Sunday, May 1, 2016

क्यों बेकाबू हो जाती है जंगल की आग?विनोद पांडे

क्यों बेकाबू हो जाती है जंगल की आग?

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विनोद पांडे

नैनीताल समाचार

Uttarakhand's Premium and Real Newspaper

उत्तराखण्ड के जंगलों की आग की तस्वीरें जैसे ही सोसल मीडिया के माध्यम से वायरल हुर्इ तो  हमारे  राष्ट्रीय  मीडिया के लिए बढि़या स्टोरी साबित हुर्इ। सभी न्यूज चैनल अपनी तरह से इस खबर को दिखा रहे हैं। एन.डी.आर.एफ. की 3 टीमें जिनमें 135 व्यकित होगें, पौड़ी, चमोली और अल्मोड़ा में लगाये जाने की खबरें आ रही हैं। वायुसेना के एम़.आर्इ.17 हेलीकाप्टर लगाये जा रहे हैं। कहा जा रहा है कि अब तक जो 3000 वन अग्नि  शमन  कर्मचारी काम पर लगाये गये थे उनकी संख्या 6000 कर दी गर्इ है। ये लोग दिहाड़ी मजदूर होते हैं। जो स्थानीय ग्रामीण होते हैं। जिनका कोर्इ प्रशिक्षण भी नहीं होता है। एन.डी.आर.एफ. भले ही कितनी ही कुशल क्यों न हो, वह वनाग्नि  की प्रवृत्ति से परिचित नहीं हो सकती है। इसी तरह अग्नि शमन कर्मचारी भी वनों की आग से निबटने के लिए प्रशिक्षित नहीं होते हैं। इस तरह मीडिया के माध्यम से जनता को बहलाने के लिए सरकार ने पर्याप्त जुगाड़ कर दिया है। पर इस समस्या पर गंभीरता की जरूरत है।
मर्इ के महीने आते ही उत्तराखण्ड के जंगलों में आग का आतंक शुरू हो जाता है। आमतौर पर जंगलों की आग हर तीसरे साल अधिक उग्र होती है, हालांकि इसमें गर्मी व बारिश  का प्रभाव भी रहता है।यह उल्लेखनीय है कि इस वर्ष  मानसून के बाद बारिश  बहुत कम हुर्इ है। जैसे कि देश  के अनेक हिस्सों में सूखे का प्रभाव नजर आ रहा है, उत्तराखण्ड इससे अछूता नही है। पर 66 प्रतिषत वन क्षेत्र होने के कारण वनों में आग का फैलना सामान्य जन को भी चितिंत कर देता है। इस वर्ष  तो शीतकाल से ही लगातार वनाग्नि  की दुर्घटना लगातार बढ़ रही हैं। अप्रैल आते आते वनाग्नि  प्रचण्ड रूप से अधिकांश  जंगलों को अपनी चपेट में ले चुकी है।
भारतीय वन सर्वेक्षण विभाग के अनुसार मार्च से इस वर्ष  उत्तराखण्ड के वनों में 1239 वनाग्नि  की दुर्घटनाऐं हो चुकी हैं। जिसमें 2269 हैक्टर जंगल खाक हो चुका है। इन इलाकाें में कार्बेट नेशनल पार्क व राजाजी नेशनल पार्क के इलाके भी हैं। जिनमें 558 है0 जल चुका है। भारतीय वन सर्वेक्षण विभाग क्षेत्रफल का विवरण प्रस्तुत नहीं करता है। यह विवरण वन विभाग अपने फील्ड के आंकड़ों के आधार पर बतायेगा। उनकी सत्यता संदिग्ध रहती है क्योंकि उत्तरदायित्व से बचने के लिए वन विभाग के कार्मिक  संभलकर ही सूचना देते हैं। जहां तक जन सामान्य का अनुमान है जंगल बुरी तरह जल रहे हैं। किसी दिन इतना अधिक धुंआ होता है कि सांस लेने में तक कठिनार्इ होने लगती है। चिकित्सक इस तरह के वातावरण को बच्चों, बुजुगोर्ं व अस्थमा के रोगियों के लिए घातक बता रहे हैं। नैनीताल जैसे शहर में अप्रैल का अंतिम सप्ताह धुएं से भरा रहा। प्राप्त समाचारों के अनुसार उत्तराखण्ड में अब तक कम से कम 6 लोग इस आग से मर चुके हैं व कम से कम 12 लोग बुरी तरह झुलस गये हैं। 
