खेल-खेल में मेरे नायक
मोहम्मद अली
Priya Darshan
कल मोहम्मद अली के निधन की ख़बर सुनी तो बचपन का वह रोमांच याद आया जो ऐसे नायाब खिलाड़ियों- मोहम्मद अली, पेले, दारा सिंह, मिल्खा सिंह ध्यानचंद या सुनील गावसकर जैसे नामों से पैदा होता था। अब उस नायक पूजा की उम्र नहीं रही, लेकिन कल ही कवितााएं लिखने की कोशिश की। हमेशा की तरह अपनी सपाट शैली में। इन्हें साहित्य अकादेमी के काव्यपाठ में सुना भी आया। शायद इनमें कुछ नायक और कविताएं और जोड़ूंगा। फिलहाल मोहम्मद अली और गावसकर पर केंद्रित ये दो कविताएं अब आपकी नज़र।
खेल-खेल में मेरे नायक
मोहम्मद अली
सबसे अकल्पनीय मेरे लिए जीवन में
मुक्केबाज़ी का कोई मुक़ाबला देखना रहा।
बर्बर प्रहारों और लहूलुहान-ज़ख़्मी चेहरों के बीच
रोमांच का कौन सा खेल होता है, यह कभी मेरी समझ में नहीं आया
सबसे ज़्यादा दूरी मैं बड़बोलेपन से बरतता रहा जो तुम्हारे भीतर कूट-कूट कर भरा था।
सफलताएं और उससे मिलने वाली चमक-दमक मुझे कभी बहुत लुभा नहीं पाईं
मेरी दराजों में बड़े या छोटे किसी भी सितारे का कोई ऑटोग्राफ़ नहीं है।
फिर वह कौन सी चीज़ है मेरे कैसियस क्ले मेरे मोहम्मद अली
कि तुम्हारे जाने के बाद मुझे भी अपने भीतर कुछ बुझा हुआ सा लग रहा है?
क्या बचपन की कौतूहल भरी चर्चाओं से बनने वाला तुम्हारा वह महानायकत्व
जिसमें तुम लगभग अपराजेय लगते थे? हालांकि पराजित तुम्हें भी होना ही पड़ा था।
या उस अश्वेत अस्मिता-बोध का धुंधला सा भान जो गोरे वर्चस्व की दुनिया में तुम्हारी मौजूदगी बहुतों के भीतर पैदा करती थी?
या फिर बड़े होने के बाद की यह समझदारी कि मुक्केबाज़ी को करिअर बनाने वाले तुम
युद्धों से नफ़रत करते रहे और वियतनाम युद्ध के विरोध के खमियाज़े में जेल भी काटी और कुछ दिन की पाबंदी भी झेली?
वजह कुछ भी हो सकती है मोहम्मद अली,
लेकिन यह सच है कि इतने दिनों बाद तुम्हारे निधन की खबर से मेरे भीतर भी कुछ चटखा है।
याद आया है कि नायक चाहे जितने भी बड़े हों, वे छूटते जाते हैं, छूटती जाती हैं ज़िंदगियां
तुम भी तो धीरे-धीरे अदृश्य होते जा रहे थे हमारे लिए
पिछले कुछ वर्षों की अचेतन स्मृतिविहीनता के गर्त में डूबे हुए।
मृत्यु ने तुम्हें इस यंत्रणा से उबार लिया।
दरअसल फिर से याद दिलाते हुए
कि कोई चाहे कितना भी बड़ा क्यों न हो,
मोहम्मद अली भी क्यों न हो,
समय के रिंग में मौत अंततः एक दिन उसे हरा देती है।
लेकिन फिर भी कुछ है जो बचा रहता है
हमारे शोक, हमारी स्तब्धता, हमारी कातरता के बीच
विस्मृति के विरुद्ध किसी अनायास या सायास कार्रवाई की तरह
भरोसा दिलाता हुआ कि मृत्यु भले मार दे, मोहम्मद अली हमारे भीतर बचा रहेगा।
मुक्केबाज़ी का कोई मुक़ाबला देखना रहा।
बर्बर प्रहारों और लहूलुहान-ज़ख़्मी चेहरों के बीच
रोमांच का कौन सा खेल होता है, यह कभी मेरी समझ में नहीं आया
सबसे ज़्यादा दूरी मैं बड़बोलेपन से बरतता रहा जो तुम्हारे भीतर कूट-कूट कर भरा था।
सफलताएं और उससे मिलने वाली चमक-दमक मुझे कभी बहुत लुभा नहीं पाईं
मेरी दराजों में बड़े या छोटे किसी भी सितारे का कोई ऑटोग्राफ़ नहीं है।
फिर वह कौन सी चीज़ है मेरे कैसियस क्ले मेरे मोहम्मद अली
कि तुम्हारे जाने के बाद मुझे भी अपने भीतर कुछ बुझा हुआ सा लग रहा है?
