आप साथ आएंगे न इस अनोखे प्रयास में...क्योंकि ये और गांवों तक जाना है...
Mayank Saxena की वाल से साभार
साथी Mukesh Jangir से मेरी पहली मुलाकात शायद इंडिया अगेन्स्ट करप्शन के आंदोलन के दौरान हुई थी, मैं पत्रकार था और ये दिल्ली में नौकरी करते थे...इनसे परिचय बस मुलाकातों का ही था...दोबारा कार्टूनिस्ट असीम त्रिवेदी के फ्रीडम फास्ट के दौरान मुलाकात हुई...मुकेश से कोई बेहद करीबी सम्बंध नहीं बने लेकिन इनका जज़्बा कमाल लगता था...ये भी दिखने लगा था कि इनके अन्ना आंदोलन को लेकर हम में से कई की तरह न केवल भ्रम टूटे थे...बल्कि ये दिन पर दिन और गंभीर और सरोकारों को लेकर समझदार और जनवादी होते जा रहे थे...फिर मुलाक़ात भी नहीं हुई और दिल्ली भी छूट गया...
लेकिन हाल में एक रोज़ मुकेश का मैसेज इनबॉक्स में फ्लैश हुआ...बात आगे बढ़ी और फोन पर बात हुई। मुकेश भाई ने वह कर दिखाया है, जिसके बारे में हम सब अभी तक योजना या फेसबुक स्टेटस से आगे नहीं बढ़ सके हैं...मुकेश जांगीर ने मराठवाड़ा के एक गांव को अपने युवा साथियों के साथ मिल कर सूखे से उबार लिया है...
आप को यह पढ़ कर यकीन नहीं हो रहा होगा...मुझे भी सुन कर नहीं हुआ था, लेकिन अब मैं हैरान और आह्लादित हूं, क्योंकि एक-डेढ़ हफ्ते में मैं इस नज़ारे को अपनी आंखों से भी जा कर देख आऊंगा...अन्ना के आंदोलन के सच से सपनों के टूटने के बाद भी कई युवा थे, जिन्होंने आस नहीं छोड़ी थी...इनके मन में न केवल उम्मीद थी, बल्कि ये एक बेहतर और धर्मनिरपेक्ष भारत का सपना भी देख रहे थे। मुकेश जांगीर को ऐसे में एक दिन आईएसी से जुड़े रहे, महाराष्ट्र के मराठवाड़ा के एक गांव के कुछ युवाओं ने सम्पर्क किया और सूखे के बढते असर के बारे में बताया...बात होती रही और फिर तय हुआ कि कुछ करना होगा...
ये हमने कई किस्सों में सुना है लेकिन अपने पास हो, तो यकीन मुश्किल होता है कि मुकेश जांगीर ने दिल्ली की अपनी नौकरी छो़ड़ी और पुणे में नौकरी खोजी, जिससे कि वह इस गांव में काम शुरु कर सकें...
हां, मुझे भी नहीं पता था कि मुकेश खुद भी महाराष्ट्र के रहने वाले हैं...लेकिन वह नौकरी छोड़ पुणे पहुंच गए, नई नौकरी के साथ...और परभमी ज़िले के इस गांव बोरवंद में स्थानीय युवाओं के साथ काम में जुट गए कि कैसे इस गांव को सूखे की चपेट से निकाला जा सके...गांव के 13 कुएं सूख चुके थे, मौसमी धारा थी, जो बारिश न होने से सूखी थी...ज़मीन के नीचे भी पानी नहीं बचा था...तय हुआ कि गांव को कचरे से साफ किया जाएगा...गांव से कई ट्रॉली कचरा निकला तो गांव वाले भी साथ आ गए...फिर तय हुआ कि नदी को गहरा करना है...एक पठारी इलाके में यह श्रमदान से लगभग असम्भव काम है...लेकिन यह हुआ...नदी तो गहरी हो गई, लेकिन बारिश नहीं हुई...निराशा के इस समय में एक दिन के लिए स्थानीय नहर में बांध से पानी छोड़ा गया...तो ग्रामीण साथी मिल कर पाइपों के ज़रिए, सूखी हुई धारा-बरसाती नदी में पानी खींच लाए...नदी गहरी हो चुकी थी...पानी रीचार्ज हो रहा था...24 घंटे बाद, गांव के 13 के 13 कुओं में पानी था...वृक्षारोपण हुआ...तालाब खोदे गए...ग्रामीणों ने खुद एक बांध बना लिया...और अंततः ढाई साल की मेहनत रंग लाई...गांव के हालात बेहतर हैं...ज़मीन के नीचे पानी है...इस साल गांव में सूखे का आखिरी साल होगा.,..गांव वाले नया बांध भी खुद ही बना रहे हैं...लेकिन कुछ और भी हुआ है...
