इसे सूखा नहीं, सामूहिक नरसंहार कहिए !
संघर्ष संवाद
स्वतंत्र पत्रकार अभिषेक श्रीवास्तव ने सूखा, पलायन, भूखमरी और किसानों की आत्महत्या से पस्त बुंदेलखंड से लोट कर यह लम्बी रिपोर्ट लिखी है जिसे हम चार किस्तों में आपसे साझा करेगे. पेश है बुंदेलखंड की जमीनी हालत पर लिखी रिपोर्ट का अंतिम चौथा भाग;
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झांसी के यार्ड में दो हफ्ते से खड़ी पानी की ट्रेन विकास के उसी भ्रामक मॉडल का परिणाम है जिसके नक्शे कदम पर कचनौदा में 425 करोड़ की लागत से उत्तर प्रदेश का पहला ऑनलाइन बांध बनाया गया है। ललितपुर से करीब चालीस किलोमीटर दूर सजनाम नदी के ऊपर यूपी का पहला ऑनलाइन प्रबंधित बांध बना है कचनौंदा बांध। इसका लोकार्पण हुए चार साल हो गया हालांकि पिछले साल अक्टूबर में पहली बार आए पानी के बाद से नदी अब तक सूखी है। यह बांध भुखमरी के साम्राज्य के बीच अश्लीलता का एक ऐसा हरा-भरा टापू है, जहां हर रोज़ शाम को बाइक सवार प्रेमी जोड़े और संपन्न परिवार पिकनिक मनाने आते हैं। बांध के ऑपरेटर लखनऊ निवासी संजय यादव को इस बात का दुख है कि 65,000 रुपये प्रति ट्रक के हिसाब से गुड़गांव से मंगाई गई इम्पोर्टेड घास पानी के अभाव में पीली पड़ रही है और उसे गायें चर रही हैं। वे कहते हैं, ''करोड़ों रुपये की घास यहां लगाई गई है। ये जो लाइट के पोल आप देख रहे हैं, इनके एक बल्ब की कीमत 18000 रुपये है।''
बुंदेलखंड में सूखा पड़ा है। मराठवाड़ा में सूखा पड़ा है। केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को बताया है कि देश के 256 जिलों के करीब 33 करोड़ लोग सूखे की मार झेल रहे हैं। यह तकरीबन एक चौथाई आबादी का हाल है, इसलिए हर जगह की कहानियां खबर नहीं बन पा रही हैं। अकेले मराठवाड़ा और बुंदेलखंड पर बात हो रही है, उसमें भी चुनिंदा तरीके से कुछ इलाकों को चुना गया है। मसलन, मराठवाड़ा पर तो बात हो रही है लेकिन पड़ोस के विदर्भ की सूचना नहीं आ रही है। वैसे ही, बुंदेलखंड में उत्तर प्रदेश में पड़ने वाले इलाके की रिपोर्टिंग हो रही है लेकिन मध्य प्रदेश में पड़ने वाले बुंदेलखंड की सूचनाएं नदारद हैं। अकेले उत्तर प्रदेश में ही देखें तो यहां के बुंदेलखंड से भी खबरें केवल महुरानीपुर, महोबा, बांदा और चित्रकूट से आ रही हैं जबकि झांसी से ललितपुर तक की सौ किलोमीटर की पूरी पट्टी उपेक्षित पड़ी है। इतना ही नहीं, बुंदेलखंड से सटे हुए चम्बल के इलाके पर भी कोई बात नहीं हो रही, जिसे कुछ सरकारी काग़ज़ों में बुंदेलखंड का ही हिस्सा माना जाता है। ऐसे में बीते 6 मई, 2016 को जब उत्तर प्रदेश के ललितपुर में भूख से ग्रामीण आदिवासी सुखलाल की मौत हुई, तो मीडिया और सरकारी महकमे की नींद खुली। धीरे-धीरे अखबारों और चैनलों का ध्यान इस इलाके की ओर जाना शुरू हुआ लेकिन ज्यादा समय नहीं बीता था कि केवल तीन बाद झांसी में खड़ी वाटर ट्रेन ने इंडियन एक्सप्रेस के एक छायाकार रवि कन्नौजिया की जान ले ली।
