रवीश ने जगमाति सांगवान से कहा कि आपसे बातचीत करके "'लग रहा है कि आप सीपीएम से नहीं बल्कि सीपीएम आपसे बाहर निकल गयी है."
हाँ ,होता है बिलकुल यही होता है आप जो हैं वही रहते हैं लेकिन पार्टी आपसे बाहर हो जाती है. आज वह सब शिद्दत से याद आ रहा है जब ठीक तीस साल पहले मुझसे भी पार्टी बाहर हो गयी थी. हुआ यह था कि अप्रैल 1986 में लखनऊ में प्रगतिशील लेखक संघ का स्वर्ण जयन्ती समारोह उत्सवी वातावरण में अखिल भारतीय स्तर पर आयोजित किया गया था. मैं इसके आयोजकों में से एक था. भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) के हस्तक्षेप के चलते कुछ ऐसा घटनाक्रम हुआ कि हम कुछ साथी खिन्न हुए .मैंने इस समूचे प्रकरण पर 'हंस' पत्रिका (जनवरी,1987) में 'प्रगतिशील लेखन आन्दोलन -दशा और दिशा ' शीर्षक से लेख लिख दिया ,जिस पर कई अंकों तक लम्बी बहस चली..सीपीआई उ.प्र. के तत्कालीन महासचिव कामरेड सरजू पांडे ने मुझे लेख लिखने पर कारण बताओ नोटिस जारी कर दिया . मैंने उन्हें लम्बा-चौड़ा सैद्धांतिक जवाब दे दिया. कामरेड पांडे अच्छे व्यक्ति थे उन्होंने मुझसे हँसते हुए कहा कि ' तुमने तो जवाब के बजाय मुझसे ही इतने सवाल पूछ कर मेरा ही एक्क्सप्लेनेशन काल कर लिया है. अब इसका जवाब कौन देगा !.' बहरहाल अंततः हुआ यह कि का.पांडे ने चार लाईन का पत्र लिखकर मुझे यह सलाह दी कि .'बाहर की पत्र- पत्रिकाओं' में मैं पार्टी से जुड़े मसलों को सार्वजानिक न करूं. लेखकीय स्वतंत्रता और दलीय अनुशासन के बीच मैंने लेखकीय स्वतंत्रता का वरण करते हुए अपनी पार्टी की सदयस्ता का नवीनीकरण नही कराया और पार्टी ने भी मुझे ड्राप कर दिया. इस तरह पार्टी से मेरी सोलह वर्ष सदस्यता का रिश्ता विछिन्न हुआ और पार्टी मुझसे बाहर हो गयी . लेकिन अभी भी मैं मार्क्सवाद से बाहर नही हो पाया हूँ. आज जगमति सांगवान की रवीश से बातचीत सुनते हुए वह समूचा घटनाक्रम याद आ गया .
हाँ ,होता है बिलकुल यही होता है आप जो हैं वही रहते हैं लेकिन पार्टी आपसे बाहर हो जाती है. आज वह सब शिद्दत से याद आ रहा है जब ठीक तीस साल पहले मुझसे भी पार्टी बाहर हो गयी थी. हुआ यह था कि अप्रैल 1986 में लखनऊ में प्रगतिशील लेखक संघ का स्वर्ण जयन्ती समारोह उत्सवी वातावरण में अखिल भारतीय स्तर पर आयोजित किया गया था. मैं इसके आयोजकों में से एक था. भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) के हस्तक्षेप के चलते कुछ ऐसा घटनाक्रम हुआ कि हम कुछ साथी खिन्न हुए .मैंने इस समूचे प्रकरण पर 'हंस' पत्रिका (जनवरी,1987) में 'प्रगतिशील लेखन आन्दोलन -दशा और दिशा ' शीर्षक से लेख लिख दिया ,जिस पर कई अंकों तक लम्बी बहस चली..सीपीआई उ.प्र. के तत्कालीन महासचिव कामरेड सरजू पांडे ने मुझे लेख लिखने पर कारण बताओ नोटिस जारी कर दिया . मैंने उन्हें लम्बा-चौड़ा सैद्धांतिक जवाब दे दिया. कामरेड पांडे अच्छे व्यक्ति थे उन्होंने मुझसे हँसते हुए कहा कि ' तुमने तो जवाब के बजाय मुझसे ही इतने सवाल पूछ कर मेरा ही एक्क्सप्लेनेशन काल कर लिया है. अब इसका जवाब कौन देगा !.' बहरहाल अंततः हुआ यह कि का.पांडे ने चार लाईन का पत्र लिखकर मुझे यह सलाह दी कि .'बाहर की पत्र- पत्रिकाओं' में मैं पार्टी से जुड़े मसलों को सार्वजानिक न करूं. लेखकीय स्वतंत्रता और दलीय अनुशासन के बीच मैंने लेखकीय स्वतंत्रता का वरण करते हुए अपनी पार्टी की सदयस्ता का नवीनीकरण नही कराया और पार्टी ने भी मुझे ड्राप कर दिया. इस तरह पार्टी से मेरी सोलह वर्ष सदस्यता का रिश्ता विछिन्न हुआ और पार्टी मुझसे बाहर हो गयी . लेकिन अभी भी मैं मार्क्सवाद से बाहर नही हो पाया हूँ. आज जगमति सांगवान की रवीश से बातचीत सुनते हुए वह समूचा घटनाक्रम याद आ गया .

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