हर साल अत्यधिक नुकसान पहुंचाने वाली इस आग पर नियंत्रण का दायित्व वन विभाग का बनता है। छोटा सा उत्तराखण्ड वन विभाग अफसरों की लंबी फौज से सुसजिजत है। यहां पर प्रमुख वन संरक्षक व मुख्य वन संरक्षक स्तर के शीर्षस्थ  पद पर करीब 30 अफसर तैनात हैं। जबकि अविभाजित उ0प्र0 में कभी केवल एक मुख्य वन संरक्षक ही पूरा प्रदेश  को संभाल लेता था। पर निचले स्तर पर कर्मचारियों की सिथति बहुत बुरी है। रेंज, सेक्सन और बीट स्तर पर आज भी उतने ही कर्मचारी हैं, जितने करीब 30 साल पहले थे। काम की जिम्मेदारी बढ़ने के बाद भी रेंज, सेक्सन और बीटों का पुर्नगठन नहीं हुआ। जिससे निचले स्तर के कार्मिकों का अपने कार्यक्षेत्र पर नियंत्रण रखना संभव ही नहीं है। यही नहीं विभाग में दैनिक मजदूराें की संख्या इतनी अधिक है कि उनमें से कर्इयों का तो रिटायर होने तक भी स्थायी होने का नंबर नहीं आ पाता है। कर्इ 40-50 साल की उम्र में स्थायी होकर वन आरक्षी बन पाते हैं। विभाग में 1986 के बाद से वन रेंजरों की नियुकित नहीं हुर्इ थी, अब जाकर यह भर्ती 2014 से शुरू हुर्इ है। इसी तरह सहायक वन संरक्षक की भर्ती 1984 के बाद से नहीं हुर्इ है। संभवत: विभाग में भर्ती को लेकर कोर्इ योजना है ही नहीं।
किसी समय वन विभाग राजस्व का महत्वपूर्ण स्रोत हुआ करता था। दूर दराज जंगलों की रखवाली के लिए वहां सभी पदों के कार्मिकों के लिए चौकियां बनी थी। आज ये चौकियों वीरान हैं। मुश्किल  से कोर्इ कर्मचारी इनमें रहते हैं। वनों में 1000 मी0 से अधिक के ऊँचार्इ के क्षेत्रों में पातन पर प्रतिबंध लगने से वनों में काम एकदम कम हो गया। रही सही कसर 1996 के गोंडावर्मन बनाम भारत सरकार जनहित याचिका के तहत गठित विषेशज्ञ समिति ने वनों दस वर्षीय  पातन चक्र ने कर दी। इससे पर्वतीय वनों में वृक्षों के पातन का काम बहुत ही कम हो गया। पहाड़ों में कर्इ इलाकों में बाहर से आकर बसने वाले लोगों को इमारती लकड़ी की आपूर्ति तस्करी से पूरी होने लगी। आज पूरे उत्तराखण्ड मे शायद ही कोर्इ पर्वतीय इलाका होगा जहां पर तस्करी की इमारती लकड़ी आसानी से उपलब्ध न हो। कुल मिलाकर जो भी सिल्वीकल्चर था, उसे पूरी तरह बंद कर दिया गया। इससे वनों में अवांछित खरपतवारों की संख्या में अप्रत्याशित  वृद्धि हुर्इ। जिससे वनों में जैव पदार्थ की कमी होने से निश्चित  रूप से वर्षा  के पानी को रोकने व वन भूमि की नमी में भारी कमी हुर्इ। इस कारण सूखा मौसम आने पर वन एकदम दावाग्नि  के लिए संवेदनशील  होने लगे हैं। इसलिए यह कहा जा सकता है कि वनों में अग्नि  प्रतिरोधकशक्ति  में निरंतर ह्रास हुआ है। जिस कारण अगिनदुर्घटनाऐं अप्रत्यासित हो रही हैं।
वनाग्नि दो प्रकार की होती है। पहली जमीनी आग दूसरी छत्र आग। जैसा कि नाम से ही स्पष्ट  है कि जमीनी आग का फैलाव जमीन से होकर जाता है जबकि छत्र आग पेड़ों के छत्र से होकर फैलती है। पहाड़ों के जंगलों में आमतौर पर जमीनी आग ही अधिक होती है। यह आग क्योंकि जमीन में फैलती है इसलिए बुझने के बाद प्रभाव कम नजर आता है और विषेशकर 2-4 बारिषों के बाद तो कुछ भी पता नहीं चलता। पर वास्तव में यह आग पारिस्थितिकी  की दृष्टि  से विनाशकारी होती है क्योंकि इससे वन भूमि के धरातल मे मौजूद खाद जल कर नष्ट  हो जाती है, जिस कारण वन भूमि का कटाव बढ़ जाता है, जल स्रोतों में कमी हो जाती है, वृक्षों की वृद्धि रूक जाती है, वन के शाक व झाडि़यां जल कर नष्ट  हो जाती हैं। इन सबसे वन्य जीव व पक्षी बुरी तरह प्रभावित होती है। कुल मिलाकर वन की पारिस्थितिकी  का ह्रास होता है। जिससे स्थानीय आबादी की आर्थिकी प्रभावित होती है। जिससे व्यापक रूप से सांस्कृतिक, सामाजिक, आर्थिक, कृशि व पर्यावरणीय क्षति होती है। इसलिए वनों की आग की घटनाओं को हल्के में लेना उत्तराखण्ड के पर्वतीय क्षेत्र के लिए उचित नहीं होगा। 
