भूमिका रही है।
शायद यही कारण है कि इन शिक्षण-संस्थाओं पर दुनिया भर के बड़े-बड़े विद्वानों ने
लिखा पढ़ा है। ज्ञान-परंपरा में स्वायत्ता की बातें भी इसी संदर्भ में की जाती रही
है। बरतोल्ड ब्रेख्त जब कहते हैं कि- ‘शिक्षक, सच को थोपो मत, उसे महसूस कर लेने दो खुद-ब-खुद। जो
कहते हो उसे सुनो भी’, तब आसानी से इस बात को समझा जा सकता
है कि सिर्फ़ क्रांतिकारियों की अपेक्षाएं ही जुड़ी नहीं होती है इन संस्थानों से
बल्कि वर्चस्ववादी संस्थाएं भी यहाँ अपना खेल, खेल रही होती
हैं। यही कारण है कि प्रसिद्ध मार्क्सवादी इतिहासकार एरिक होब्सबाम को दिल्ली आना
पड़ता है, जहां वे इतिहास-दृष्टि को कैसे अधिक-से-अधिक
समाज-उन्मुखी बनाया जा सकता है इसपर चर्चा कर शिक्षक तथा शोधार्थियों को तैयार
करते हैं। स्पष्ट रूप में इस बात को स्वीकारा जाता रहा है कि वर्चस्ववादी संस्थाओं
का सर्वप्रथम उद्देश्य ही होता है कि- कैसे सामाजिक-सरोकार से संबन्धित संस्थाओं
का अपने हित में इस्तेमाल करना है? यह हिटलरशाही प्रक्रिया
का नव-उपनिवेशवादी संस्करण होता है, जहां इन संस्थाओं को
ध्वस्त करना नहीं बल्कि बड़ी चालाकी से इनका इस्तेमाल करना होता है। यही कारण है कि
बड़े पैमाने पर छात्रों-शोधार्थियों की इस प्रकार से ‘कन्डीशनिंग’ की जाती है कि तमाम उम्र वे एक नकली और फ़र्जी दौड़ में शामिल रहना ही अपने
जीवन का उद्देशय बना लेते हैं। इस भटके हुए उद्देश्य को प्राप्त करना ही उनकी
सफलता है और इस युक्ति को व्यावहारिक जामा पहनते हैं सत्ता के सबसे बड़े एजेंट-
विश्वविद्यालयों के शिक्षक. इसलिए कहा जा सकता है कि- ‘राज्य
यदि बाजार है तो विश्वविद्यालय उसका विज्ञापन-केंद्र और शिक्षक इन विज्ञापनों के
मशहूर मॉडल’। इसलिए यह जरूरी हो उठता है कि जिन संस्थाओं से
हमें बेशुमार अपेक्षाएं हैं उसकी वास्तविकतायेँ क्या है,
जानने की। यह भी जानना जरूरी है कि जिन छात्रों में हम कल के क्रांतिकारी देखना
चाहते हैं, उनकी स्थिति राज्य द्वारा संक्रमित ज्ञान के पोषण
के कारण अब कैसी है?
वास्तविक ढांचा इतना क्षतिग्रस्त है कि इस प्रकार
की संस्थाओं से उम्मीद रखना साहस के साथ-साथ जोखिम भरा निर्णय भी है। छात्रों की
कंडीशनिंग इस प्रकार से की जा रही है कि उनके सामने एक अच्छी नौकरी, चमचमाती गाडियाँ और बड़े-बड़े मॉल में जाने लायक पैसे-रुपयों के अलावा
उन्हें कुछ भी देखना मुश्किल हो गया है। आज का हर द्रोण अपने अर्जुन से चिड़िए की
आँख की भांति यही व्यक्तिगत हित देखने की शिक्षा कुशलता से दिये जा रहा है, बगैर यह जाने कि इससे हस्तिनापुर का ढहना एक दिन तय है। किसी भी
सामाजिक-आंदोलन का वर्णन इस प्रकार से किया जाता है जैसे आंदोलनों में भाग लेने
वाले या तो धूर्त होते हैं या बेवकूफ़। एक षड्यंत्र के तहत दुनियाँ भर के
क्रांतिकारी विषयों पर मज़ाक-रूपी शोध करवाए जाते हैं, जिससे
शोधार्थी और उन्हें सुनने-पढ़ने वाले इन गंभीर विषयों की गंभीरता से कोसों दूर
रहें। आज कल साहित्य और सामाजिक विज्ञान के अंतर्गत विश्वविद्यालयों में करवाए जा
रहे शोध प्रबंधों में अधिकांशतः विषय दलित समस्याओं और स्त्री-समस्याओं पर होते
हैं। इन विषयों पर शोधार्थियों की ज्ञान सीमा और उनके अप्रोच को देखकर आश्चर्य
होता है। शोध में मूल्यों की हत्याओं को ऐसे गिनाया जा रहा होता है जैसे कि आम और
कटहल की गणना की गयी हो। इससे राज्य और शिक्षकों दोनों को फाइदा होता है। राज्य
जहां वर्चस्व स्थापित करता है वहीं लाखों की सैलरी उठाने वाले इन शिक्षकों को
मेहनत नहीं करना पड़ता है। घोर आश्चर्य है कि जिस देश में दिन भर धूप में झुलसने के
