नई रचनाशीलता की बड़ी उपलब्धि :
गीता गैरोला की अनूठी पुस्तक 'मल्यों की डार'
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पिछले दिनों मैंने अधिक किताबें तो नहीं पढ़ीं... फिक्शन तो बहुत कम. उत्तराखंड में राजनीतिक हलचल से भला कोई कैसे अलग रह सकता था. मगर इतनी उपलब्धि तो हुई कि उत्तराखंड की जड़ों को लेकर इस बीच खूब मंथन हुआ.
इसी बीच एक किताब हाथ लगी : गीता गैरोला की "मल्यों की डार". अपनी सांस्कृतिक जड़ों पर आधारित संस्मरणों को लेकर गीता गैरोला ने बहुत कलात्मक ढंग से एक तरह से अपना ही पुनराविष्कार किया है. छठे-सातवे-आठवे दशक के ग्रामीण गढ़वाल का जीवंत आईना है 'मल्यों की डार', वह परिदृश्य, जो हमारी नयी पीढियों के संपर्क से लगातार छूटता जा रहा है.
असल में पिछले अनेक वर्षों से हमारी आंचलिकता क्षेत्रीय बनती चली गयी है. कहने के लिए तो हम क्षेत्रीयता की बातें अधिक करते दिखाई देने लगे हैं, मगर हमारी अपनी पहचान हमसे ही अलग छिटककर हमें इतिहास का ऐसा अलग टुकड़ा सौंप रही है जो वास्तव में हम हैं ही नहीं.
जैसे पिछले दो वर्षों में मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद बहुत तीव्रता से महसूस हुआ है कि जिस व्यापक और मानवीय राष्ट्रवाद के हम पिछली डेढ़-दो शताब्दियों से आदी थे, एकाएक वह ऐसे संकीर्ण राष्ट्रवाद के रूप में विकसित हो गयी, जिसे 'राष्ट्रवाद' नाम देने में ही हमें हिचक होने लगी है. अगर आपको रवीन्द्रनाथ टैगोर के राष्ट्रवाद पर दिए गए उन पांच बहुचर्चित भाषणों की याद हो, जो उन्होंने संसार के अनेक देशों में जाकर दिए थे, और जिसके आधार पर ही आजाद भारत के नागरिकों ने राष्ट्र की अवधारणा को ग्रहण किया, उस अवधारणा को कितनी निर्ममता से मोदी के संकीर्ण राष्ट्रवाद ने चूर-चूर कर दिया, इसे आज हम साक्षात् महसूस कर सकते हैं.
'मल्यों का डार' के सन्दर्भ में राष्ट्रवाद की बहस को बीच में लाना कुछ लोगों को अटपटा लग सकता है, मगर मैं इसे जानबूझकर इसलिए प्रस्तुत कर रहा हूँ क्योंकि उत्तराखंड राज्य के निर्माण के बाद हमारी क्षेत्रीयता की अवधारणा में भी ऐसा ही बेहूदा फर्क आया है. उम्मीद की जा रही थी कि राज्य बनने के बाद हमारी क्षेत्रीयता अधिक व्यापक और मानवीय होगी, मगर वह और अधिक संकीर्ण ही हुई है.
अगर हम हिंदी गद्य में उत्तराखंड के अवदान पर नजर डालें तो यह बात पूरे विश्वास का साथ कही जा सकती है कि आजाद भारत के हिंदी कथा साहित्य की चर्चा उत्तराखंड के बिना संभव ही नहीं है. जिसे आज प्रेमचंदोत्तर कथा-साहित्य के रूप में याद किया जाता है, वह तीन उत्तराखंडी दिग्गजों के बिना संभव ही नहीं है - नाटककार-उपन्यासकार गोविन्दबल्लभ पन्त, प्रगतिवादी कथाकार रमाप्रसाद घिल्डियाल 'पहाड़ी' और मनोविश्लेषणात्मक कथाकार इलाचंद्र जोशी. इन सभी को पहाड़ी लेखकों के रूप में कम, हिंदी कथा-साहित्य के युग-प्रवर्तक लेखकों के रूप में ही याद किया जाता है.
