23 साल एक बेगुनाह की ज़िन्दगी सींखचों के पीछे दफ्न हो गयी। बाहर आया तो जग विराना। कह रहा है ज़िंदा लाश हो गया हूँ। लेकिन पंडा अपनी जगह डटा हुआ है। कवि का कालर पकडे कह रहा है तुमने अवसाद लिखा है वो तो ठीक है लेकिन कविता कहाँ है।
छह महीने बाद मटन को बीफ साबित कर दिया जाता है, अख़लाक़ के परिवार की कोई खबर नहीं लेकिन पंडा तो पंडा है झकझोरता हुआ कवि को डपट रहा है तेवर है, अंदाज़ है, व्यंग्य भी और विट भी लेकिन कविता कहाँ है। जो होना चाहिए वही तो नहीं है तुम्हारे पास। धिक्कार है।
कवि पूछना चाहता है जब यह बुरा वक़्त तुम्हे छू नहीं पा रहा तो फिर क्या करोगे तुम कविता का ? लेकिन चुप रह जाता है और चला जाता है। उसे जाना है भूखे सोते करोड़ों बच्चों के पास, निसार की मासूम तन्हाइयों के पास। अख़लाक़ के परिवार को उसे तलाशना है। आज की रात ही सब करना है उसे।
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