बाद भी करोड़ों लोगों को भर पेट खाना नसीब नहीं होता है वहाँ लाखों की सैलरी उठाने
वाले इन शिक्षकों पर कोई प्रश्न ही नहीं उठता। इंसानियत की हत्या से जुड़े हुए
विषयों की हत्या इनकी उपकल्पनाओं में पहले ही करवा दी जाती है। नहीं तो यह संभव ही
नहीं है कि उच्च-स्तरीय शिक्षा प्राप्त कर रहा कोई भी छात्र अखलाक की हत्या का
जश्न मनाए या ‘पाकिस्तान चले जाओ’ जैसे
वीभत्स और मूर्खतापूर्ण टिप्पणियों के बचाव में तर्क गढ़े। फिर चाहे वह ए.बी.वी.पी
का सदस्य ही क्यों न हो। यदि ऐसा है तो यह मान लेने में हर्ज़ नहीं होना चाहिए कि
ये संस्थाएं सामाजिक-सरोकार के ठीक विपरीत पूर्ण रूप से व्यवस्थित होकर राज्य की
दलाली में अपनी भूमिका निभा रहे हैं। शिक्षण-संस्थानों में अपनी भूमिका निभाने
वाले यही शिक्षक छात्र-संगठनों की भूमिका को भी दूषित करने का काम करते हैं।
सामाजिक-आंदोलनों के आधार पर देखा जाय तो छात्र-संगठनों की भूमिका और भी दयनीय है।
यहाँ शिक्षकों द्वारा छात्र-नेताओं को प्रशिक्षित किया जाता है कि किस प्रकार से
गांधीवाद लोहियावाद का प्रबल शत्रु है और मार्क्सवाद अंबेडकरवाद का? मसलन हासिये के लोगों की लड़ाई जिन छात्र-संगठनों की प्राथमिकता होती है
उनमें बड़ी चालाकी से आपसी भिड़ंत करवाया जाता है। इन संगठनों में शीत-युद्ध चलता
रहे इस बात की सफलता पर ही शिक्षकों की सफलता भी निर्भर करती है। यह कार्य शिक्षक
आसानी से कर लेते हैं क्योंकि अधिकांश विश्वविद्यालयों में छात्र-संगठनों के
महत्वपूर्ण पदों पर अप्रत्याशित ढंग से ये शिक्षक ही बैठे होते हैं। ये गज़ब के
प्रतिभाशाली शिक्षक और शिक्षिकाएँ होती हैं। कोई शिक्षिका धार्मिक होते हुए, संघी होते हुए भी स्त्रीवादी हैं तो कोई शिक्षक बीजेपी का प्रचारक होते
हुए अंबेडकरवादी छात्र संगठनों के नेता। कुल मिलाकर छात्र-संगठनों की स्थिति बद से
बद्तर है। आगे पढ़ाई जारी रहे या रोहित वेमुला की स्थिति का सामना न करना पड़ जाये
इसलिए इन्हें एक ऐसा मार्ग का निर्माण करना पड़ता है जहां ये सुरक्षित रह सकें। सुरक्षित
भविष्य के क्षेत्र में चूंकि मार्ग दो ही बतलाए गए है--- ‘ज्ञान
मार्ग’ और ‘भक्ति मार्ग’. ज्ञान मार्ग की जटिलता का वर्णन किया जा चुका है इसलिए भक्ति मार्ग के
अलावा कोई अन्य मार्ग बचता नहीं है. यही कारण है कि छात्र भक्त में तब्दील हो जाते
हैं। इसे ही कई लोग ‘चाटुकारिता’ के
सिद्धान्त से भी जानते हैं। यहीं से शुरू होता है छात्रों के पूर्ण विखंडन का दौर और
दूसरी भाषा में कहा जाय तो शिक्षकों के अथक परिश्रम के परिणामों का। यह प्रक्रिया
सम्पन्न होते ही यह भक्ति-मार्ग का सिद्धान्त नव-उपनिवेशवादी फ़ैक्टरी की तरह काम
करने लग जाता है जहां आने वाली नस्लें स्वतः इसका शिकार होते चली जाती है।
कुल मिलाकर देखा जाय तो यह कहना मुश्किल है कि
आंदोलनकारी ऐसी संस्थाओं से किस प्रकार उम्मीदें बनाए रख सकती है जहां राज्य के
षड्यंत्र ने सब-कुछ तहस-नहस कर रखा है। यहाँ से अपेक्षाएँ खतम होनी चाहिए या फिर
इस जर्जर इमारत को दुरुस्त किया जाय यह एक विचारणीय प्रश्न हो सकता है। साथ ही
इत्मीनान से बैठे उन शिक्षकों को राज्य अधीन होकर बौराये नाच रहे हैं, उन्हें यह भी सोचना चाहिए कि संघर्ष अभी ख़त्म नहीं हुआ है वह निराला की
आवाज में अभी भी यह कहते सुना जा सकता है कि---
“अभी न होगा मेरा अंत
अभी-अभी तो आया है
मेरे जीवन में मृदुल वसंत
अभी न होगा मेरा अंत।”
....... संजीव ‘मज़दूर’ झा (पीएचडी)
कमरा सं- 02.
गोरख पांडे छात्रावास
महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय
वर्धा-442005.
फोन नं – 07588822544.
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