इन तीनों कथाकारों के सामानांतर हिंदी की पहली महत्वपूर्ण स्त्री लेखिका महादेवी वर्मा का सम्बन्ध भी उत्तराखंड के साथ रहा है और उनके गद्य साहित्य के तो अनेक कालजयी चरित्र उत्तराखंड से हैं. ये चरित्र केवल कथा-चरित्र ही नहीं हैं, इस क्षेत्र की सांस्कृतिक पहचान को भी अपनी समग्रता में उजागर करते हैं.
आजादी के बाद के हिंदी कथा-साहित्य में तो उत्तराखंड का पहली बार वास्तविक परिचय ही यहाँ के कथाकारों ने दिया. एक ओर उत्तराखंड की वीरगाथाओं और ग्रामीण कुमाऊँ के अनछुए पक्षों को लेकर शैलेश मटियानी सामने आये तो उसके शहरी-कस्बाई चरित्रों की ताजगी को लेकर शिवानी आयीं, जिनकी लोकप्रियता को उनका समकालीन कोई और हिंदी कथाकार आज तक नहीं छू पाया. पश्चिमी उत्तराखंड के ग्रामीण और जनजातीय परिवेश को लेकर विद्यासागर नौटियाल सामने आये तो एक छोटे से सांस्कृतिक खंड अल्मोड़ा की निराली जड़ों को लेकर सामने आये मनोहरश्याम जोशी जिन्होंने अपनी आंचलिकता को हिंदी की मुख्यधारा की प्रकृति में ऐसे घुला-मिला दिया मानो वे हिंदी के ही मूल शब्द हों. ऐसा ही काम किया शेखर जोशी ने 'दाज्यू' और 'कोशी का घटवार' के जरिये और हिमांशु जोशी, पंकज बिष्ट, रमेशचन्द्र शाह, राधाकृष्ण कुकरेती, दयानंद अनंत, मृणाल पांडे, स्वरूप ढौंडियाल, क्षितिज शर्मा, मोहन थपलियाल आदि अनेक कथाकारों ने. इनके अलावा दर्जनों कथाकार हैं, जिनका उल्लेख किया जा सकता है, मगर यहाँ पर केवल उन्हीं कथाकारों का जिक्र है, जिन्होंने हिंदी कहानी और उपन्यास के क्षेत्र में अपनी जड़ों की भाषा के जरिये नयी जमीन तोड़ी है.
'मल्यों की डार' में लेखिका के बचपन और किशोर उम्र से जुड़े हुए अठारह कथात्मक संस्मरण हैं जो उस परिवेश की मिट्टी की गंध से तो सराबोर हैं ही, अपनी लोक भाषा का वह जातीय मुहावरा भी प्रस्तुत करती हैं, जिसने हिदी भाषा और संस्कृति को समृद्ध किया. इन रचनाओं में गीता के पूर्ववर्ती उत्तराखंडी स्त्री कथाकारों महादेवी वर्मा और शिवानी की छाया नहीं, उनका रचनात्मक वैभव भी साफ झलकता है. ये रोचक किस्से भी हैं और स्मृतियों के भरपूर खजाने भी. 'प्यारा चक्खू' तो महादेवी के चरित्रों की संवेदना को साक्षात् ला खड़ा करता है. 'मल्यों की डार', कोदे की फंकी', 'नजीब दादा', 'ओ ना मासी धंग', 'स्याही की टिक्की' आदि अनेक रचनाओं में भोला बचपन ही नहीं, वह शिशु उत्तराखंड भी है, जिसकी कल्पना इस नवजात राज्य के संस्कारों के रूप में यहाँ के लोगों ने की थी, मगर जिसकी यहाँ के लोगों ने क्षेत्रीयता के अति-उत्साह या जुनून में असमय हत्या कर दी है. यह कम आश्चर्यजनक नहीं है कि गढ़वाल और कुमाऊँ, पहाड़ और मैदान जितना पिछले डेढ़ दशक में अपनी घिनौनी शक्ल के साथ उभरा है, शायद इससे पहले कभी नहीं. अभी पिछले वर्ष की राजनीतिक घटना ने तो मानो यहाँ के लोगों को बदबूदार चुल्लू भर पानी सौंप दिया है.