क्या हुआ है...हुआ यह है कि ग्रामवासियों ने इन युवाओं को ग्रामसभा का चुनाव लड़वाया...9 में से 8 प्रत्याशी चुनाव जीत कर ग्राम सभा के सदस्य बने...अब ग्राम सभा इन युवाओं की है...प्रधान भी इन्ही में से एक है...आप सोच रहे होंगे कि मुकेश जांगी ग्रामप्रधान होंगे...नहीं, मुकेश चुनाव नहीं लड़े थे...क्योंकि यह मुकेश का अपना गांव नहीं है...सब कुछ अपने फायदे के लिए नहीं किया जाता है...इस गांव में डेढ़ दशक पहले साम्प्रदायिक तनाव बढ़ा था, निशान आज तक थे...लेकिन अब साथ श्रमदान ने सारा भेद मिटा दिया है...ये कहानी आने वाले भारत का दृश्य दिखाती है...और यकीन मानिये ये युवा मिल कर साम्प्रदायिक फासीवादी और पूंजीवादी शक्तियों को उखा़ड़ फेंकेंगे...
अब एक और अहम बात...मैंने और मुकेश ने एक बीड़ा उठाया है...वह ये है कि हम इस गांव में ग्रामीणों के लिए एक पुस्तकालय स्थापित करेंगे...और इसके लिए आप सब की मदद की दरकार है...नहीं, नहीं...हमको पैसे नहीं चाहिए...ग्राम सभा हमको जगह दे चुकी है...फर्नीचर भी वही देगी...हम को आपसे किताबें चाहिए...गांव के बच्चों, बड़ों, औरतों और बुज़ुर्गों के लिए किताबें...आपके पास कई किताबें होंगी, जो आप पढ़ चुके होंगे...ये किताबें हमको चाहिए...ये साहित्य की हों, समाज की हों, बच्चों की हों, स्कूल की हों, शिक्षाप्रद हों, संगीत की हों, कला की हों या सिर्फ तस्वीरों की और सैर सपाटे की...याद रहे, कूड़े में फेंकने वाली किताबें न दीजिएगा...ये मदद है, भीख नहीं...दुनिया को बदलने निकले इन नौजवानों को आपका साथ चाहिए...हमारा लक्ष्य अगस्त तक पुस्तकालय शुरु करने का है...आपका साथ मिला तो जुलाई में ही शुरु कर देंगे...और हां, किताबें मराठी औऱ हिंदी में ही चाहिए....
आप साथ आएंगे न इस अनोखे प्रयास में...क्योंकि ये और गांवों तक जाना है...
Mayank Saxena की वाल से साभार
Mayank Saxena की वाल से साभार
साथी Mukesh Jangir से मेरी पहली मुलाकात शायद इंडिया अगेन्स्ट करप्शन के आंदोलन के दौरान हुई थी, मैं पत्रकार था और ये दिल्ली में नौकरी करते थे...इनसे परिचय बस मुलाकातों का ही था...दोबारा कार्टूनिस्ट असीम त्रिवेदी के फ्रीडम फास्ट के दौरान मुलाकात हुई...मुकेश से कोई बेहद करीबी सम्बंध नहीं बने लेकिन इनका जज़्बा कमाल लगता था...ये भी दिखने लगा था कि इनके अन्ना आंदोलन को लेकर हम में से कई की तरह न केवल भ्रम टूटे थे...बल्कि ये दिन पर दिन और गंभीर और सरोकारों को लेकर समझदार और जनवादी होते जा रहे थे...फिर मुलाक़ात भी नहीं हुई और दिल्ली भी छूट गया...
लेकिन हाल में एक रोज़ मुकेश का मैसेज इनबॉक्स में फ्लैश हुआ...बात आगे बढ़ी और फोन पर बात हुई। मुकेश भाई ने वह कर दिखाया है, जिसके बारे में हम सब अभी तक योजना या फेसबुक स्टेटस से आगे नहीं बढ़ सके हैं...मुकेश जांगीर ने मराठवाड़ा के एक गांव को अपने युवा साथियों के साथ मिल कर सूखे से उबार लिया है...
आप को यह पढ़ कर यकीन नहीं हो रहा होगा...मुझे भी सुन कर नहीं हुआ था, लेकिन अब मैं हैरान और आह्लादित हूं, क्योंकि एक-डेढ़ हफ्ते में मैं इस नज़ारे को अपनी आंखों से भी जा कर देख आऊंगा...अन्ना के आंदोलन के सच से सपनों के टूटने के बाद भी कई युवा थे, जिन्होंने आस नहीं छोड़ी थी...इनके मन में न केवल उम्मीद थी, बल्कि ये एक बेहतर और धर्मनिरपेक्ष भारत का सपना भी देख रहे थे। मुकेश जांगीर को ऐसे में एक दिन आईएसी से जुड़े रहे, महाराष्ट्र के मराठवाड़ा के एक गांव के कुछ युवाओं ने सम्पर्क किया और सूखे के बढते असर के बारे में बताया...बात होती रही और फिर तय हुआ कि कुछ करना होगा...