विडंबना देखिए कि जो पानी वाली ट्रेन लोगों के लिए पानी लेकर झांसी पहुंची थी, उसे उत्तर प्रदेश सरकार ने अपने अहं के चलते पानी देने से रोक दिया और हास्यास्पद स्थिति तब पैदा हो गई जब पता चला कि उसमें पानी ही नहीं था। इस स्थिति को प्रहसन में तब्दील कर दिया गया जब जिला प्रशासन ने खाली पडी ट्रेन में सात लाख लीटर पानी खुद भरवा दिया और यह पानी एक पत्रकार की जान लेने तक यार्ड में टैंकरों के भीतर पड़ा खौलता रहा। अब झांसी और महोबा के जिला कलक्टरों ने साफ कह दिया है कि इस क्षेत्र के लिए इस ट्रेन की कोई उपयोगिता नहीं है। नतीजा यह हुआ है कि लोग भूख-पास से मर रहे हैं लेकिन 4 मई से लगातार यह ट्रेन झांसी में खड़ी है। किसी को नहीं पता कि सात लाख लीटर पानी का बिल कौन चुकाएगा।
ऐसे में झांसी प्रवेश करते ही हाइवे के किनारे पड़ी एक बछड़े की सूखी लाश कई सवाल पैदा करती है। अगर केंद्र सरकार मानती है कि 33 करोड़ लोग प्यास से मर रहे हैं तो सात लाख लीटर पानी को धूप में इस तरह क्यों खौलने दिया जा रहा है। लोग अपना पेट नहीं भर पा रहे हैं लिहाजा उन्होंने अपने मवेशियों को सड़क पर खुला छोड़ दिया है। झांसी से ललितपुर के बीच एनएच-26 पर और ओरछा की ओर एनएच-12ए पर गांयों-बछड़ों का जमघट लगा है। पानी की कमी के चलते लोगों ने मवेशियों को सड़कों पर इस कदर खुला छोड़ दिया है कि चालीस किलोमीटर प्रति घंटा की रफ्तार से लगातार एक किलोमीटर चल पाना भी मुश्किल है। गायों के लिए ऐसा अकाल बुंदेलखंड में कभी नहीं आया था, हालांकि सड़क पर अपनी मौत के इंतज़ार में टहलती इन गायों को ललितपुर के कचनौंदा की गायों से रश्क होता होगा जो फिलहाल गुड़गांव की इम्पोर्टेड घास खाने का सुख ले रही हैं। महज डेढ़ सौ किलोमीटर के भीतर फैली विरोधाभास की यह तस्वीर इंसानी गुरबत की हकीकत को खोलकर रख देती है।
झांसी के यार्ड में दो हफ्ते से खड़ी पानी की ट्रेन विकास के उसी भ्रामक मॉडल का परिणाम है जिसके नक्शे कदम पर कचनौदा में 425 करोड़ की लागत से उत्तर प्रदेश का पहला ऑनलाइन बांध बनाया गया है। ललितपुर से करीब चालीस किलोमीटर दूर सजनाम नदी के ऊपर यूपी का पहला ऑनलाइन प्रबंधित बांध बना है कचनौंदा बांध। इसका लोकार्पण हुए चार साल हो गया हालांकि पिछले साल अक्टूबर में पहली बार आए पानी के बाद से नदी अब तक सूखी है। यह बांध भुखमरी के साम्राज्य के बीच अश्लीलता का एक ऐसा हरा-भरा टापू है, जहां हर रोज़ शाम को बाइक सवार प्रेमी जोड़े और संपन्न परिवार पिकनिक मनाने आते हैं। बांध के ऑपरेटर लखनऊ निवासी संजय यादव को इस बात का दुख है कि 65,000 रुपये प्रति ट्रक के हिसाब से गुड़गांव से मंगाई गई इम्पोर्टेड घास पानी के अभाव में पीली पड़ रही है और उसे गायें चर रही हैं। वे कहते हैं, ''करोड़ों रुपये की घास यहां लगाई गई है। ये जो लाइट के पोल आप देख रहे हैं, इनके एक बल्ब की कीमत 18000 रुपये है।''
