Thursday, July 7, 2016

हरियाली में किताबें Deven Mewari

हरियाली में किताबें
Deven Mewari
बाल साहित्य में विज्ञान की बात करके जून के आखिरी दिन देहरादून से दिल्ली लौटा ही था कि अलसुबह रेलवे स्टेशन जाकर नई दिल्ली-काठगोदाम शताब्दी ट्रेन पकड़ी और रुद्रपुर के लिए रवाना हो गया। हेम ने कई बार फोन पर कह दिया था कि आना जरूरी है। दिल्ली में अभी मानसून की झड़ी नहीं लगी थी, इसलिए उमस जारी थी। ट्रेन में बैठा तो खिड़की के कांच के पार धुंध के धवल कैनवस पर प्रकृति की कूंची ने अभी केवल सूरज की नारंगी चकती ही पेंट की थी जिसकी चमक धीरे-धीरे बढ़ने लगी।
काली-मैली यमुना, मकान बिजली के खम्भे, गंधाती हिंडन, भागती बसें और कारें पीछे छूटती गईं तो खिड़की के पार हरियाली दिखने लगी। कहीं-कहीं कव्वे सुबह की हवा में पंख तौल रहे थे तो कहीं बगुलों के झुंड नम भूमि में नाश्ता खोज रहे थे। शायद रात भर बारिश हुई थी। हरे-भरे पेड़ उसमें नहा-धो कर और भी हरे हो गए थे।
ट्रेन उत्तर दिशा में भागती जा रही थी। बीच-बीच में अमराइयों के आसपास गांवों की झलक मिलती। कई जगह लोग खेतों में धान रोपते दिखाई देते तो कहीं धान के बालिश्त भर ऊंचे पौधे खेत में डबाडब भरे पानी में अपना अक्श देख रहे होते। खेतों की मेंड पर उगे ऊंचे पापलर और यूकेलिप्टस के पेड़ भी पानी में अपनी परछाइयों के साथ-साथ आसमान में छाए बादलों की छवि ताक रहे थे।
मुरादाबाद, रामपुर पार कर ट्रेन ऊधमसिंह नगर की हरियाली में प्रवेश कर गई। पानी भरे धान के खेतों के अलावा दूर-दूर तक लहलहाते गन्ने के फार्म दिखाई देते रहे। और, दस बजते-बजते ट्रेन रुद्रपुर शहर के रेलवे स्टेशन पर आ खड़ी हो गई।
बाहर हवा में चौमास की बारिश की खुशबू थी। सड़कों के गड्ड़ों और खेतों के आसपास रात में बरसा पानी भरा हुआ था। प्लेटफार्म पर अपरिचितों की भीड़ में अचानक, टी-शर्ट पहने एक युवक ने आगे आकर पूछा, ”आप मेवाड़ी जी हैं?” मैंने कहा, “जी हां और आप हेम?” हेम ने हामी भर कर बैग की ओर हाथ बढ़ाया तो मैंने कहा, “नहीं मित्र, अपना बोझ मैं स्वयं उठाता हूं। इसीलिए रक-शैक और बैक-पैक लेकर चलता हूं। जब तक यह बोझ उठा सकता हूं, तब तक मेरी यात्राएं चलती रहेंगीं।” अपनी कार में वे मुझे शहर से बाहर किच्छा रोड पर ‘ले-कैसल’ होटल की ओर ले चले।
रास्ते भर तराई की उपजाऊ, भीगी मिट्टी की सौंधी गंध तीस-बत्तीस वर्ष पहले देखे रुद्रपुर कस्बे की यादों को ताज़ा करने लगी। तब पंतनगर विश्वविद्यालय से कभी-कभार किसी बस में बैठ कर हम रुद्रपुर कस्बे के बाजार में आया करते थे। दिल्ली-नैनीताल हाइवे के किनारे बस अड्डा हुआ करता था और उसके सामने चंद झोपड़ी और ढाबेनुमा चंद कच्ची दुकानें। लेकिन, हमारा जाना-पहचाना कस्बा अब शहर बन गया है। हाइवे के दोनों किनारों पर चमचमाते आफिस और दूकानें हैं। उनके पीछे, जहां कभी सैकड़ों एकड़ फार्मों में हरी-भरी फसलें लहलहाती थीं और गेहूं की फसल की कटाई के मौसम में कंबाइन हार्वेस्टर मशीनें कटाई कर रही होती थीं, वहां अब बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की हाई-टैक इमारतें और वर्कशापें हैं। लगा जैसे टाइम ट्रेवल कर रहा होऊं।
हेम रुद्रपुर औद्योगिक शहर के बारे में बताते जा रहे हैं। कहते हैं, यहां विकास की दौड़ में सब कुछ मशीनी होता जा रहा है। यही खतरा भांप कर हम कुछ साथियों ने अपनी संस्कृति और संवेदनाओं को बचाने की एक छोटी-सी कोशिश शुरू की है- ‘क्रिएटिव उत्तराखंड’ के रूप में। हम नई पीढ़ी पर अपना ध्यान केन्द्रित कर रहे हैं। अगर वे अपनी जड़ों से थोड़ा भी जुड़ सके तो हम इसे अपनी सफलता मानेंगे।
इसीलिए हम यहां बच्चों के लिए नाटक करा रहे हैं, फिल्में दिखा रहे हैं, कविता पाठ करा रहे हैं। हमने यहां के सबसे पुराने राजकीय प्राथमिक विद्यालय पर ध्यान दिया। उसके दो जीर्ण-शीर्ण कमरों को देखा तो प्रबंध कमेटी से मांग कर उन्हें ‘सृजन पुस्तकालय’ का रूप दे दिया है। स्कूल के विद्यार्थी और अन्य लोग वहां आकर किताबें पढ़ सकेंगे।
ले-कैसल आ गया था।..........
(बाकी मेरे ब्लाग http://devenmewari.in/?p=846 पर)

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