ये हमने कई किस्सों में सुना है लेकिन अपने पास हो, तो यकीन मुश्किल होता है कि मुकेश जांगीर ने दिल्ली की अपनी नौकरी छो़ड़ी और पुणे में नौकरी खोजी, जिससे कि वह इस गांव में काम शुरु कर सकें...
हां, मुझे भी नहीं पता था कि मुकेश खुद भी महाराष्ट्र के रहने वाले हैं...लेकिन वह नौकरी छोड़ पुणे पहुंच गए, नई नौकरी के साथ...और परभमी ज़िले के इस गांव बोरवंद में स्थानीय युवाओं के साथ काम में जुट गए कि कैसे इस गांव को सूखे की चपेट से निकाला जा सके...गांव के 13 कुएं सूख चुके थे, मौसमी धारा थी, जो बारिश न होने से सूखी थी...ज़मीन के नीचे भी पानी नहीं बचा था...तय हुआ कि गांव को कचरे से साफ किया जाएगा...गांव से कई ट्रॉली कचरा निकला तो गांव वाले भी साथ आ गए...फिर तय हुआ कि नदी को गहरा करना है...एक पठारी इलाके में यह श्रमदान से लगभग असम्भव काम है...लेकिन यह हुआ...नदी तो गहरी हो गई, लेकिन बारिश नहीं हुई...निराशा के इस समय में एक दिन के लिए स्थानीय नहर में बांध से पानी छोड़ा गया...तो ग्रामीण साथी मिल कर पाइपों के ज़रिए, सूखी हुई धारा-बरसाती नदी में पानी खींच लाए...नदी गहरी हो चुकी थी...पानी रीचार्ज हो रहा था...24 घंटे बाद, गांव के 13 के 13 कुओं में पानी था...वृक्षारोपण हुआ...तालाब खोदे गए...ग्रामीणों ने खुद एक बांध बना लिया...और अंततः ढाई साल की मेहनत रंग लाई...गांव के हालात बेहतर हैं...ज़मीन के नीचे पानी है...इस साल गांव में सूखे का आखिरी साल होगा.,..गांव वाले नया बांध भी खुद ही बना रहे हैं...लेकिन कुछ और भी हुआ है...
क्या हुआ है...हुआ यह है कि ग्रामवासियों ने इन युवाओं को ग्रामसभा का चुनाव लड़वाया...9 में से 8 प्रत्याशी चुनाव जीत कर ग्राम सभा के सदस्य बने...अब ग्राम सभा इन युवाओं की है...प्रधान भी इन्ही में से एक है...आप सोच रहे होंगे कि मुकेश जांगी ग्रामप्रधान होंगे...नहीं, मुकेश चुनाव नहीं लड़े थे...क्योंकि यह मुकेश का अपना गांव नहीं है...सब कुछ अपने फायदे के लिए नहीं किया जाता है...इस गांव में डेढ़ दशक पहले साम्प्रदायिक तनाव बढ़ा था, निशान आज तक थे...लेकिन अब साथ श्रमदान ने सारा भेद मिटा दिया है...ये कहानी आने वाले भारत का दृश्य दिखाती है...और यकीन मानिये ये युवा मिल कर साम्प्रदायिक फासीवादी और पूंजीवादी शक्तियों को उखा़ड़ फेंकेंगे...
अब एक और अहम बात...मैंने और मुकेश ने एक बीड़ा उठाया है...वह ये है कि हम इस गांव में ग्रामीणों के लिए एक पुस्तकालय स्थापित करेंगे...और इसके लिए आप सब की मदद की दरकार है...नहीं, नहीं...हमको पैसे नहीं चाहिए...ग्राम सभा हमको जगह दे चुकी है...फर्नीचर भी वही देगी...हम को आपसे किताबें चाहिए...गांव के बच्चों, बड़ों, औरतों और बुज़ुर्गों के लिए किताबें...आपके पास कई किताबें होंगी, जो आप पढ़ चुके होंगे...ये किताबें हमको चाहिए...ये साहित्य की हों, समाज की हों, बच्चों की हों, स्कूल की हों, शिक्षाप्रद हों, संगीत की हों, कला की हों या सिर्फ तस्वीरों की और सैर सपाटे की...याद रहे, कूड़े में फेंकने वाली किताबें न दीजिएगा...ये मदद है, भीख नहीं...दुनिया को बदलने निकले इन नौजवानों को आपका साथ चाहिए...हमारा लक्ष्य अगस्त तक पुस्तकालय शुरु करने का है...आपका साथ मिला तो जुलाई में ही शुरु कर देंगे...और हां, किताबें मराठी औऱ हिंदी में ही चाहिए....
आप साथ आएंगे न इस अनोखे प्रयास में...क्योंकि ये और गांवों तक जाना है...
Mayank Saxena की वाल से साभार
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