वन विभाग में अग्नि  नियंत्रण को लेकर कार्ययोजना में उपाय निर्धारित होते हैं। जिसके अंर्तगत प्रत्येक प्रभाग में अग्नि  नियंत्रण के उपाय किये जाते हैं। जिनके लिए प्रत्येक स्तर पर उत्तरदायित्व निर्धारित होता है। इस काम के लिए बजट आबंटन होता है, सीजनल कर्मचारियों की नियुक्ति  होती है। व्यापक प्रचार कार्य होता है। ग्रामीणों के साथ बैठकें की जाती हैं। जंगल आग न फैले इसके लिए जाड़ों में नियंत्रित फुकान प्रस्तावित होता है, जंगलों में फायर लाइन को स्थायी रूप से बनाया जाता है। इन तमात उपायों के बाद जैसे ही मौसम प्रतिकूल हो जाता है तो सब कुछ ध्वस्त होकर वनाग्नि  की पुनरावृत्ति क्यों हो जाती है, इस प्रश्न  का उत्तर देने से वन विभाग कैसे बच सकता है? जाहिर है कि या तो योजना गलत है या उसका सही तरह से पालन नहीं होता। पर सच यह है कि न हीं योजना सही होती है और जो बेकार योजना बनती है वह भ्रष्टाचार  की भेंट चढ़ जाती है। जन साधारण द्वारा वनो की आग के संबध में एक बहुत गंभीर आरोप लगाया जाता है, वह है कि वनों मे साल भर अवैध कटान होता है और गर्मियों में वनों में आग लगाकर वन विभाग स्वयं ही अवैध कटान के सबूत नश्ट कर देता है। यह आरोप गंभीर है, इसका जिक्र राज्यपाल महोदय ने भी एक बयान में किया है। इस पर नियंत्रण कैसे हो यह भी सोचना होगा।
वन विभाग एक ऐसा विभाग है जिसका गठन ब्रिटिश  काल में वृक्षों के विदोहन के लिए किया गया था। आज वनों को जन कल्याण के स्रोत के रूप में देखा जाता है। लेकिन वनों के पुर्नगठन के लिए गंभीर प्रयास नहीं हुए हैं सिवाय इसके कि अफसरों की लंबी फौज खड़ी कर दी गर्इ है। आज वन विभाग में विषेशज्ञता का पूर्णत: अभाव हो चुका है। वन विभाग में एक ही कर्मचारी या अधिकारी इंजीनियर भी होता है, वन जीव विषेशज्ञ भी, वन वर्धनिक भी, पुलिस भी, कानूनी जानकार भी, सामाजिक कार्यकर्ता भी, वन रोग विषेशज्ञ भी, योजनाकार भी आदि, आदि। किसी भी विभाग में विशेषज्ञ  के अभाव में कोर्इ भी योजना न बन सकती है न क्रियानिवत हो सकती है। भ्रष्टाचार र के मामले में इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि स्थानीय अखबारों में शायद ही कोर्इ दिन होता है, जब वन विभाग की किसी कारगुजारी का जिक्र न हो। ऐसे माहौल में वनाग्नि  जैसी आपदा से निबटने की उम्मीद कैसे की जा सकती है। हां जैसा कि देखा गया है कि व्यापक वनाग्नि हर 3 या 4 के बाद होती है, इसलिए पहले तो गर्मी खत्म होते ही बरसात  आने पर वनाग्नि के दाग धुलने लगते हैं और अगले तीन चार साल तक इस पर फिर कोर्इ चर्चा नहीं होती। इसलिए जन विमर्श  से यह भीशण समस्या गायब हो जाती है। वन विभाग इस सच्चार्इ को जानता है। इसलिए बेफिक्र रहता है। न हीं हमारे वन विभाग की कार्ययोजनाओं में अपनी वन संपदा का हिसाब किताब रखने का कोर्इ प्रावधान या तरीका है जिससे यह पता चल सके कि वास्तव में कितनी तस्करी हो रही है, कितना वन्य जीवों को क्षति हुर्इ कितनी प्राकृतवासों का क्षरण हुआ जल स्रोतों का ह्रास हुआ, गैर प्रकाश्ठीय वनोपज का नुकसान हुआ और कितना वृक्षों को नुकसान हुआ?
