Monday, May 2, 2016

छठी से बारहवीं शताब्दी का उत्तराखंड (ब्रह्मपुर एवं कार्तिकेयपुर नरेशों के दानपत्रों का भौगोलिक विश्लेषण) लेखक : ताराचन्द्र त्रिपाठी

छठी से बारहवीं शताब्दी का उत्तराखंड
(ब्रह्मपुर एवं कार्तिकेयपुर नरेशों के दानपत्रों का भौगोलिक विश्लेषण)
लेखक : ताराचन्द्र त्रिपाठी
1976 जनवरी माह और उत्तरायणी के आगे पीछे की कोई तारीख। मैं तब उत्तराखंड में राष्ट्रीय संग्राम, टिहरी रियासत के ढंढकों और विशेष रूप से कुली.बेगार संबंधी सामग्री की खोज में गढ़वाल की यात्रा पर था। वहीं श्री ताराचन्द्र त्रिपाठी मिले थे। यद्यपि 1974 में कुमाऊँ विश्वविद्यालय की प्रथम संगोष्ठी में मैं उनकी रोचक प्रस्तुति सुन चुका था पर फील्ड में यह उनसे पहली मुलाकात थी। दो.तीन दिन तक हम मिलते रहे और विविध विषयों पर चर्चा होती रही।
उन्होंने बताया कि वे उत्तराखंड के प्राचीन अभिलेखों में वर्णित स्थान-नामों के प्रत्यक्षीकरण की प्रक्रिया में यात्रा पर निकले हैं। यह एक रोचक कार्य था। प्राचीन उत्तराखंड संबंधी कुछ दुर्लभ ताम्रपत्रों में वर्णित स्थान-नामों को भाषा, पुरातत्व तथा भूगोल की मदद से ढूँढना कौतूहल भरा भी लगा। दो तीन दिन बाद वे रवाँईं की ओर और मैं टिहरी चला गया।
तब से वे इस कार्य को किसी न किसी रूप में करते रहे। मित्र लोग बार-बार उनसे आग्रह करते रहे कि वे इस कार्य को आगे बढ़ाएँ और प्रकाशित करें। पर उनकी शिक्षक और प्राचार्य की जिम्मेदारियाँ उन्हें इस कार्य हेतु अवकाश नहीं दे सकीं। यद्यपि उनके अनेक निबंध प्रस्तुत और प्रकाशित होते रहे थे। अवकाश प्राप्ति के बाद वे इस कार्य को प्रकाशन योग्य बनाने में जुट गये और अनेक महीनों तक लगातार जुट कर प्रस्तुत पुस्तक तैयार हो सकी।
इतिहास लेखन की सबसे बडी दिक्कत यही है कि जितना कुछ इतिहास- विभिन्न स्रोत.सामग्री के रूप में हम तक बहता आया है, उसी से हम अतीत में झाँकने या युग विशेष के कुछ हिस्सों को देखने की क्षमता पाते हैं।
उत्तराखंड के प्राचीन इतिहास को धुँधलके ने बहुत घेरा है। पुरातात्विक, नृतात्विक तथा भाषायी स्रोतों के मिल जाने से धुँधलका घटा जरूर है पर स्पष्ट चित्र फिर भी नहीं बन पाया है। ताम्रपत्रों में अवश्य कुछ ऐतिहासिक रोशनी छिपी हुई थी। लेकिन ताम्रपत्रों की ऐसी व्याख्या नहीं हो सकी, जिससे वे स्थान-नाम उजागर हों, जहाँ लोग, या सामन्त रहे/बसे थे। स्थान-नामों के प्रत्यक्षीकरण में दरअसल सांस्कृतिक और राजनीतिक भूगोल की पहचान छिपी है। इससे इतिहास का एक महत्वपूर्ण पक्ष उजागर होता है।

लगभग डेढ़ हजार से हजार साल तक पुराने ताम्रपत्रों या प्रशस्तियों से प्राचीन स्थान-नामों को निकाल कर वर्तमान भूगोल में उनकी पहचान करना रोमांचक से ज्यादा एक गहन और कठिन काम है। इसमें नृतत्व, भाषा विज्ञान, पुरातत्व तथा लोक.ऐतिहासिक सामग्री मदद तो करती है लेकिन यह सामग्री इतिहासकार की दृष्टि और शोध प्रणाली की विशिष्टता के बिना नतीजे नहीं देती।
श्री त्रिपाठी ने पहचान की इस बहु आयामी प्रक्रिया को विशिष्ट शोध प्रणाली तथा दृष्टि से सम्पन्न किया है। कितनी ही बार उनके नतीजे बदले अथवा संशोधित हुए हैं। लेकिन कमोवेश ये उत्तराखंड के प्राचीन ऐतिहासिक भूगोल को उजागर करते हैं। इस अध्ययन को आधार मान कर और भी विस्तृत अध्ययन हो सकते हैं। हालांकि इस अध्ययन में विश्लेषित ताम्रपत्रों या प्रशस्ति की तरह ऐतिहासिक तथ्यों से भरपूर सामग्री हमारे पास बहुत अधिक नहीं है। चन्द परमार या गोरखा शासकों के ताम्रपत्र या प्रशस्तियाँ ज्यादा तथ्य उजागर नहीं करतीं हैं।

हमारी आशा है कि यह अध्ययन नये इतिहासकारों तथा भाषाविदों के मन में रचनात्मक बेचैनी पैदा करेगा। यह भी कम महत्व का नहीं है कि यह काम विश्वविद्यालयों या संस्थानों के द्वारा प्रदत्त ’प्रोजेक्ट’ के अन्तर्गत नहीं?, बल्कि एक शिक्षक की अपनी निजी आर्थिक, बौद्धिक और खोज-धुमक्कड़ी की क्षमता से सम्पन्न हुआ है। यह उम्मीद स्वाभाविक है कि श्री त्रिपाठी शोध और रचनात्मकता का यह सिलसिला जारी रखेंगे।
पहाड़ की शुभ कामनाएँ।
शेखर पाठक
टिप्पणी : हिन्दी संस्करण छठी से बारहवीं शताब्दी का उत्तराखंड
(ब्रह्मपुर एवं कार्तिकेयपुर नरेशों के दानपत्रों का भौगोलिक विश्लेषण) अप्राप्त
अंग्रेजी संस्करण HISTORICAL GEOGRAPHY OF
THE CENTRAL HIMALAYAN KINGDOMS
(7th CE. to 12th Century CE.)’,
समय साक्ष्य १५ फालतू लाइन, देहरादून में उपलब्ध
I had an occasion to read with great interest and curiosity the first book that Sri Tara Chandra Tripathi had written in Hindi on the Historical Geogrtaphy of Uttarakhand. It was enough to gather from it that the author had put a great deal of efforts not only in studying the copper plates of historical importance but also went to the identified places, criss-crossing the entire length and breadth of Uttarakhand, virtually without any funding or support. Now that he has revised the same book with great efforts and written it in English for wider audience is surely welcome and praiseworthy. He does not claim to be an archaeologist but as one can gather, he has amassed a great amount of geographical data that a number of archaeologists can keep themselves busy with, in visiting those sites with a view to gathering immensely useful information and material which may put Tripathi’s research in better perspective in terms of archaeology.
I am sure, Tripathi’s monograph will be welcomed by the scholars at large. New information may come forward from the well-informed readers to further enrich the research and also tantalize the archaeologists to undertake field research over the space that Sri Tripathi has covered.
(Padmshri ) Dr.Ravindra Singh Bisht
Joint Director General (retd)
Archeological Survey of India

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