क्या बचपन की कौतूहल भरी चर्चाओं से बनने वाला तुम्हारा वह महानायकत्व
जिसमें तुम लगभग अपराजेय लगते थे? हालांकि पराजित तुम्हें भी होना ही पड़ा था।
या उस अश्वेत अस्मिता-बोध का धुंधला सा भान जो गोरे वर्चस्व की दुनिया में तुम्हारी मौजूदगी बहुतों के भीतर पैदा करती थी?
या फिर बड़े होने के बाद की यह समझदारी कि मुक्केबाज़ी को करिअर बनाने वाले तुम
युद्धों से नफ़रत करते रहे और वियतनाम युद्ध के विरोध के खमियाज़े में जेल भी काटी और कुछ दिन की पाबंदी भी झेली?
वजह कुछ भी हो सकती है मोहम्मद अली,
लेकिन यह सच है कि इतने दिनों बाद तुम्हारे निधन की खबर से मेरे भीतर भी कुछ चटखा है।
याद आया है कि नायक चाहे जितने भी बड़े हों, वे छूटते जाते हैं, छूटती जाती हैं ज़िंदगियां
तुम भी तो धीरे-धीरे अदृश्य होते जा रहे थे हमारे लिए
पिछले कुछ वर्षों की अचेतन स्मृतिविहीनता के गर्त में डूबे हुए।
मृत्यु ने तुम्हें इस यंत्रणा से उबार लिया।
दरअसल फिर से याद दिलाते हुए
कि कोई चाहे कितना भी बड़ा क्यों न हो,
मोहम्मद अली भी क्यों न हो,
समय के रिंग में मौत अंततः एक दिन उसे हरा देती है।
लेकिन फिर भी कुछ है जो बचा रहता है
हमारे शोक, हमारी स्तब्धता, हमारी कातरता के बीच
विस्मृति के विरुद्ध किसी अनायास या सायास कार्रवाई की तरह
भरोसा दिलाता हुआ कि मृत्यु भले मार दे, मोहम्मद अली हमारे भीतर बचा रहेगा।
सुनील गावसकर
तुम जो कमेंट्री करते हो, वह नहीं
तुम जो तमाम तरह की कमेटियों में बैठे, वह भी नहीं,
तुम जो एक सख्त पेशेवर की तरह उचित ही टीवी चैनलों में दिखाई पड़ते हो, वह भी नहीं.
मैं तो उस सुनील गावसकर को याद करता हूं जो बिना हेलमेट पहने
मार्शल, होल्डिंग, रॉर्बट्स और गार्नर जैसे तूफ़ानी गेंदबाज़ों का बेधड़क सामना करता था।
पर्थ, सिडनी, पोर्ट ऑफ स्पेन, मेलबॉर्न या ओवल
मेरे लिए कभी किसी भौगोलिक या राजनीतिक इकाइयों के नाम नहीं रहे
वे मानवीय उद्यम और साहस के वे मैदान रहे जहां हमारा पांच फुट पांच इंच का नायक अक्सर एक अकेली जंग लड़ता दिखाई पड़ता था।
वह भूमंडलीकरण के वे दिन नहीं थे जब क्रिकेट को बाज़ार ने भारत का राष्ट्रीय खेल बना डाला था
यह वे दिन थे जब इंग्लैंड, ऑस्ट्रेलिया और वेस्ट इंडीज़ जैसी टीमें हमें बड़ी आसानी से हरा दिया करती थीं।
लेकिन अक्सर तुम हार का प्रतिरोध करते पाए जाते थे। पूरे-पूरे दिन, पूरे धीरज और एकाग्रता से बल्लेबाज़ी करते हुए तुम न जाने किन-किन को छकाते-थकाते रहते।
क्रिकेट में तो मैं गली-मोहल्ले से आगे नहीं बढ़ पाया, लेकिन जीवन में भी तुम्हारी शैली की नकल करने की कोशिश की- बाहर जाती गेंदों को छेड़ने से बचता रहा। कोशिश करता रहा कि एकाग्रता से करता रहूं अपना काम, लेकिन ऐसा साधु स्वभाव उतने ही गहरे समर्पण की मांग करता है।