'मल्यों की डार' की भाषा को पढ़ते हुए मुझे अपने प्रिय कथाकार विद्यासागर नौटियाल की याद आती रही. मैंने एक बार नौटियाल जी से कहा था कि क्या कारण है कि आपके साहित्य में प्रयुक्त गढ़वाली शब्दों और वाक्यों को पढ़ते हुए मुझे वह कुमाऊनी ही लगती है जब कि कई बार गढ़वाली के अनेक शब्दों को समझने में दिक्कत होती है. विद्यासागर जी ने बताया था कि उनकी माँ कुमाऊँ-गढ़वाल के दुसाद क्षेत्र की थीं इसलिए उनकी भाषा में गढ़वाली-कुमाऊनी का कलात्मक मिश्रण है. ठीक यही बात मुझे गीते गैरोला की भाषा में भी लगी.
एक और उपलब्धि इस रचना में विचारधाराओं या वैचारिक आग्रहों के स्थान पर मानवीय स्पर्शों का चयन है, जो आज के रचनाकारों में कम दिखाई देता है... नए लेखकों में तो बहुत कम.
इस सुन्दर कलात्मक संग्रह के लिए गीता गैरोला सचमुच बधाई की पात्र हैं. आशा है यह संग्रह हिंदी कथा-साहित्य के खजाने को और अधिक समृद्ध करेगा.
गीता गैरोला की अनूठी पुस्तक 'मल्यों की डार'
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Laxman Singh Bisht Batrohi
-----पिछले दिनों मैंने अधिक किताबें तो नहीं पढ़ीं... फिक्शन तो बहुत कम. उत्तराखंड में राजनीतिक हलचल से भला कोई कैसे अलग रह सकता था. मगर इतनी उपलब्धि तो हुई कि उत्तराखंड की जड़ों को लेकर इस बीच खूब मंथन हुआ.
इसी बीच एक किताब हाथ लगी : गीता गैरोला की "मल्यों की डार". अपनी सांस्कृतिक जड़ों पर आधारित संस्मरणों को लेकर गीता गैरोला ने बहुत कलात्मक ढंग से एक तरह से अपना ही पुनराविष्कार किया है. छठे-सातवे-आठवे दशक के ग्रामीण गढ़वाल का जीवंत आईना है 'मल्यों की डार', वह परिदृश्य, जो हमारी नयी पीढियों के संपर्क से लगातार छूटता जा रहा है.
असल में पिछले अनेक वर्षों से हमारी आंचलिकता क्षेत्रीय बनती चली गयी है. कहने के लिए तो हम क्षेत्रीयता की बातें अधिक करते दिखाई देने लगे हैं, मगर हमारी अपनी पहचान हमसे ही अलग छिटककर हमें इतिहास का ऐसा अलग टुकड़ा सौंप रही है जो वास्तव में हम हैं ही नहीं.