इम्पोर्टेड घास, बच्चों की खिलौना ट्रेन और महंगी लाइटों की आड़ में पानी की उस नीली झील को छुपा पाना नामुमकिन है जिसमें फाइबर की रंगीन नावें खड़ी हैं। यहां सैलानियों के लिए बोटिंग की सुविधा की गई है जबकि महज आधा किलोमीटर दूर नदी में बचा-खुचा गंदला पानी लोगों की प्यास बुझाने के काम आ रहा है। यह बांध अपनी तय भूमिका के अलावा दूसरे सारे काम कर रहा है क्योंकि अब तक इस बांध से नहरें नहीं निकली हैं। नहरें निकलेंगी, इसकी संभावना कम ही लगती है क्योंकि स्थानीय जानकारों के मुताबिक इसे बनाने का मूल उद्देश्य बजाज कंपनी के उस थर्मल पावर प्लांट को पानी देना है, जिसकी चिमनी बांध से साफ दिखाई देती है। एक आलीशान गेस्ट हाउस भी बांध के भीतर है जहां स्थानीय लोगों के मुताबिक बजाज कंपनी के मालिक राहुल बजाज आकर विश्राम करते हैं। उसके अलावा सुरक्षा के लिए एक पुलिस चौकी भी परिसर में बनाई गई है, यह बात अलग है कि बांध पर नज़र रखने वाला सीसीटीवी कैमरा खराब पड़ा हुआ है। संजय बताते हैं, ''उसका सॉफ्टवेयर खराब हो गया है। चेन्नई बनने के लिए भेजा गया है।''
इस बांध की लागत 2007 में 89 करोड़ रुपये थी जिसे 2009 में संशोधित कर के 425 करोड़ पर ला दिया गया। इसकी आरंभिक परिकल्पना यह थी कि इससे जो नहर निकलेगी, वह पहले से मौजूद एक पुरानी नहर को पानी मुहैया कराएगी जिससे इसका पर्यावरणीय व सामाजिक नुकसान न्यूनतम होगा। बाद में जब लागत बढ़ाई गई, तो मौजूदा नहर के समानांतर लंबी दूरी तक 25 फुट या उससे ऊपर एक नई नहर बनाने की योजना इसमें जोड़ दी गई। बार ब्लॉक स्थित भैलोनी लोध पंचायत के लोगों ने यहां पर्यावरणविद् भारत डोगरा के नेतृत्व में 2012 में पहुंची एक फैक्ट फाइंडिंग टीम को साफ तौर पर बताया कि उनसे नहर की ऊंचाई बढ़ाने की इजाज़त नहीं ली गई थी और इससे होने वाला रिसाव न केवल उनके खेतों बल्कि कच्चे घरों को भी बरबाद कर देगा जो 25 फुट से नीचे स्थित हैं। छह गांवों की करीब दस हज़ार की आबादी इस बांध के संशोधित रूप से प्रभावित होगी। ये सारे गांव बार ब्लॉक में स्थित हैं।
वास्तविक स्थिति का अंदाज़ा तो तब लगेगा जब बांध में पानी आएगा, लेकिन इस बांध के मूल उद्देश्य को लेकर राष्ट्रीय हरित अधिकरण में झांसी के मोहर सिंह यादव के नाम से एक केस दर्ज किया गया था जिसे जानना ज़रूरी है। उनका कहना था कि बजाज कंपनी की ललितपुर पावर जनरेशन कंपनी ने पर्यावरणीय मंजूरी की इस शर्त का उल्लंघन किया है कि ''पावर प्लांट के परिचालन से जुड़ी गतिविधियों के लिए किसी भी स्थानीय जल संसाधन को नहीं छेड़ा जाएगा।'' यादव ने इस प्लांट को मिली पर्यावरणीय मंजूरी रद्द करने की मांग इस आरोप के आधार पर की थी कि प्लांट सीधे नदी या चकबांध से पानी अपनी ओर मोड़ रहा है जबकि वह पानी खेतीबाड़ी के काम आता है। इस याचिका पर सुनवाई करते हुए एनजीटी ने पिछले साल सितंबर में प्लांट को निर्देश दिया था कि वह राजघाट लघु नहर से परियोजना स्थल तक ''जल्द से जल्द, अधिकतम तीन महीने के भीतर'' पाइपलाइन के निर्माण का काम पूरा कर ले। यह काम अब तक पूरा नहीं हो सका है।
कचनौंदा बांध का मामला संयोग से मराठवाड़ा के परभणी जिले के मासोली बांध के काफी करीब ठहरता है। यहां पावर प्लांट की ओर पानी मोड़ा जा रहा है, तो वहां गन्ना मिल की ओर पानी मोड़े जाने का मामला है। मासोली बांध में 2013 की गर्मियों तक जायकवाड़ी या उजनी बांध के मुकाबले (जहां डेड स्टोरेज का पानी इस्तेमाल में लाया जा रहा है और लाइव स्टोरेज शून्य है) 37 फीसदी जल भंडार उपयोग के लायक था (लाइव स्टोरेज) और महाराष्ट्र का यह इकलौता बांध था जो 2012 में बिना बारिश के भी 