अब जब खेल बदल गया है और ज़िंदगी हो या क्रिकेट- सबके व्याकरण टूट रहे हैं, जब हमले को ही बचाव का इकलौता ज़रिया मान लिया गया है, जब सुंदरता पर बहुत आक्रामक किस्म की सफलता का आवरण चढ़ा है, तब भी मुझे तुम ही याद आते हो-
वानखेड़े या ईडन गार्डन के मैदान पर, किसी खिलाड़ी की तरह नहीं, किसी समाधिस्थ संत की तरह, जिसे मालूम होता था कि वह शायद हार जाएगा, लेकिन जो जानता था कि लड़ना फिर भी उसका धर्म है।
मेरे सुनील गावसकर, क्रिकेट हो या धर्म हो या राजनीति- हर जगह असहनशीलता का ताप बढ़ता जा रहा है, पैसा सारे नियम तय कर रहा है- हो सकता है, तुम भी बदल चुके हो,
मगर मेरे जीवन की ओजोन परत तुम्हारे उन दिनों की स्मृति से भी बनी रहेगी और जीवन को जीने लायक बनाती रहेगी।
तुम जो तमाम तरह की कमेटियों में बैठे, वह भी नहीं,
तुम जो एक सख्त पेशेवर की तरह उचित ही टीवी चैनलों में दिखाई पड़ते हो, वह भी नहीं.
मैं तो उस सुनील गावसकर को याद करता हूं जो बिना हेलमेट पहने
मार्शल, होल्डिंग, रॉर्बट्स और गार्नर जैसे तूफ़ानी गेंदबाज़ों का बेधड़क सामना करता था।
पर्थ, सिडनी, पोर्ट ऑफ स्पेन, मेलबॉर्न या ओवल
मेरे लिए कभी किसी भौगोलिक या राजनीतिक इकाइयों के नाम नहीं रहे
वे मानवीय उद्यम और साहस के वे मैदान रहे जहां हमारा पांच फुट पांच इंच का नायक अक्सर एक अकेली जंग लड़ता दिखाई पड़ता था।
वह भूमंडलीकरण के वे दिन नहीं थे जब क्रिकेट को बाज़ार ने भारत का राष्ट्रीय खेल बना डाला था
यह वे दिन थे जब इंग्लैंड, ऑस्ट्रेलिया और वेस्ट इंडीज़ जैसी टीमें हमें बड़ी आसानी से हरा दिया करती थीं।
लेकिन अक्सर तुम हार का प्रतिरोध करते पाए जाते थे। पूरे-पूरे दिन, पूरे धीरज और एकाग्रता से बल्लेबाज़ी करते हुए तुम न जाने किन-किन को छकाते-थकाते रहते।
क्रिकेट में तो मैं गली-मोहल्ले से आगे नहीं बढ़ पाया, लेकिन जीवन में भी तुम्हारी शैली की नकल करने की कोशिश की- बाहर जाती गेंदों को छेड़ने से बचता रहा। कोशिश करता रहा कि एकाग्रता से करता रहूं अपना काम, लेकिन ऐसा साधु स्वभाव उतने ही गहरे समर्पण की मांग करता है।
अब जब खेल बदल गया है और ज़िंदगी हो या क्रिकेट- सबके व्याकरण टूट रहे हैं, जब हमले को ही बचाव का इकलौता ज़रिया मान लिया गया है, जब सुंदरता पर बहुत आक्रामक किस्म की सफलता का आवरण चढ़ा है, तब भी मुझे तुम ही याद आते हो-
वानखेड़े या ईडन गार्डन के मैदान पर, किसी खिलाड़ी की तरह नहीं, किसी समाधिस्थ संत की तरह, जिसे मालूम होता था कि वह शायद हार जाएगा, लेकिन जो जानता था कि लड़ना फिर भी उसका धर्म है।
मेरे सुनील गावसकर, क्रिकेट हो या धर्म हो या राजनीति- हर जगह असहनशीलता का ताप बढ़ता जा रहा है, पैसा सारे नियम तय कर रहा है- हो सकता है, तुम भी बदल चुके हो,
मगर मेरे जीवन की ओजोन परत तुम्हारे उन दिनों की स्मृति से भी बनी रहेगी और जीवन को जीने लायक बनाती रहेगी।
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