बुद्धिजीवियों का छातीकूट विलाप
जबसे भाजपा सरकार आई है देश के प्रतिष्ठित और प्रगतिशील बुद्धिजीवियों का छातीकूट विलाप चरम पर है । सुबह से हाय-हाय शुरू हो जाती है और नींद में भी जारी रहती है । लगता है देश और जनता का आज़ादी के बाद चला स्वर्णकाल खत्म हो गया हो ।
क्यों हो रहा है यह सब ! क्या पिछले 65 बरस में सब कुछ अच्छा ही चल रहा था ! उसमें कोई जनविरोध, सांप्रदायिकता, तानाशाहियत नहीं रही ! सब कुछ था बस देशव्यापी बहसें नहीं थीं । कांग्रेस के घालमेलपन ने और वामपंथियों के अंदर उसके प्रति बैठे मोह ने कभी विचारों का तीखा संघर्ष होने नहीं दिया । बस लीपापोती होती रही । उस समय भी जब जनता के मोर्चे पर संघर्ष कर रहे लोगों का कत्लेआम होता था तो आप सत्ता की गलबहियां में उनके भटकाव की तकरीर दे बयानबाजी करते थे
भाजपा आई है तो आपको मालुम है बहस के मुद्दे क्या हैं, लड़ना किससे और कैसे है । यही कारण है कि पिछले दो सालों में मुद्दों पर जो देशव्यापी बहसें हुई हैं वैसा पहले कभी नहीं हुआ ।
जहां तक बुद्धिजीवियों के विलाप का सवाल है तो यह देखना होगा कि अधिकांश में ये सब पुरानी सत्ता के संरक्षण में सरकारी संस्थानों, संस्थाओं में स्थापित, पुरस्कृत - सम्मानित लोग रहे हैं, या उनकी आड़ में दूसरे छुटभैय्ये भी अपने छोटे-मोटे काम साधते रहे हैं । साहित्यकारों-कलाकारों ने भी काफी प्राजैक्ट, पद और पुरस्कार वगैरह झटके हैं ।
इतना ही नहीं, ज्ञान-विज्ञान-कला-तकनालाजी के अनेक निकायों में इन लोगों ने लगभग "बुद्धजीवी माफिया" की भूमिका अख्तियार कर ली थी जिसमें किसी भी असहमत स्वर को सामूहिक शोर से दबाया जाता था । रामविलास होते तो बताते कि उस समय के आधिकारिक इतिहासविद, समाजविज्ञानविद और और बाकी वादी उनके विचलनों को किस हास्य-व्यंगंय में लेते थे । और नहीं तो अपने ही बीच के भगवान सिंह से ही जान लें कि उन्होंने जब नई शोध उनके इलाके के विषयों में शुरू की तो कैसा आदर-सत्कार मिला !
इसलिए यह विलाप जनता के अधिकारों के लिए कम अपने लिए अधिक है । बाकी चीजें तो बहाना हैं ।
इसलिए यह विलाप जनता के अधिकारों के लिए कम अपने लिए अधिक है । बाकी चीजें तो बहाना हैं ।
अब इस नई सत्ता ने सबको बेदखल कर दिया है, क्योंकि उसके अपने बुद्धिजीवी हैं जो बेचारे दशकों से कलप रहे हैं । अब वे आपके रोल में हैं । जो आरोप आप उनपर लगा रहे हैं वे सब आप पर लगते हैं ।
बाकी जनता को काहे बीच में लाते हो, वह चाहेगी तो बदल ही लेगी । आप अपनी बात करिए कि बिना सत्ता संरक्षण के लावारिस से हो गए हैं और अब तमाम जनपक्षधर सिद्धांतों की दुहाई दे रहे हैं । हकीकत यह है कि आपने पुरानी जन-विरोधी सत्ता को "लैजीटिमेसी" दी हुई थी ।
जनतंत्र के बावजूद सच्चाई यह है कि हर सत्ता अपना दरबार रचाती है और अपने नव-रत्नों को उसमें सजाती है । आप पुरानी सत्ता के नवरत्न रहे अब कुछ नौसिखुए आ गए हैं । कुछ लंबा शासन चला तो वे भी आपकी तरह पेशेवर, सम्मान्य और प्रतिष्ठित हो जाएंगे ।
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