दरअसल हमारे जंगलों विशेषकर  चीड़ के जंगलों की परिसिथतियां ऐसी हो गयी हैं, जो कि आग के लिए अत्यन्त संवेदनशील  हो चुकी हैं। वनाग्नि के लिए तीन कारकों का होना आवश्यक  है। पहला- ज्वलनशील  पदार्थ, दूसरा-गर्मी, तीसरा- खुष्की। जंगल में पत्तियाें, टहनियों आदि के गिरने सूखने से जंगलों में ज्वलनशील पदार्थों  की प्रचुरता रहती है। इसका अधिक होना जंगल के लिए अच्छा है क्योंकि यह सड़-गल कर जंगल की वनस्पतियों के लिए खाद बनती है। दूसरा कारक- गर्मी है जो कि मौसम पर निर्भर है, इस पर हमारा कोर्इ नियंत्रण नहीं है। पर तीसरा यानी खुष्की को हम नियंत्रित कर सकते हैं। इसके लिए वनों का प्रबंध इस प्रकार होना चाहिये कि वनों में जमीनी वनस्पतियों व घासों के उत्पादन के लिए परिस्थितियाँ  तैयार करनी होंगीं। ये एक दीर्घकालीन प्रयास होगा। जमीनी वनस्पतियां जितनी विविध व सघन होगीं, उतनी ही वन के धरातल पर नमी बढ़ेगी यानी खुष्की घटेगी। यह जंगल की आग संवेदनषीलता को काफी हद तक कम करेगी। इसलिए यांत्रिक नियंत्रण के बजाय जैविक नियंत्रण की आवष्यकता है।
खबरों के अनुसार प्रधानमंत्री, गृहमंत्री व राज्यपाल ने तक इस आग पर चिंता प्रकट की है। वित्तीय मदद देने के समाचार आ रहे हैं। सही योजना के बनाने के अतिरिक्त सही योजना का क्रियान्वयन इसके लिए जरूरी है। इसके लिए वनों के सिल्वीकल्चर में व्यापक बदलाव लाना होगा। लेकिन वन विभाग में आज विषेशज्ञता का अभाव है। ऐसे में भविश्य में कोर्इ सार्थक योजना बनने की संभावना नहीं है। जैसे देखा गया है कि भयानक आग 3-4 साल के अंतराल में लगती है। इस साल मानसून के आने पर आग पूरी तरह खत्म हो जायेगी। और यह चर्चा जनता केविमर्श से समाप्त हो जायेगी। अलबत्ता वन विभाग को इसके बहाने जो बजट की सौगात मिलेगी उसका दुरूपयोग ही अधिक होगा, क्योंकि पिछले अनुभव हमें यही बताते हैं।
इस जंगल की आग के बारे में मीडिया व सोशल  मीडिया में जिस तरह प्रतिक्रिया हो रही है उससे किसी हल तक पहुंचनामुश्किल  है। क्योंकि वह केवल दहशत  को बढ़ाने वाली है, वह शहरी  दृष्टीकोण है। वनागिन को जब तक केवल आग, धुंआ, गर्मी को बढ़ाने वाला, प्रदूषण  या अस्थमा को बढ़ाने वाली दुर्घटना समझने की सोच रहेगी इस पर उतनी गंभीरता से विचार नहीं होगा। इसलिए जब तक वनाग्नि  से हुर्इ सांस्कृतिक, सामाजिक, आर्थिक, कृषि  व पर्यावारणीय क्षति का निश्पक्ष रूप से आंकलन नहीं होगा तब तक वनाग्नि एक आयी-गयी बात हो कर ही रह जायेगी। राजनीतिक बयानबाजी भी होगी, मीडिया से लेकर एन.जी.ओ. को मसाला मिलेगा, और वन विभाग का बजट बढ़ जायेगा। इस क्रम को हम बार-बार देखते रहेंगें। क्योंकि वनाग्नि कोरपोरेटों को सीधे प्रभावित नहीं करती इसलिए इस संबध में निर्णय न लेना पालिसी पैरालिसिस की श्रेणी में भी नही आता। इसलिए अभी किये जा रहे तथाकथित प्रयास व बयानबाजी केवल मातमपुर्सी  होकर ही रह जायेगें, यदि वनों की आग को वनों का कुप्रबंध वनों के उपजे अनियंनित्र कटान, वनों की तस्करी, वनों का निरंतर अवनतीकरण, वनों में बिगड़ते पारिस्थितिकी  संतुलन से जोड़कर नहीं देखा जाता, वनों की आग से निजात नहीं पायी जा सकेगी।

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