वसीम बरेलवी ...........................
जब्र का ज़हर कुछ भी हो पीता नहीं
मैं ज़माने की शर्तों पे जीता नहीं
मैं ज़माने की शर्तों पे जीता नहीं
देखे जाते नहीं मुझसे हारे हुए
इसलिए मैं कोई जंग जीता नहीं
इसलिए मैं कोई जंग जीता नहीं
अपनी सुबहों के सूरज उगाता हूँ ख़ुद
मैं चराग़ों की साँसों से जीता नहीं
मैं चराग़ों की साँसों से जीता नहीं
उम्र भर ज़ाब्तों की हदों में रहा
इसलिए मैं किसी का चहीता नहीं
इसलिए मैं किसी का चहीता नहीं
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जब्र :: ज़ोर-ज़बरदस्ती
ज़ाब्तों :: नियमों
जब्र :: ज़ोर-ज़बरदस्ती
ज़ाब्तों :: नियमों
*_मैने माँगा था थोड़ा सा उजाला अपनी जिंदगी में,_*
ReplyDelete*&चाहने वालों ने तो आग ही लगा दी।_*