Tuesday, May 24, 2016

इस इकतरफा दुराग्रही संवाद की संस्कृति के बीच याद आ रही हैं महादेवी ================================================ कहाँ आ पहुँचे हैं हम ? ----------------------- Laxman Singh Bisht Batrohi

इस इकतरफा दुराग्रही संवाद की संस्कृति के बीच याद आ रही हैं महादेवी
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कहाँ आ पहुँचे हैं हम ?
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Laxman Singh Bisht Batrohi
यह फोटो इकतालीस साल पुराना है. कुमाऊँ विश्वविद्यालय के पहले दीक्षांत समारोह में मुख्य अतिथि के रूप में वह नैनीताल आई थीं. हालाँकि इस दौरान वह राज्यपाल की अतिथि थीं, मगर नैनीताल पहुँचने के बाद सबसे पहले अपने रामगढ़ के आवास 'मीरा कुटीर' गयी थीं. कुलपति डॉ. देवीदत्त पन्त ने महादेवी जी के सत्कार का पूरा जिम्मा मुझे सौंपा था. तब मेरी उम्र तीस वर्ष थी और मुझे विश्वविद्यालय में नौकरी करते हुए पांच-छः साल ही हुए थे. मेरे जीवन का यह स्मरणीय क्षण था जब मुझे यह दायित्व सौंपा गया था.
कितने बदल गए हैं हमारे सरोकार और एक-दूसरे के साथ के सम्बन्ध-सूत्र. सब जानते हैं कि महादेवी जी का तत्कालीन प्रधान-मंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी कितना सम्मान करती थीं. संयोग से दीक्षांत समारोह के एक दिन पहले ही आपातकाल की घोषणा हुई थी, महादेवी जी ने अपने भाषण में इंदिराजी के इस निर्णय की खूब आलोचना की थी. मैंने 'धर्मयुग' के लिए समारोह की रिपोर्टिंग की थी, वह यथावत कम्पोज होकर छपा भी, मगर जब अंक आया, आधे से अधिक रिपोर्ट में काली स्याही पुती हुई थी.
महादेवी जी के इस आगमन को लेकर भी एक रोचक किस्सा है. कुलपति पन्तजी कुमाऊँ विश्वविद्यालय का प्रथम दीक्षांत भाषण प्रख्यात कवि श्री सुमित्रानंदन पन्त से दिलाना चाहते थे. उनकी सहमति लेने के लिए मुझे और उस वक़्त विवि में भौतिकविज्ञान के प्राध्यापक अतुलकुमार पांडे (अब स्व.) को इलाहाबाद भेजा गया. पन्त जी की तबियत ठीक न होने के कारण वह तो नहीं आ पाए, उन्होंने ही मुझे महादेवीजी के पास भेजा और कुलपति पन्तजी की उनसे बातें कराकर उन्हें राजी किया.
हम लोगों के आग्रह और अपनी साहित्यिक सुरुचि के कारण ही पन्तजी ने कॉलेज के दीक्षांत समारोह में भगवतीचरण वर्मा को बुलाया. उस दौर में आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी का 'परंपरा और आधुनिकता' पर दिया गया व्याख्यान लोग आज भी याद करते हैं.
बाद में महादेवी जी के इस घर को मैंने संग्रहालय के रूप में स्थापित किया, चारों ओर से मुझ पर आक्रमण हुए और यह साबित करने की कोशिश की गयी कि मैंने उनके घर पर कब्ज़ा कर लिया है. अगर मैंने उसे विवि को न दिया होता तो शायद इस बात पर मुहर ही लग जाती. रामगढ़ के प्रधान जोशी तो बड़े शौक से पोखरिया से कहते थे कि देखो कैसे मैंने बटरोही को भगाकर तुमको डायरेक्टर बना दिया. हाल की अपनी बहस में भी तो मैंने एक मुख्यमंत्री को लेकर अपना पक्ष ही तो रखा था. हर निर्णय पर हमेशा असहमतियां होती हैं, मगर प्रजातंत्र में हरेक की राय का सम्मान तो होना ही चाहिए. हम अपना पक्ष रखें और दूसरे का सम्मान करें. यही मैंने महादेवी जी से सीखा.
यह कैसे समाज के बीच आ गए हैं हम ?

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