Wednesday, May 25, 2016

Kaushal Kishor आज 25 मई है। नक्सलबाड़ी दिवस। नक्सलबाड़ी किसान आंदोलन के पचासवें साल की शुरुआत आज से हो रही है। इसे हम बसन्त गर्जना या बज्रनाद के रूप में जानते हैं। तेभागा और तेलंगाना किसान आंदोलन की कड़ी में किसानों के इस आंदोलन ने जनवादी भारत का सपना देखा था जिसकी बुनियाद मजदूर किसान राज था।

Kaushal Kishor 
आज 25 मई है। नक्सलबाड़ी दिवस। नक्सलबाड़ी किसान आंदोलन के पचासवें साल की शुरुआत आज से हो रही है। इसे हम बसन्त गर्जना या बज्रनाद के रूप में जानते हैं। तेभागा और तेलंगाना किसान आंदोलन की कड़ी में किसानों के इस आंदोलन ने जनवादी भारत का सपना देखा था जिसकी बुनियाद मजदूर किसान राज था। इस सपने को हकीकत में बदलने के लिए हजारों क्रान्तिकारियों ने अपनी शहादतें दी। इसने शोषक भारतीय राजसत्ता को बड़ी चुनौती दी थी। आंदोलन को भारी दमन का सामना करना पड़ा। शोषक सत्ता खुश हो सकती थी कि उसने नक्सलबाड़ी को खत्म कर दिया लेकिन वह खत्म नहीं हुआ। वह चिन्गारी भोजपुर में सामंतवाद विरोधी किसान आंदोलन के रूप दावानल बन गई। आज नक्सलबाड़ी देश केी शोषित पीडि़त जनता - किसानों, मजदूरों, छात्रों-नौजवानों, महिलाओं, दलितों, आदिवासियों, बुद्धिजीवियों...करोड़ों-करोड़ भारतीयों के अरमानों और संघर्षों में न सिर्फ जिन्दा है बल्कि मूर्त हो रहा है। वह ज्यादा व्यापक व गहरी राजनीतिक लड़ाई के द्वारा और संघर्ष के विविध रूपों में भारत की फासीवादी सत्ता को चुनौती दे रहा है। नक्सलबाड़ी आजादी के बाद का पहला आंदोलन है जिसका प्रभावा राष्ट्रीय था। हिन्दी, बंगला, पंजाबी, तेलुगु, मलयालम आदि तमाम भाषाओं के साहित्य को नक्सलबाड़ी ने नवजीवन प्रदान किया। हम जैसे रचनाकारों को बनाने में इसकी भूमिका रही है। 8 मई 1974 को देश में रेल मज़दूरो की एतिहासिक हड़ताल हुई थी। उसी दौरान की लिखी अपनी कविता ‘नई शुरुआत’ शहीदो को याद करते हुए आपसे शेयर कर रहा हूं जिसमें नक्सलबाड़ी की धमक सुनी जा सकती है।
यह कविता मई 1974 की रेल हड़ताल के दौरान लिखी गई थी
दादी
सुना नहीं तुमने
बाबूजी हड़ताल पर हैं
कन्धे पर यूनियन का लाल झण्डा लिए
गढहरा की रेल-कालोनियों में
घूमते होंगे आजकल
क्वार्टरों से बेदख़ल करने हेतु
भेजी गई पुलिस-लारियों में
कालोनी की औरतों के साथ
अम्मा को भी क़ैद करके भेजा गया होगा
बहन पूनम और छुटकी भी
जुलूस में शामिल हो नारे लगाती होंगी
दादी
सुना नहीं तुमने
बाबूजी हड़ताल पर हैं
दादी
गाँव के डाकख़ाने में
बेमतलब क्यों भेजा करती हो मुझे हर दिन
अब मनिआर्डर या बीमा या रुपये की आशा छोड़ दो
इस कदर क्यों घबड़ा जाया करती हो
घर के चूल्हे की आग ठंडी हो रही है
तो क्या हुआ
शरीर के अन्दर की आग का जलना
अभी ही तो शुरु हुआ है
शायद तुम्हें नहीं मालूम
जिस गाँधी-जवाहर की
अक्सरहाँ बात किया करती हो
उसी गांधी-जवाहर के देश में
मशीन या कल-कारखाना या खेत में
तेल या मोबिल या श्रम नहीं
इन्सानी लहू जलता है
दादी
तुम इस हकीकत से भी अनभिज्ञ हो कि
अंगीठी पर चढ़े बरतन में
खौलते अदहन की तरह
अपने गाँव की झोपड़ियों का अन्तर्मन उबल रहा है
कि हर हल और जुआठ
नाधा और पगहा
भूख की आग में जल रहा है
वह आग
जो नक्सलबाड़ी में चिंगारी बन कर उभरी थी
वह आग
जो श्रीकाकुलम के पहाड़ों से
ज्वालामुखी की तरह फूटी थी
जिसके अग्निपुंज
तेलंगाना की पटरियों पर सरपट दौड़े थे
देखो ... देखो
ठीक वही आग अपने गाँव के सिवान तक पहुँच आई है
इसीलिए दादी
मैं बेहद ख़ुश हूँ
कि अपने गाँव में
एक अच्छी और सही बात हो रही है
कि हिन्दुस्तान जैसे मुल्क में
एक नई शुरुआत हो रही है ।

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