जैसे पिछले दो वर्षों में मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद बहुत तीव्रता से महसूस हुआ है कि जिस व्यापक और मानवीय राष्ट्रवाद के हम पिछली डेढ़-दो शताब्दियों से आदी थे, एकाएक वह ऐसे संकीर्ण राष्ट्रवाद के रूप में विकसित हो गयी, जिसे 'राष्ट्रवाद' नाम देने में ही हमें हिचक होने लगी है. अगर आपको रवीन्द्रनाथ टैगोर के राष्ट्रवाद पर दिए गए उन पांच बहुचर्चित भाषणों की याद हो, जो उन्होंने संसार के अनेक देशों में जाकर दिए थे, और जिसके आधार पर ही आजाद भारत के नागरिकों ने राष्ट्र की अवधारणा को ग्रहण किया, उस अवधारणा को कितनी निर्ममता से मोदी के संकीर्ण राष्ट्रवाद ने चूर-चूर कर दिया, इसे आज हम साक्षात् महसूस कर सकते हैं.
'मल्यों का डार' के सन्दर्भ में राष्ट्रवाद की बहस को बीच में लाना कुछ लोगों को अटपटा लग सकता है, मगर मैं इसे जानबूझकर इसलिए प्रस्तुत कर रहा हूँ क्योंकि उत्तराखंड राज्य के निर्माण के बाद हमारी क्षेत्रीयता की अवधारणा में भी ऐसा ही बेहूदा फर्क आया है. उम्मीद की जा रही थी कि राज्य बनने के बाद हमारी क्षेत्रीयता अधिक व्यापक और मानवीय होगी, मगर वह और अधिक संकीर्ण ही हुई है.
अगर हम हिंदी गद्य में उत्तराखंड के अवदान पर नजर डालें तो यह बात पूरे विश्वास का साथ कही जा सकती है कि आजाद भारत के हिंदी कथा साहित्य की चर्चा उत्तराखंड के बिना संभव ही नहीं है. जिसे आज प्रेमचंदोत्तर कथा-साहित्य के रूप में याद किया जाता है, वह तीन उत्तराखंडी दिग्गजों के बिना संभव ही नहीं है - नाटककार-उपन्यासकार गोविन्दबल्लभ पन्त, प्रगतिवादी कथाकार रमाप्रसाद घिल्डियाल 'पहाड़ी' और मनोविश्लेषणात्मक कथाकार इलाचंद्र जोशी. इन सभी को पहाड़ी लेखकों के रूप में कम, हिंदी कथा-साहित्य के युग-प्रवर्तक लेखकों के रूप में ही याद किया जाता है.
इन तीनों कथाकारों के सामानांतर हिंदी की पहली महत्वपूर्ण स्त्री लेखिका महादेवी वर्मा का सम्बन्ध भी उत्तराखंड के साथ रहा है और उनके गद्य साहित्य के तो अनेक कालजयी चरित्र उत्तराखंड से हैं. ये चरित्र केवल कथा-चरित्र ही नहीं हैं, इस क्षेत्र की सांस्कृतिक पहचान को भी अपनी समग्रता में उजागर करते हैं.
आजादी के बाद के हिंदी कथा-साहित्य में तो उत्तराखंड का पहली बार वास्तविक परिचय ही यहाँ के कथाकारों ने दिया. एक ओर उत्तराखंड की वीरगाथाओं और ग्रामीण कुमाऊँ के अनछुए पक्षों को लेकर शैलेश मटियानी सामने आये तो उसके शहरी-कस्बाई चरित्रों की ताजगी को लेकर शिवानी आयीं, जिनकी लोकप्रियता को उनका समकालीन कोई और हिंदी कथाकार आज तक नहीं छू पाया. पश्चिमी उत्तराखंड के ग्रामीण और जनजातीय परिवेश को लेकर विद्यासागर नौटियाल सामने आये तो एक छोटे से सांस्कृतिक खंड अल्मोड़ा की निराली जड़ों को लेकर सामने आये मनोहरश्याम जोशी जिन्होंने अपनी आंचलिकता को हिंदी की मुख्यधारा की प्रकृति में ऐसे घुला-मिला दिया मानो वे हिंदी के ही मूल शब्द हों. ऐसा ही काम किया शेखर जोशी ने 'दाज्यू' और 'कोशी का घटवार' के जरिये और हिमांशु जोशी, पंकज बिष्ट, रमेशचन्द्र शाह, राधाकृष्ण कुकरेती, दयानंद अनंत, मृणाल पांडे, स्वरूप ढौंडियाल, क्षितिज शर्मा, मोहन थपलियाल आदि अनेक कथाकारों ने. इनके अलावा दर्जनों कथाकार हैं, जिनका उल्लेख किया जा सकता है, मगर यहाँ पर केवल उन्हीं कथाकारों का जिक्र है, जिन्होंने हिंदी कहानी और उपन्यास के क्षेत्र में अपनी जड़ों की भाषा के जरिये नयी जमीन तोड़ी है.