100 फीसदी भरा हुआ था। इसके बावजूद इस बांध के कमान क्षेत्र में आने वाले आठ गांवों में से सिर्फ तीन को 2013 में इससे पानी मिल रहा था। इसके उलट बांध के करीब स्थित गंगाखेड़ चीनी मिल को आधिकारिक तौर पर यहां से 2 टीएमसी पानी मिलता है जबकि बाकी पानी पाइपलाइनों द्वारा अवैध तरीके से चुराया जाता रहा है। गन्ना मिलों या पावर प्लांटों के लिए बांधों से पानी की चोरी की परिघटना एक ऐसा खुला सच है जिसे कोई चुनौती नहीं देता।
एनजीटी ने पिछले साल ही मोहर सिंह यादव की याचिका पर सुनवाई पूरी कर के केस को बंद कर दिया। अभी अकेले ललितपुर में ऐसे 13 बांध बनाए जाने हैं जिनमें एक बांध तो बालाबेहट में इजरायल की मदद से रबड़ का बनाया जाना है, जिसे लेकर काफी चर्चाएं हैं। ललितपुर जिला सबसे ज्यादा बांधों के लिए मशहूर हो चुका है, लेकिन अफसोस कि यहां भूख-प्यास से हो रही मौतों की संख्या भी लगातार बढ़ती जा रही है। चारों ओर मर रहे इंसानों और पशुओं के साम्राज्य में खेती के नाम पर बरबाद किए गए 425 करोड़ रुपये (गुणा 13) की जवाबदेही आखिर किसकी है?
इस अंधेर के साम्राज्य में टीकमगढ़ के मोहनपुरा निवासी सियाराम यादव एक बुझती हुई लौ की तरह दमक रहे हैं। साठ साल के सियाराम यादव के तीन लड़के हैं, तीन बहुएं हैं और पत्नी हैं। दिन भर तीनों बहुएं और पत्नी डेढ़ किलोमीटर दूर से पानी भरने का काम करती हैं। यादव के पास 30 गायें हैं और आज भी उन्होंने एक भी गाय को सड़क पर नहीं छोड़ा है। सभी गायें फिलहाल स्वस्थ दिखती हैं। यह वही गांव है जहां के आदिवासियों के पास खाने तक को अनाज नहीं और पूरे गांव में एक ही हैंडपंप है, लेकिन सियाराम यादव ने हार नहीं मानी है।
वे कहते हैं, ''खेत के खेत सूख गए हैं। सुबह से शाम तक घर की औरतें पानी भरती हें, लेकिन पशुओं को सड़क पर मरने के लिए छोड़ देने का जी नहीं करता। जैसे हम जी रहे हैं, वैसे ही ये भी जिएंगे। बस एक ही गुज़ारिश है कि सरकार मेरे घर के बाहर एक हैंडपंप लगवा दे।'' सरकार को इन आदिवासी गांवों से न पहले मतलब था और न अब है। यदव जैसे कुछ लोग हैं जो अपने दम पर सूखे और कुदरत को चुनौती दे रहे हैं, बाकी मरने को मजबूर हैं। यादव के पुत्र फूल सिंह कहते हैं, ''हमें नहीं पता कि कितने दिनों तक हम गायों को पाल पाएंगे। जब तक चल रहा है, तभी तक है।''
केंद्र सरकार ने जिस ईमानदारी से माना है कि एक-चौथाई देश सूखे की चपेट में है, उसी तर्ज पर उसे यह भी मान लेना चाहिए कि यह सब उसकी भ्रामक विकास नीति के चलते हुआ है। जिस इलाके में सात लाख लीटर पानी बेकार पड़ा हो और प्रशासन उसकी उपयोगिता से इनकार कर रहा हो, वहां यह कहने में कोई गुरेज़ नहीं होना चाहिए कि बुंदेलखंड में भूख-प्यास से हो रही मौतें दरअसल एक सुनियोजित सामूहिक नरसंहार हैं। जिस इलाके में 425 करोड़ का बांध सूखी नदी के ऊपर पिकनिक स्पॉट बना हुआ हो, वहां से आ रही भुखमरी की खबरें स्वाभाविक नहीं हो सकतीं, एक सोची-समझी साजिश का नतीजा हैं। सरकार और मीडिया जिसे सूखा कह रहे हैं, वह वास्तव में सूखा नहीं है। यह अपने ही नागरिकों के खिलाफ सरकारों की एक जंग है।
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