इन दिनों शामली जिले के कैराना की बहुत चर्चा है. भाजपा के एक नेता मुस्लिमों की बहुतायत वाले इस इलाके से हिन्दुओं के पलायन की झूठी खबर फैलाकर उत्तरप्रदेश में हिन्दू ध्रुवीकरण की साजिश में लगे हैं. लेकिन कैराना वह जगह है जहां उत्तरभारतीय शास्त्रीय संगीत की एक महान,सबसे सुरीली और सबसे व्यापक परंपरा का जन्म हुआ था. किराना घराना कही जाने वाली इस विरासत के महान गायक उस्ताद अब्दुल करीम खां और उनके छोटे भाई उस्ताद अब्दुल वहीद खां थे.उनकी मौसीकी के जादू का एक उदाहरण यह है कि पंडित भीमसेन जोशी करीम खां के गाये राग झिंझोटी के प्रभाव में ही संगीत सीखने घर से भागे थे. दूसरी तरफ, अब्दुल वहीद खां के राग दरबारी के शिल्प का उस्ताद अमीर खां पर इस क़दर असर रहा कि वे उससे कभी मुक्त नहीं हो पाए
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तो, असली कैराना संगीत का कैराना हैं, भाजपा के बेशर्म साप्रदायिक झूठों और अफवाहों का नहीं.
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तो, असली कैराना संगीत का कैराना हैं, भाजपा के बेशर्म साप्रदायिक झूठों और अफवाहों का नहीं.
अब्दुल करीम खा साहब के बारे में कहा जाता कि उनकी असाधारण रूप से सुरीली और मिठासभरी आवाज़ तार सप्तक से भी परे चली जाती थी और अगर कोई चौथा सप्तक होता तो वे आराम से वहाँ भी टहल आते. भारत-प्रेमी थियोसोफिस्ट श्रीमती एनी बेसेंट उनसे बहुत प्रभावित थीं, लेकिन खां साहब की आँखें हमेशा चढ़ी हुई सी और मादकता भरी लगती थीं, जिससे ऐनी बेसेंट को लगता था कि वे ज़रूर अफीम का नशा करते होंगे.. एक बार उन्होंने खां साहब के एक शिष्य से पूछताछ की. शिष्य ने यह बात अब्दुल करीम खां को बताई तो उन्होंने यह कहलवा भेजा कि 'मैं नशा तो करता हूँ, लेकिन अफीम का नहीं, संगीत का..'
लीजिये, अब्दुल करीम खां की वह झिंझोटी सुनिए जिसे सुनने के बाद भीमसेन जोशी ग्यारह साल की उम्र में घर से निकले थे, और किराना के जनक गाँव कैराना पर गर्व कीजिये.
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