'मल्यों की डार' में लेखिका के बचपन और किशोर उम्र से जुड़े हुए अठारह कथात्मक संस्मरण हैं जो उस परिवेश की मिट्टी की गंध से तो सराबोर हैं ही, अपनी लोक भाषा का वह जातीय मुहावरा भी प्रस्तुत करती हैं, जिसने हिदी भाषा और संस्कृति को समृद्ध किया. इन रचनाओं में गीता के पूर्ववर्ती उत्तराखंडी स्त्री कथाकारों महादेवी वर्मा और शिवानी की छाया नहीं, उनका रचनात्मक वैभव भी साफ झलकता है. ये रोचक किस्से भी हैं और स्मृतियों के भरपूर खजाने भी. 'प्यारा चक्खू' तो महादेवी के चरित्रों की संवेदना को साक्षात् ला खड़ा करता है. 'मल्यों की डार', कोदे की फंकी', 'नजीब दादा', 'ओ ना मासी धंग', 'स्याही की टिक्की' आदि अनेक रचनाओं में भोला बचपन ही नहीं, वह शिशु उत्तराखंड भी है, जिसकी कल्पना इस नवजात राज्य के संस्कारों के रूप में यहाँ के लोगों ने की थी, मगर जिसकी यहाँ के लोगों ने क्षेत्रीयता के अति-उत्साह या जुनून में असमय हत्या कर दी है. यह कम आश्चर्यजनक नहीं है कि गढ़वाल और कुमाऊँ, पहाड़ और मैदान जितना पिछले डेढ़ दशक में अपनी घिनौनी शक्ल के साथ उभरा है, शायद इससे पहले कभी नहीं. अभी पिछले वर्ष की राजनीतिक घटना ने तो मानो यहाँ के लोगों को बदबूदार चुल्लू भर पानी सौंप दिया है.
'मल्यों की डार' की भाषा को पढ़ते हुए मुझे अपने प्रिय कथाकार विद्यासागर नौटियाल की याद आती रही. मैंने एक बार नौटियाल जी से कहा था कि क्या कारण है कि आपके साहित्य में प्रयुक्त गढ़वाली शब्दों और वाक्यों को पढ़ते हुए मुझे वह कुमाऊनी ही लगती है जब कि कई बार गढ़वाली के अनेक शब्दों को समझने में दिक्कत होती है. विद्यासागर जी ने बताया था कि उनकी माँ कुमाऊँ-गढ़वाल के दुसाद क्षेत्र की थीं इसलिए उनकी भाषा में गढ़वाली-कुमाऊनी का कलात्मक मिश्रण है. ठीक यही बात मुझे गीते गैरोला की भाषा में भी लगी.
एक और उपलब्धि इस रचना में विचारधाराओं या वैचारिक आग्रहों के स्थान पर मानवीय स्पर्शों का चयन है, जो आज के रचनाकारों में कम दिखाई देता है... नए लेखकों में तो बहुत कम.
इस सुन्दर कलात्मक संग्रह के लिए गीता गैरोला सचमुच बधाई की पात्र हैं. आशा है यह संग्रह हिंदी कथा-साहित्य के खजाने को और अधिक समृद्ध करेगा.
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